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मजीठिया वेतनमान : केस करने के लिए मीडिया संगठनों को पत्रकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं

मजीठिया वेतनमान की लड़ाई में एक बात जो चुभती है वह है पत्रकार संगठनों की बेरूखी। मजीठिया वेतनमान मामले में किसी भी संगठन को किसी पत्रकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं। यदि कोई संगठन जिले में काम कर रहा है तो उस जिले में कोई भी कर्मचारी क्यों ना हो। व संगठन की सदस्यता लिया हो या ना लिया हो। संगठन उसके हक की आवाज श्रमपदाधिकारी या श्रम न्यायालय में उठा सकता है।

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मजीठिया वेतनमान की लड़ाई में एक बात जो चुभती है वह है पत्रकार संगठनों की बेरूखी। मजीठिया वेतनमान मामले में किसी भी संगठन को किसी पत्रकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं। यदि कोई संगठन जिले में काम कर रहा है तो उस जिले में कोई भी कर्मचारी क्यों ना हो। व संगठन की सदस्यता लिया हो या ना लिया हो। संगठन उसके हक की आवाज श्रमपदाधिकारी या श्रम न्यायालय में उठा सकता है।

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अधिकांश पत्रकार संगठन ये चाहते हैं कि पत्रकारों को मजीठिया वेतनमान मिले लेकिन वे पत्रकारों का साथ इसलिए नहीं देते क्योंकि अमुक मीडिया संस्थान नाराज हो जाएगा। हमें फर्जी संगठन घोषित कर देगा और सरकार से जमीन व अन्य सुविधाएं लेने के सपनों में पानी फिर जाएगा। खैर पत्रकार संगठनों को इन सोचों से ऊपर उठकर मजीठिया वेतनमान की लड़ाई में खुलकर सामने आना चहिए।

सबसे बड़ा बहना
पत्रकार संगठनों को बहाना होता है कि अमुक संस्थान के पत्रकार मजीठिया वेतनमान की लड़ाई में हमारा सहयोग नहीं चाहते। या अमुक प्रेस के कर्मचारी हमारे संगठन के सदस्य नहीं है इसलिए उनका केस हम कैसे लड़ सकते हैं। यह सब मिथक बातें हैं। जिले में कार्यरत कोई भी पत्रकार संगठन किसी भी कर्मचारी की समस्या पर स्वमेव एक्शन ले सकता है। इसके लिए पीडि़त कर्मचारी(पत्रकार) से अनुमति लेने की जरूर नहीं।

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क्या करें?
वर्तमान समय में पत्रकार संगठनों को आगे आकर हर संस्थान में कार्यरत सभी कर्मचारियों के बकाया वेतनमान दिलाने को लेकर एक क्लेम स्वयं सहायक श्रमायुक्त न्यायालय में डालना चहिए। भले ही यह अनुमानित क्लेम हो। ऐसे मामलों में संगठन का अध्यक्ष या अन्य पदाधिकारी अपनी तरफ से अथारिटी लेटर जारी कर किसी को नियुक्त कर देता है जो इस मामले पर क्लेम करता है। और बीच-बीच में श्रमपदाधिकारियों से मिलकर उनपर जल्द रिकवरी लेटर जारी करने का दबाब बनाना चहिए। जो श्रम पदाधिकारी आनाकानी करें तो उसकी शिकायत, श्रमायुक्त, श्रम मंत्री, मुख्यमंत्री या हाईकोर्ट से करने की धमकी भी बीच-बीच में देती रहनी चहिए।

चूंकि कुछ श्रमपदाधिकारी यह बहाना मारकर केस को लेबर कोर्ट टाल देते हैं कि विवाद सुलझाना उनका काम नहीं है। ऐसे श्रमपदाधिकारी पत्रकारों के साथ धोखा कर रहे हैं। जर्नलिस्ट एक्ट में सिर्फ नौकरी से निकालने संबंधित विवाद श्रम न्यायालय जाता है। रिकवरी क्लेम के लिए सहायक श्रमायुक्त का सक्षम प्राधिकारी होता है। इसके लिए देंखे लखनऊ में हिंदुस्तान कर्मचारियों के संबंध में जारी सहायक श्रमायुक्त का आदेश… नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें और पढ़ें..

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‘हिंदुस्तान’ अखबार से 6 करोड़ वसूलने के लखनऊ के अतिरिक्त श्रमायुक्त के आदेश की कापी को पढ़िए

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http://www.bhadas4media.com/print/12191-lko-alc-order-copy?limitstart=0

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इसलिए पत्रकार संगठनों को सामने आना चहिए। साथ ही साथ भीड़तंत्र और प्रदर्शनकर शासन, प्रशासन और प्रेस मालिकों पर दबाब बनाना चहिए कि वे कानून का पालन करें।

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सावधानियां
ध्यान रखें कि किसी संस्थान में कार्यरत एक कर्मचारी का क्लेम ना लगाए इससे उसकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है संस्थान में कार्यरत सभी कर्मचारियों का क्लेम लगाए। किसी को इसलिए ना छोड़े कि उसका व्यवहार अच्छा नहीं या वह साथ नहीं देता। सबको साथ लेकर चलना जरूरी है। ऐसे मामलों में कर्मचारी प्रेस मालिक से निश्चिंत होकर कह सकता है कि मैं नहीं जानता साहब वह बिना पूछे ही मेरे नाम का क्लेम लगा दिया। हालांकि कुछ प्रेस मालिक अपने कर्मचारियों को साफ निर्देश दे चुके हैं कि आप किसी संगठन से नहीं जुड़ेंगे। लेकिन कोई जुड़े ना जुड़े हक हर श्रमिक संगठन मांग सकता है।

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