आज ग़ालिब की जयंती है. ग़ालिब बरसों अपनी पेंशन बहाली के लिए दौड़ते रहे.ग़ालिब के चाचा आगरा के किलेदार थे. ग़ालिब उन्हीं के आश्रित थे.ग़ालिब के चाचा ने जनरल लेक का पक्ष लिया और ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने भी उन्हें किलेदार नियुक्त किया.
बीस हज़ार चार सौ रूपये की सालाना तनख़्वाह पर किलेदारी करने लगे. कुछ समय बाद हाथी से गिर जाने पर ग़ालिब के चाचा की मौत हो गई. कंपनी के नियमों के अनुसार लगभग आधी तनख़्वाह ग़ालिब की दादी समेत उनके परिवार को पेंशन के तौर पर मिलने लगी जो दस हज़ार रूपये सालाना थी. ये पेंशन भी उनके चाचा की जायदाद से अंग्रेज़ सरकार को मिलने वाले राजस्व से ही दी जाती थी.
कुछ समय बाद पेंशन दस से घटाकर पांच हज़ार कर दी गई. ग़ालिब पूरी पेंशन बहाली के लिए फ़िरोज़पुर गए. वहाँ से भरतपुर पहुंचे. ग़ालिब को पता चला कि आजकल मेटकाफ़ कानपुर में डेरा डाले है. लिहाज़ा ग़ालिब कानपुर पहुंचे. मेटकाफ़ से मुलाकात नहीं हुई.
अब ग़ालिब लखनऊ आ गए. कोशिश करने लगे कि नवाब अवध से मुलाक़ात हो जाए, लेकिन ग़ालिब ने मिलने की शर्तें इतनी सख़्त कर दीं कि नवाब नहीं मिले.
ग़ालिब चाहते थे कि वो ठसक से मिलें वजह कि वो भी एक नवाब के दामाद हैं. नवाब चाहते थे कि शायर के तौर पर मिलें और कोर्निश करें. अब ग़ालिब बांदा पहुंचे और वहाँ से बनारस होते हुए कलकत्ता में दाख़िल हुए. कलकत्ते में रहने लगे और अपनी पेंशन बहाली की दरख़्वास्त कंपनी सरकार के पास डाल दी.
दो बार अंग्रेज़ी कलकत्ता दरबार के वक़्त इज़्ज़त से दरबार में बैठाए भी गए लेकिन पेंशन के मामले में ग़ालिब को निर्देश मिला कि वो दिल्ली में अपील करें.
ग़ालिब वापस दिल्ली आए और पूरी पेंशन बहाली की अपील की, मामला सुना गया और अपील ख़ारिज कर दी गई.
डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान की एफबी वॉल से.