-यशवंत सिंह-
मीना कोटवाल बीबीसी में थीं लेकिन वहां जाति के दंश को झेलते झेलते एक दिन कार्यमुक्त हो गईं. उन्होंने अपनी पीड़ा को शब्दों का रूप दिया और धर दिया सोशल मीडिया पर. उनके लिखे के बाद गढ़-मठ दरकने लगे. मीना को कई तरह से तोड़ने की कोशिश की गई लेकिन ये लड़की किसी दूसरी मिट्टी से बनी हुई है.
मनोबल गिरने की जगह मीना का साहस बढ़ता गया. उन्होंने अपने करियर-जीवन को एक मकसद दे दिया. वंचित तबके की आवाज बनने की उन्होंने ठान ली. मीडिया में एक दलित लड़की के होने के मायने को उन्होंने समझा और सवर्णवाद के चंगुल में जकड़े चौथे स्तंभ को दलितों से कनेक्ट करना शुरू किया.
लोगों के नाक-भौं सिकोड़ने के बावजूद मीना डटी रहीं. बिहार चुनाव के मौके को उन्होंने उस प्रदेश की दलित आबादी के जीवन में घुसने का रास्ता बना लिया. वे गईं और खूब घूमीं. वीडियो, आडियो, टेक्स्ट हर फार्मेट में उन्होंने बिहार के दलितों के जीवन के सच को कनवर्ट किया.
आप मीना कोटवाल के लिखे को पढ़ें. उनके बनाए वीडियो को देखें. फेसबुक पर उनसे कनेक्ट हों. उन्हें फालो करें.
और… सोचें भी कि आखिर हम भारतीय कैसे किसी को चमार, डोम कहकर हीन जीवन, हीन मानसिकता, हीन भावना से ग्रस्त करते रहते हैं…
मैं मीना कोटवाल के मीडिया में होने का मीडिया का परम भाग्य मानता हूं. ऐसे जीवट और सरोकारी लोग अगर मीडिया में आते रहेंगे तो मीडिया के पाये मिट्टी से जुड़े रहेंगे.
मीना कोटवाल एक फेसबुक पोस्ट में लिखती हैं-
जिन आवाजों को किसी भी पत्रकार ने राष्ट्रीय पटल पर उठाना जरूर नहीं समझा, जिन लोगों की पीड़ा को इस मीडिया ने दिखाना जरूरी नहीं समझा…मैं उनकी आवाज उठाने की कोशिश कर रही हूं और लोग अब डोम, मुसहर जाति की समस्या से वाकिफ होने लगे हैं!
साथियों पता है आपको कि क्यों डोम समाज की पीड़ा को, उनके जानवर जैसी जिंदगी को किसी पत्रकार ने दिखाना सही नहीं समझा क्योंकि भारतीय मीडिया सवर्ण मीडिया है जिसे बहुजनों के दुख-दर्द से कोई मतलब नहीं है. उन्हें कोई मतलब नहीं है सदियों से हमारे साथ हो रहे जातिवाद से…
वे जातीय विशेषाधिकार के साथ सिर्फ और सिर्फ RSS के सेट नैरेटिव हिंदू-मुस्लिम पर काम करेंगे और वॉयस ऑफ वॉयसलेस कहलाएंगे. वे अवॉर्ड जीतेंगे, लेकिन आपके साथ बैठकर काम करना नहीं पसंद करेंगे. इन पत्रकारों का कोई एक उदाहरण नहीं मिलता, जहां इन्होंने किसी दलित महिला पत्रकार को आगे बढ़ाया हो या फिर पूछा हो कि इस सवर्ण स्ट्रक्चर में कोई दिक्कत तो नहीं है आपको…
उन्हें बिल्कुल फर्क नहीं पड़ता कि यही समाज एक दलित पत्रकार को इंटरनेशनल मीडिया संस्थान से जाति की वजह से बाहर निकाल देता है और इस पर यह सवर्ण मीडिया घनघोर चुप्पी साध लेता है. मैं इनकी रग-रग से वाकिफ हो रही हूं, आप इनकी पहचान करें क्योंकि ये सबसे खतरनाक लोग है इस देश और समाज के लिए.
कृपया इन्हें नायक बनाना बंद कीजिए, आज नहीं तो कल इनका भी इतिहास लिखा जाएगा, जैसे आज मनु का लिखा जा रहा है. और ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध…’
मीना कोटवाल से फेसबुक पर इस लिंक के जरिए कनेक्ट हो सकते हैं- https://www.facebook.com/profile.php?id=100004484351773
देखें मीना के कुछ हालिया पोस्ट और वीडियो…
-Meena Kotwal-
मैं बिहार घूम रही हूं और इस दौरान कई बातें ऐसी निकल कर आई हैं जिन्हें यहां रखना चाहती हूं.
- कई दलित बस्तियों में हिंदू देवी-देवता तो पहुंच गए हैं लेकिन बाबा साहेब अभी भी नहीं पहुंच पाए हैं.
- यहां दलित बस्ती के लोगों को अमूमन अपने अधिकारों के बारे में नहीं पता है.
- कई दलितों को SC/ST एक्ट के बारे में नहीं पता, कुछ ऐसे भी मिले जिन्हें आरक्षण के अधिकारों के बारे में नहीं पता है!
- वे पुलिस और बड़का लोग से दबकर रहते हैं.
- बिहार में कुछ दलितों को लगता है कि यही नियति है!
- वे बड़का जात के सामने बैठने का साहस नहीं कर पा रहे हैं.
- हर तरफ से दबाव बनने के बाद बच्चे स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं.
- दलितों में आपस में भी जो एकता होनी चाहिए वो नहीं है!
- यहां लोगों में स्वार्थ ज्यादा है, शायद जिंदा रहना ही सबकी उपलब्धि है.
- दलितों में महिलाएं और बच्चे सबसे ज्यादा पीड़ित हैं, कुपोषित भी हैं.
- RSS का एजेंडा दलित बस्तियों में फल-फूल रहा है जबकि बाबा साहेब का संविधान उनसे अभी भी दूर है.
- दलित नेताओं ने कुर्सी की लालच में इन बस्तियों पर ध्यान देना छोड़ दिया है.
- यहां दलित नेता सच बोलने का साहस खोते जा रहे हैं, वे सिर्फ सत्ता के करीब पहुंचना चाहते हैं.
- दलितों को भी दलितों से शिकायत है. शिकायतों में सबसे प्रमुख है कि हमारे दुख दर्द में अपने ही साथ नहीं देते हैं. दलितों के बीच भी मनुवाद हावी हो रहा है, दलितों में भी ऊंच-नीच घर कर रहा है.
- शायद ही कोई नेता दलितों का दुख-दर्द समझ पा रहा हो, सबको बस कुर्सी चाहिए!
- सच कहूं तो हम सभी बाबा साहेब के ‘Pay back to society’ को भूल रहे हैं.
- कुछ लोग थोड़ा सा आगे जरूर आए हैं लेकिन उन्हें बाबा साहेब के ‘Pay back to society’ पर चलना होगा.
- हम सबकी जिम्मेवारी है कि बाबा साहेब को घर-घर तक पहुंचाए. हम सभी को अपनी जिम्मेवारी निभानी होगी.
- डोम, मुसहर जैसी जातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार पर लगातार दबाव बनाना होगा, समाज के लोगों को बड़ा दिल दिखाते हुए इनकी हर तरह से मदद करनी होगी.
- बिहार में बाबा साहेब के इस कथन को घर-घर तक पहुंचाना होगा साथियों- ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो.’
- सही मायने में दलितों को आपस में ही रोटी-बेटी (बेटा) के संबंध को स्थापित करना होगा, जो बिहार में देखने को नहीं मिल रहा है.
- जो दलित आर्थिक रूप से संपन्न हो गए हैं, उन्हें इन बस्तियों में जाकर शिक्षा के लिए काम करना होगा.
- हम सब को आपसी मतभेद भूलाकर अब एक होना होगा!
-Meena Kotwal-
जय भीम,
आज कुछ बातें आप सभी से शेयर करना चाहती हूं. बिहार रिपोर्टिंग के दौरान मैं लगातार कई दलित बस्तियों में जा रही हूं. वहां बुजुर्गों, महिलाओं, बच्चों सबसे मिलना होता है. अमूमन मैं वहां जरूर पूछती हूं कि क्या आप बाबा साहेब को जानते हैं? SC/ST एक्ट के बारे में जानते हैं?
मुझे जानकर आश्चर्य हुआ कि बिहार में कई दलित आज भी बाबा साहेब को नहीं जानते हैं, उन्हें SC/ST एक्ट का भी नहीं पता है. सभी दोस्तों से गुजारिश है कि वे दलित बस्तियों में जाएं और इन सब पर जानकारी दें. बच्चों, महिलाओं को हमारे नायकों और अधिकारों के बारे में जरूर बताएं….
-Meena Kotwal-
एक हफ्ते पहले, इस तरह हुई थी हमारे बिहार दौरे की शुरूआत, लेकिन अब सब ठीक बा…!
ट्वीट संख्या 1 – मैं अभी दिल्ली पटना-राजधानी में सफर कर रही हूं, मेरे पति राजा को शाम 6 बजे से पेट के दाहिने हिस्से में नीचे की तरफ दर्द है जो अब बर्दाश्त के बाहर हो गया है। 138 पर कॉल करने पर कोई फोन नहीं उठा रहा है। मेरा सीट नंबर ए 5 में 19 और 21 है। @RailMinIndia कृपया तुरंत मदद की जाए।
ट्वीट संख्या 2- मेरे साथ एक 5 महीने की छोटी बच्ची भी है। डॉक्टर दोस्त से बात भी हुई है। उनका कहना है कि अपेंडिक्स का दर्द भी भी हो सकता है। फिलहाल निर्देश अनुसार पेरासिटामोल दिया है। @rajaiimc की इस असहनीय पीड़ा से मन व्याकुल है। @RailMinIndia कृपया तत्काल मदद की जाए @PiyushGoyal सर प्लीज
ट्वीट संख्या 3- अभी TTE आए हैं। उन्होंने कहा है की अगले स्टेशन मुगलसराय पर डॉक्टर उपलब्ध रहेंगे। पटना रेलवे से भी फोन आया है। मुगलसराय आने में अभी तकरीबन 2 घंटे हैं। अभी प्रयागराज से निकले हैं। @RailMinIndia कोई और विकल्प? लगातार दर्द की वजह से मेरे पार्टनर बहुत परेशान हैं @PiyushGoyal
ट्वीट संख्या 4- अभी यह मैसेज रेलवे की तरफ से आया है कि मिर्ज़ापुर में डॉक्टर देखेंगे। डॉक्टर दोस्त से भी बात हुई है। उन्होंने कहा है कि मूव भी लगाइए.
ट्वीट संख्या 5- अभी मिर्ज़ापुर में डॉक्टर देख कर गए हैं। ये दवाइयां दी है। डॉक्टर साहब का कहना था कि अपेंडिक्स या स्टोन की समस्या हो सकती है। उन्होंने सबसे पहले कल अल्ट्रासाउंड करवाने के लिए कहा है। बस ये दर्द ठीक हो जाए। कई साथियों के मैसेज फोन लगातार आए हैं जो मैं रिसीव नहीं कर पाई।
ट्वीट संख्या 6- कुछ लोग कमेंट कर रहे हैं कि आप तो सरकार के खिलाफ बोलती हैं, आपको क्यों मिलनी चाहिए सरकारी मदद? मैं उनलोगों को बता देना चाहती हूं कि इस यात्रा के लिए मैंने भुगतान किया है, टैक्स देती हूं…हमारे पैसों पर ये सरकारें चल रही हैं हम नहीं! जनता देश की मालिक है, ये सब भूल गए हैं क्या?
ट्वीट संख्या 7- अभी पटना पहुंची हूं। यहां से मोतिहारी के लिए निकल रही हूं। वहां पहुंचकर ही @rajaiimc का अल्ट्रासाउंड करवाएंगे। यहां से फिलहाल घर की तरफ निकलने का हमने फैसला किया है। मेरे पार्टनर अभी ठीक है। सभी साथियों का तहेदिल से शुक्रिया करना चाहूंगी। सोशल मीडिया ही हमारा अपना मीडिया है।
-Meena Kotwal-
घोड़ासहन में जैसे ही लोगों को पता चला कि मीडिया के लोग बिहार चुनाव पर उनकी राय पूछने आए हैं तो अचानक वहां भीड़ लग गई। ज़मीर अख़्तर नाम के एक व्यक्ति जो बच्चा गोद में लिये हुए थे लेकिन माइक उनके पास जाते ही वे एकदम से मौजूदा सरकार के खिलाफ़ जैसे फूट ही पड़ते हैं।
वे कहते हैं कि मोदी के विकास की सब मिसाल देते हैं लेकिन विकास कहां है, हमें तो नहीं दिखाई देता। लालू यादव ने चाहे चारा घोटाला ही क्यों ना किया हो लेकिन उनके समय में रेलगाड़ी हमेशा फायदे में रही है। लालू यादव ने दलितों का उत्थान किया है। रेल में जानवरों के तरह भर-भरकर जाते हैं। रोजगार नहीं है, अगर विकास है तो क्यों हम बिहार के लोगों को अपना घर छोड़कर बाहर क्यों जाना पड़ रहा है।
उन्होंने आग कहा, बिहार से बाहर हमें गालियां देकर पुकारा जाता है।डंडों से मारा जाता है, बिहारी होना अब गाली बन गया है। बिहार के बाहर जाकर पता चलता है कि हमारी स्थिति कितनी खराब है।
-Meena Kotwal-
‘बच्चे घर से थाली ले जाते हैं, अलग बैठते हैं’, बिहार के सरकारी स्कूल में मुसहर समाज के बच्चों का हाल
मेरा काम है दुनिया के सामने सच लाना, वंचितों की कहानियां दुनिया को बताना और यह सब करने में कुछ हद तक सफल भी हो रही हूं.
इस नंगे समाज को कपड़े पहनाने की जिम्मेदारी मेरी नहीं है!
Meena Kotwal
आदरणीय Pervaiz Alam
सर नमस्कार,
आशा करती हूं कि कोरोना के इस दौर में आप सपरिवार अच्छे से होंगे, सर अभी मैं बिहार चुनाव कवरेज के सिलसिले में बिहार आई हूं. यहां आकर कई सारी चीजें समझने का अवसर मिला है जिसे मैं अपने रिपोर्ट में भी लिख रही हूं. आपके बेहतरीन काम को मद्देनजर रखते हुए मैं आपसे कुछ चीजों पर बात करना चाहती हूं. मैं पहली बार आपको लिख रही हूं, उम्मीद करती हूं कि उम्र और अनुभव कम होने के कारण यदि कोई त्रुटि रह जाती है तो उसके लिए मुझे माफ करेंगे.
परवेज सर मैं उम्मीद करती हूं कि आप बिहार के डोम जाति (बिहार में दलितों की सबसे निम्न जाति) के बारे में जानते होंगे. बिहार में रिपोर्टिंग के दौरान मुझे इनके बारे में करीब से जानने का मौका मिला है. इससे पहले मैंने इनके बारे में पढ़ रखा था और कुछ वीडियोज़ देखे थे. जब से इनपर स्टोरी करनी शुरू की है मन बहुत व्यथित है. सच कहूं तो इनकी बातें सुनकर रोना भी आ जाता है. विश्वास नहीं होता है कि हम 21वीं सदी में हैं. आप जानते हैं सर, यहां शुरू में महिलाएं मुझसे एक दूरी पर बातें कर रही थीं कि कहीं वे हमको गलती से छू देंगी तो मुझे बुरा न लग जाए. यह सब देखकर मैं अपने आंसूं नहीं रोक पाई. उन्हें गले लगाकर फिर स्टोरी पर काम करना शुरू किया.
सर, अभी मैं भावनाओं के समंदर से गुजर रही हूं, छोटी होने के नाते आपसे मैं कुछ सवाल पूछना चाहती हूं. आपने मेरे लिए पोस्ट भी लिखी थी जिसे पढ़कर मैंने कई सारी चीजें सीखीं. सर मेरा सवाल यह है कि आपकी जानकारी में किसी पत्रकार ने डोम समाज पर कोई स्टोरी की है क्या? मैंने ढ़ूंढने की बहुत कोशिश की लेकिन मुझे बिहार के डोम जाति पर कोई स्टोरी दिख नहीं रही है. अगर आपने इस जाति पर कुछ स्टोरीज़ की हो तो कृपया मेरा मार्गदर्शन करें ताकि मैं अन्य पहलू भी अपनी स्टोरीज़ में जोड़ सकूं. भारतीय मीडिया में किसी और पत्रकार ने कोई स्टोरी की हो तो कृपया उनके बारे में भी अवगत करवाने की कृपा करें. मैंने बहुत ढ़ूंढा लेकिन कुछ खास मिला नहीं.
सर डोम समाज के बारे में जो कुछ बातें मुझे पता चली हैं उसे यहां रेखांकित करना चाहती हूं- 1. अमूमन डोम जाति बिहार में भूमिहीन हैं. 2. ये बांस से कोठी, डगरा, दउरा, पंखा आदि बनाते हैं. 3. इन्हें अमूमन गांव से बाहर रखा जाता है क्योंकि इन्हें या इनके बच्चों को कोई छूना नहीं चाहता है. 4. अमूमन इनके बच्चों को स्कूल में दाखिला नहीं मिल पाता है क्योंकि इनके बच्चों के साथ कोई बैठना नहीं चाहता है. 5. स्कूल में गलती से दाखिला मिल भी जाए तो इनके बच्चों को तो खाना, पीना, उठना-बैठना सब अलग होता है. 6. अमूमन महिलाओं और बच्चों को जातिसूचक शब्दों से बुलाया जाता है. 7. इनके समाज में शिक्षा पहुंच नहीं पाई है. 8. गांव में किसी के घर जाने पर इन्हें बाहर बैठाया जाता है और अगर कोई सवर्ण जाति का इन्हें छू लेते हैं तो वो नहाने के बाद ही खुद को शुद्ध पाते हैं. 9. भोज आदि में एक उचित दूरी से इन्हें ऊपर से खाना डाला जाता है. 10. डोम जाति के लोगों में इतना साहस नहीं है कि बिना पूछे सवर्ण जाति के कल (हैंडपंप) से पानी पी लें. अगर ऐसा करने का साहस करते हैं तो बहुत दिक्कतें उत्पन्न हो सकती हैं. 11. इन्हें इस पूरी व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि इन्हें लगता है कि यही हमारी नियति है…आदि
सर, इन सारी बिंदुओं के अलावा और भी कई बातें हैं जिन्हें अभी समझने की कोशिश कर रही हूं और स्टोरी में शामिल करती जा रही हूं. मैंने बहुत खंगाला लेकिन अभी तक किसी पत्रकार की कोई मुक्कमल रिपोर्ट मुझे डोम जाति पर नहीं मिली है. बिहार में बड़े-बड़े पत्रकार हुए हैं और अभी भी भारतीय मीडिया में उच्च पदों पर काम कर रहे हैं. उन्होंने कई बार बिहार चुनाव कवर किया है लेकिन उनकी कोई रिपोर्ट मुझे इस जाति पर नहीं मिल पा रही है. इन सम्मानित पत्रकारों ने देश-दुनिया में नाम कमाया है कई अवॉर्ड भी हासिल किए हैं.
सर, अगर उन्होंने डोम जाति पर स्टोरी नहीं की है तो इसके पीछे क्या वजह हो सकती है मैं समझ नहीं पा रही हूं. आखिर क्यों किसी पत्रकार ने इस जाति पर काम करने का नहीं सोचा. क्या डोम जाति भी पत्रकारों के लिए अछूत हो गए हैं जैसे वे बिहार में बड़का जाति के लिए हैं? ऐसे कई सारे सवाल दिन-रात मुझे परेशान किए जा रहे हैं जिन्हें आप जैसे वरिष्ठों के माध्यम से हल करने की कोशिश कर रही हूं.
मुझे BBC से जब निकाला* गया था तो आपने भी मेरे लिए पोस्ट लिखी थी. मैंने उस वक्त ही वो पोस्ट पढ़ ली थी लेकिन मैं जिस पीड़ा से गुजर रही थी उस हालत में जवाब दे नहीं पाई थी. सच कहूं तो मुझे तब अच्छा लगा था कि मेरे ही बहाने कम से कम दलित-आदिवासियों के प्रतिनिधित्व पर बात तो हो रही है. आपने तब लिखा था- ‘बीबीसी में काम करने वाले क्या पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं? क्या वे हाशिए पर खड़े लोगों के मुद्दों को अपनी रिपोर्टिंग में स्थान नहीं देते? क्या BBC हिंदी सेवा अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अन्य पीड़ित समाज के पक्ष को सामने नहीं रखती?’
सर, मैं भी बस आपसे यही जानना चाहती हूं कि क्यों बिहार के डोम जाति पर बीबीसी ने कोई मुक्कमल स्टोरी नहीं की जिससे मुझ जैसे लोगों को पता चल पाता कि बिहार में उनकी क्या स्थिति है? एक पूरा समाज ही जानवर से बदतर जिंदगी जीने को मजबूर है लेकिन भारतीय मीडिया में इसपर स्टोरी तकरीबन न के बराबर है. क्या ऐसा हो सकता था कि दलितों को भी न्यूज़रूम में उचित प्रतिनिधित्व मिलता तो ऐसी स्टोरीज दुनिया के सामने निकल कर आतीं और उनपर काम भी होता. ये सारे सवाल मेरे जैसे नए पत्रकारों के लिए बेहद चुभने वाले हैं.
आपने अपने पोस्ट में पूछा था कि राजेश जोशी, रूपा झा, राजेश प्रियदर्शी और सुशील झा के केवल गोत्रों में ही अटके रहेंगे या उनके सृजनात्मक योगदान पर भी नज़र डालेंगे? आपसे अनुभव में छोटी हूं लेकिन आप दिल पर हाथ रखकर कहिएगा कि हमारे देश और समाज में ऊपर दिए गए नामों के साथ जो उपनाम लगे हैं क्या उन्हें टाइटल का विशेषाधिकार नहीं मिलता है…! क्यों नहीं ये सभी पढ़े-लिखे लिबरल-प्रोग्रेसिव पत्रकार सबसे पहले टाइटल हटा कर समाज को संदेश दें ताकि किसी को टाइटल के आधार पर न गाली सुनना पड़े और न ही किसी को विशेषाधिकार मिले, क्यों नहीं ये सभी लोग अपने टाइटल में चमार, दुसाध, पासवान, मलिक आदि लगा लेते! अगर ये सब वे करते तो शायद कई और उदाहरण बनते!
सर आपने अपने पोस्ट में तब लिखा था- ‘जितना मैं इन लोगों को जानता हूं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि इन्होंने बे-आवाज़ लोगों को सशक्त मंच दिया है. उनके लिए दफ़्तर से बाहर और दफ़्तर के अंदर सम्पादकीय बैठकों में लड़ाइयां लड़ी हैं. पल भर के लिए भूल जाइए मेरी इस व्यक्तिगत टिप्पणी को और उठाइए इनका काम, पकड़िए इनकी ख़ामियों को और फिर बताइए आपको कहां गोत्र नज़र आया.’
जो नाम आपने गिनवाए हैं, मुझे कहीं उनका गोत्र नहीं पता चला लेकिन जोशी, झा, प्रियदर्शी उपनाम से बचपन से प्राप्त होने वाले विशेषाधिकार का पता जरूर चलता है इस देश और समाज के लोगों को. इन्होंने बे-आवाज़ लोगों को सशक्त मंच दिया है लेकिन अपने साथ काम करने की जगह नहीं दी है. सर ऐसा मैं नहीं कह रही हूं बल्कि देश दुनिया की तमात रिपोर्ट्स चीख-चीखकर इसकी तस्दीक कर रहे हैं. इन्होंने बहुजनों के मुद्दों पर संपादकीय बैठकों में जरूर लड़ाइयां लड़ी होंगी, लेकिन मुझे बस यह जानना है कि क्या इन्होंने कभी ऐसी कोई लड़ाई लड़ी है कि हमारे साथ दलित-आदिवासी क्यों नहीं काम करते हुए दिखते हैं. और सर रही बात इनके काम की तो मैं खुद इन सबसे दिन-रात, इनके रिपोर्ट्स के जरिए सीखने का प्रयास कर रही हूं लेकिन इन्होंने बिहार के डोम समाज पर कोई स्टोरी की है क्या? अगर नहीं कि है तो मुझे अफसोस हो रहा है कि इतनी दर्दनाक कहानियां क्यों छूट गई?
सर आपने लिखा था- ‘मीडिया में दलितों का प्रतिनिधित्व बढ़ना चाहिए. लेकिन क्या आपके निशाने पर वही लोग रह गए हैं जो marginalised समुदायों के पक्षधर हैं? मुझे लगता है यहां व्यक्ति विशेष नहीं पूरी बीबीसी हिंदी सेवा ही निशाने पर है जो बहुत ख़तरनाक बात है…’ मैं यहां बताना चाहूंगी कि जब से बीबीसी से मुझे निकाला गया है, मैंने सिर्फ और सिर्फ वंचितों-शोषितों पर ही स्टोरीज की है. मुफ्त में स्टोरीज की है और कर रही हूं. मेरे जीवन का लक्ष्य ही बन गया है उन लोगों की पीड़ा दिखाना जिन तक अमूमन लिबरल प्रोग्रेसिव पत्रकार भी पहुंचने में हिचकते हैं. कोरोना काल में भी 5 महीने की बच्ची को लेकर इनके बीच जाकर स्टोरीज कर रही हूं और इसके लिए अभी तक कोई मेहनताना नहीं मिला है. सर उनके दुख और दर्द को देखकर मैं अपनी सारी लाचारी भूल जाती हूं, आने वाली समस्याओं को ताक पर रख देती हूं लेकिन कोशिश करती हूं कि कैसे भी इनकी आवाज ऊपर बैठे लोगों तक पहुंच जाए.
आपने यह भी लिखा था- ‘मुझे लगता है यहां व्यक्ति विशेष नहीं पूरी बीबीसी हिंदी सेवा ही निशाने पर है जो बहुत ख़तरनाक बात है’. सर जबसे मेरी नौकरी गई है, मेरे सारे सपने चकनाचूर से हो गए. मुझे भी देश दुनिया घूमना था, तस्वीरें खींचवानी थी, थोड़ी शैतानियां करनी थी, मस्ती करनी थी लेकिन ये सपना जैसे सपना ही रह गया क्योंकि सच कहूं तो देश में वंचितों-शोषितों को सपना देखने का हक़ खत्म होता जा रहा है. उन्हें कहीं न कहीं महसूस करवा दिया जाता है कि आप हमारे बीच से नहीं हो, इस कल्चर से नहीं हो…पहनावे, भाषा, रंग-रूप हर मोर्चे पर हमें महसूस करवा ही दिया जाता है कि गलत जगह आ गए हो. हमें सहेजा नहीं जाता है बल्कि निकाल दिया जाता है. ना-काबिल और कमजोर साबित कर लेबल लगा दिया जाता है. अगर आपने यह सब बोल दिया देश-दुनिया के सामने तो नौकरी नहीं मिलती है परवेज सर…
आपने तब लिखा था- ‘अंत में बात सशक्तिकरण की, बहुत तरीक़े हो सकते हैं, एक मैं सुझाता हूं. अगर कोई कमज़ोर है तो क्या हम जैसे लोग उन दलित छात्रों के लिए जो मीडिया में आना चाहते हैं, उच्चस्तरीय कार्यशालाएं (workshops) नहीं आयोजित कर सकते, जो उनको और अधिक समर्थ बना सकें? भारत के 10 बड़े मीडियाकर्मी और कुछ बड़े मीडिया संस्थान जैसे IIMC, MCRC जामिया, NDTV, BBC आदि मिल कर इस तरह की कार्यशाला चलाएं जिन में कम समय में आवेदन पत्र भरने और इंटर्व्यू देने की कला पर जानकारी शामिल हो. और साथ ही मीडिया के बदलते स्वरूप से अवगत कराया जाए. यही नहीं, उम्मीदवारों की सफलता को भी ट्रैक किया जाए. जो सुझाव हों लिखिए, शायद कोई बात बन जाए.’
आदरणीय परवेज सर मैं आपसे पूछना चाहती हूं सुझाव पर कोई बात बनी क्या? किसी दलित-आदिवासी को उसके बाद कहीं नौकरी मिली है क्या? बीबीसी हिंदी में मेरे बाद किसी दलित-आदिवासी को नौकरी मिली है क्या? ऐसा कुछ हुआ है तो कृपया बताया जाए, मुझे यह सब जानकर बहुत खुशी होगी कि आप सभी लोगों ने हमारे प्रतिनिधित्व के लिए रचनात्मक कदम उठाया. सिर्फ फेसबुक पोस्ट तक ही यह सब सिमट कर नहीं रह गया बल्कि जमीनी लेवल पर कुछ हुआ भी. और अंत में सर आपको बस यह सूचित करना चाहूंगी कि जबसे बीबीसी से निकाला गया और वहां के न्यूज़रूम कल्चर के बारे में मैंने सोशल मीडिया पर लिखा, मुझे किसी ने नहीं नौकरी दी. मैंने कई जगह कोशिश की लेकिन किसी ने नौकरी नहीं दी. आजकल मैं स्वतंत्र पत्रकारिता करने की कोशिश कर रही हूं जिससे बस मेरा गुजर-बसर चल रहा है. पता नहीं इस समाज ने मुझे क्यों महसूस करवा दिया कि बिना लड़े मुझे कुछ मिलेगा ही नहीं. मेरे माता-पिता मजदूर हैं, वे लड़ने का साहस नहीं कर पाए इसलिए मैं लड़ रही हूं ताकि मेरी बेटी को न लड़ना पड़े अपने हक के लिए. पीछे शायद हम न लड़ते तो आज यहां भी न होते. एक और चीज मेरे लायक आपके नजर में कोई नौकरी या काम हो तो जरूर बताइएगा ताकि मेरा भी गुजर-बसर चलता रहे इस देश और समाज में…
पहली बार आपको कुछ लिख रही हूं सर, भूल से भी मुझसे कोई गलती हुई हो तो कृपया मुझे माफ कर दीजिएगा.
नोट : मैं बीबीसी से निकाले जाने जैसे लाइन इसलिए इस्तेमाल करती हूं क्योंकि उस संस्थान के कल्चर ने मुझे अपने साथ 2 बार गलत करने पर विवश किया. वहां गुजारे गए दिन मैं कभी नहीं भूल सकती क्योंकि पूरे हिंदी सर्विस में मैं तब इकलौती थी. कितनी मुश्किलों से तो मैं उस बिल्डिंग तक पहुंची थी लेकिन बदले में मुझे वहां सिर्फ और सिर्फ तिरस्कार और नफरत मिला और बाद में मुझे निकाल फेंक भी दिया गया. साथही बता दूं मुझे बीबीसी की पत्रकारिता से कोई शिकायत नहीं है मेरी शिकायत वहां हुए भेदभाव और प्रतिनिधित्व को लेकर है.
धन्यवाद,
मीना कोटवाल
-भड़ास एडिटर यशवंत सिंह की रिपोर्ट.