Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

होश में आओ मीडिया घरानो, आग लग चुकी है!

लगता है, जिस वक्त की पिछले ढाई दशक से ईमानदार पत्रकारों, जुझारू मीडिया कर्मियों, जनपक्षधर संगठनों को बेसब्री से प्रतीक्षा थी, वह करीब आ रहा है। बात राष्ट्रीय सहारा की हो या दैनिक जागरण की, अब पेड न्यूज के पापियों, लाल कारपेट पर वारांगनाओं के डांस करा रहे सफेदपोश मीडिया धंधेबाजों से हिसाब-किताब बराबर करने का दौर धीरे-धीरे अंगड़ाई ले रहा है। 

लगता है, जिस वक्त की पिछले ढाई दशक से ईमानदार पत्रकारों, जुझारू मीडिया कर्मियों, जनपक्षधर संगठनों को बेसब्री से प्रतीक्षा थी, वह करीब आ रहा है। बात राष्ट्रीय सहारा की हो या दैनिक जागरण की, अब पेड न्यूज के पापियों, लाल कारपेट पर वारांगनाओं के डांस करा रहे सफेदपोश मीडिया धंधेबाजों से हिसाब-किताब बराबर करने का दौर धीरे-धीरे अंगड़ाई ले रहा है। 

मुद्दत बाद सूजे-पेट अजगरों के खोह में भारी खलबली है। हैरत है कि ऐसे वक्त में आजिज आ चुके मीडिया कर्मी फक्र से सर उठा रहे हैं, बेगैरत खबरफरोशों के गिरेबां ऐंठने के लिए आगे बढ़ चुके हैं, जबकि देश में ट्रेड यूनियनों का जमाना लद-सा चुका हो, श्रम कानून अपाहिज हो चुके हों। दैनिक जागरण और सहारा के बहादुर मीडिया कर्मियों के ताजा उभार पर कुछ जानने से पहले आइए, इस लहर के आने की नब्ज टटोल लें। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

निठल्लों, लंपट तत्वों और अपराधियों के बूते शहंशाह बन बैठे ‘सरकार’ नामक हुक्मरानों के साये में पल कर दैत्याकार हो चुका धन-मीडिया जबकि बाजारू पाखंड के चरम से गुजर रहा है, पत्रकारों की आए दिन हत्याएं हो रही हैं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद बेशर्म मीडिया घराने श्रमजीवी पत्रकारों को उनका हक-हिसाब देने से साफ-साफ मुकर रहे हैं, सोशल मीडिया पर उनकी करतूतों का रोजाना भंडाफोड़ हो रहा है, लाइजनर चेहरे ‘संपादक’ बन बैठे हैं, धूर्ततापूर्ण तरीके से मालदार मालिकान खुद ‘महासंपादक’ के वेश में अट्हास कर रहे हैं, ऐसे में स्वतंत्रता संग्राम जैसा ये वक्त साफ इशारे कर रहा है कि अब आग लग चुकी है, जो बुझाए नहीं बुझने वाली। ये आग मजीठिया वेतनमान न देने के विरोध की, ये आग पत्रकार-हत्याकांडों की मुखालफत की, जुझारू और ईमानदार पत्रकारों के स्वतःस्फूर्त उठ खड़े होने की।         

बड़े संकट के ऐसे वक्त में कुछ गंभीर चिंताएं भी हैं। चाटुकारिता, चालबाजी और नाटकीयता के बूते मालिकान के माल-मत्ते से सहबाई अंदाज में ऐशो-आराम भोग रहे शीर्ष मीडिया कर्मियों, ईमानदार लेखकों, संगठनकर्ताओं की बेशर्म खामोशियां खल रही हैं। लेखकों और संगठनकर्ताओं को छोड़ दें तो ताजा अंगड़ाई पर घुग्घू बने हुए ‘कार्यरत या अवकाश प्राप्त’ संपादकों को अच्छी तरह से पता है कि यह प्रवाह अब कुछ-न-कुछ कर गुजरने वाला है, फिर भी उनके मुर्दा जमीर में रत्ती भर हरकत नजर नहीं आ रही है।   

Advertisement. Scroll to continue reading.

मजीठिया वेतनमान न देने का हठ कितना भारी पड़ेगा, उससे कितना अंदर तक पत्रकार समुदाय गोलबंद हुआ है, आने वाला वक्त उसे दिनोदिन स्पष्ट करता जाएगा। मीडिया घरानों में जो शीर्ष पदों पर पत्रकारनुमा प्राणी बैठे हैं, और मालिकान के चप्पू चलाते हुए जिस मजाकिया टोन में इस ताजा हवा को ले रहे हैं, याद रखना होगा उन्हें कि जब उनके दौलतबाज पर कोई खलल टूटेगा तो उनकी भी निर्लज्ज तंद्रा सलामत नहीं रह पाएगी। वक्त रहते उनके भी होश में आने की जरूरत है। अपने ही संस्थान के पत्रकार की हत्या की घटना तक की मार्केटिंग कर डालना कैसी घिनौनी हरकत है। ऐसी तमाम लंपट करतूतें वे पत्रकार खुली आंखों देख रहे हैं, जो मजीठिया वेतनमान जैसे मुद्दे पर जूझ रहे हैं। न्यूज रूम के दरवाजे खिड़कियों पर शीशे चढ़ा लेने से उनके शब्द महान नहीं हो जाते हैं। महान शब्द वे ही हैं, जो अपने वक्त के सच से आंखें नहीं चुराते हैं।  

हमें भी इस गलतफहमी में नहीं रहना है कि मजीठिया वेतनमान का संघर्ष बाजारवादी पत्रकारिता को पराजित कर देगा, ये संघर्ष आजादी के आंदोलन की तरह पत्रकारिता को उसके सही अंजाम तक पहुंचा देगा अथवा न्याय पालिका लड़ रहे पत्रकारों की रोटियों का साफ साफ हिसाब करा ही देगी। श्रम विभाग के दफ्तरों तक भ्रष्टाचार का कैसा बोलबाला है, मालिकानों की ताकत कहां-कहां तक है, रोज-रोज पूंजी कितने तरह के खलनायक उगा रही है, अपनी अपनी नौकरी बचाने के प्रति घनघोर आग्रही वेतनजीवी मीडिया कर्मी इस संघर्ष का समवेत स्वर कभी नहीं बन सकेंगे। फिर भी इतना तो तय है कि आने वाले वक्त में अब जो कुछ होगा, इस लहर से आगे होगा। यदि कहीं सचमुच न्याय पालिका से आंदोलनकारियों को अपेक्षित इंसाफ मिल जाता है, फिर तो बात ही कुछ और होगी। इस दौर में सबसे शर्मनाक है उन संगठनों का पत्रकारों की लामबंदी से दूर रहना, जो अपने घोषणापत्रों में अदभुत मानवीयता का गायन करते रहते हैं। और ये भी कुछ कम शर्मनाक नहीं, जो छपास रोग के मारे हुए होने के नाते चारण बाना ओढ़ कर इस पूरे परिदृश्य पर चुप हैं, जैसे उन्हें सांप सूंघ लिया हो। आने वाले वक्त में उनकी भी औकात शब्दों के मदारी से ज्यादा न होगी। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

जयप्रकाश त्रिपाठी

 

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement