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वेब-सिनेमा

उर्दू पढ़ने-लिखने वाले सिमटते जा रहे, लेकिन उर्दू शायरी की लोकप्रियता बढ़ रही है

प्रभात रंजन-

जैसे जैसे मोबाइल, इंटरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है। सोशल मीडिया का प्रसार बढ़ता जा रहा है हम एकाकी होते जा रहे हैं। साथ होते हुए हम द्वीप की तरह पानी से तो जुड़े होते हैं लेकिन छोटे छोटे टापुओं की तरह अपने अपने डिवाइस के साथ स्वतंत्र भी रहते हैं। अक्सर अपने सोशल मीडिया अकाउंट के साथ या किसी और तरह के साइट पर।

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गौर कीजिए तो याद आएगा कि जब हम आपस में बात भी करते हैं तो आपसी बातचीत में सोशल मीडिया के हवाले आते रहते हैं। कहने का मतलब यह है कि हम कुछ न कुछ देखते रहते हैं, कुछ न कुछ सुनते रहते हैं। देखने-सुनने को इतना कुछ है कि हमारी यह भूख कभी ख़त्म ही नहीं हो रही है, बढ़ती जा रही। ज्ञान के उपयोगकर्ता से हम ज्ञान के उपभोगकर्ता में बदल गये हैं। इस कभी न ख़त्म होने वाली भूख के कारण हम एकाकी होते जा रहे हैं, हम बहुत भरे-भरे दिखते लोग हैं, अंदर ख़ला भरती जा रही है। ज़रूरी नहीं है कि इसका कोई कारण भी हो लेकिन यह अत्यधिक उपभोग के कारण बढ़ती जा रही है। जितना मिलता है उतना ही कम लगता रहता है।

इसी दौर में आप ध्यान दीजिये तो पायेंगे कि उर्दू शेरो-शायरी की लोकप्रियता बढ़ रही है। अजीब विरोधाभास है कि उर्दू भाषा पढ़ने-लिखने वाले सिमटते जा रहे, लेकिन उर्दू शायरी की लोकप्रियता बहुत अधिक बढ़ रही है।

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इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि सोशल मीडिया के विस्तार के साथ उर्दू के युवा शायरों ने, शेरो-शायरी के शैदाइयों ने उसे उर्दू शायरी को जोड़ा। आज आप देखेंगे तो पायेंगे कि चाहे फ़ेसबुक हो, ट्विटर(एक्स) हो या इंस्टाग्राम-यूट्यूब- शेरो-शायरी से से जुड़े पेज, रील्स भरे हुए हैं। यक़ीन मानिए तहज़ीब हाफ़ी जैसे शायर हों या उनकी पीढ़ी के अनेक शायर इंस्टा की वजह से ही लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गये। सबसे बड़ी बात है कि उनकी शायरी भी अच्छी है, समकालीन एहसासों से जुड़ी हुई है और उनको सोशल मीडिया पर अपनी शायरी को नये नये तरीक़ों से पेश करने में कोई दिक़्क़त भी नहीं हो रही, किसी तरह की झिझक नहीं। और लोग उनको हाथोहाथ ले रहे। ख़ासकर युवा। उनको अपनी ज़िंदगी की छोटी छोटी ख़्वाहिशों, बड़े सपनों को अभिव्यक्त करने का कमाल का माध्यम मिल जाता है। ज़रूरी नहीं है कि किसी के जीवन में कोई कमी हो तभी वह शेरो-शायरी सुने। एक रूहानी सुकून भी मिलता हो शायद। टभकते घाव पर मरहम की तरह शायद।

इसी ख़ला से जोड़कर आप निर्मल वर्मा की कहानियों को भी देख सकते हैं। जिनके अकेलापन को एक जमाने तक हिन्दी की मुख्यधारा आलोचना में सामाजिकता के विरुद्ध के रूप में देखा जाता रहा, आज के एकाकी होते जाते जीवन में उनकी कहानियों का एकांत बहुत रूहानी लगने लगा है। नई पीढ़ी उनसे नये तरीक़े से जुड़ रही है। अपने जीवन से जोड़कर देख रही है। उसके पीछे हिन्दी आलोचना की तथाकथित मुख्यधारा का लोड नहीं है।

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नीरज जी के कभी आपने गीत की एक पंक्ति में ‘भीड़ के बीच अकेला’ का प्रयोग किया था। आज अकेलों की भीड़ है।

अंत में, अभी अभी रील में देखा तहज़ीब हाफ़ी का शेर-
​ख़ुदा का शुक्र है कि साँस टूटने से पेश्तर
वो शक्ल याद आ गई वो नाम याद आ गया

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