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मोदी सरकार के दो साल और शशि शेखर का यह ‘हिंदुस्तानी’ आलेख

Sanjaya Kumar Singh : भक्तों की शिकायत रहती है कि मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और इस सरकार के खिलाफ ही लिखता हूं। उनके पक्ष में कुछ नहीं लिखता। कल इसे पढ़ने के बाद लगा कि इसमें कुछ खास नहीं है। इसलिए शेयर नहीं किया। कुछ अच्छा ढूंढ़ रहा था उसी में अदालतों पर जेटली साब के विचार मिल गए जिसे पहले शेयर कर चुका हूं। सरकार के दो साल पूरे होने पर किसी ने कुछ और अच्छा लिखा हो तो शेयर करना चाहता था। पर मुझे तो कुछ नहीं मिला। आपको मिला हो तो शेयर कीजिए। टैग भी कर सकते हैं।

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Sanjaya Kumar Singh : भक्तों की शिकायत रहती है कि मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और इस सरकार के खिलाफ ही लिखता हूं। उनके पक्ष में कुछ नहीं लिखता। कल इसे पढ़ने के बाद लगा कि इसमें कुछ खास नहीं है। इसलिए शेयर नहीं किया। कुछ अच्छा ढूंढ़ रहा था उसी में अदालतों पर जेटली साब के विचार मिल गए जिसे पहले शेयर कर चुका हूं। सरकार के दो साल पूरे होने पर किसी ने कुछ और अच्छा लिखा हो तो शेयर करना चाहता था। पर मुझे तो कुछ नहीं मिला। आपको मिला हो तो शेयर कीजिए। टैग भी कर सकते हैं।

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मैं भी जानना चाहता हूं कि मोदी जी ने दो साल में आखिर किया क्या है (रेल किराया बढ़ाने, इधर का सिलेंडर उधर करने और स्वच्छता टैक्स लगाने के अलावा)। अंग्रेजी में हो, तो भी चलेगा। फिलहाल तो इसे पढ़िए और खुश होइए कि मोदी जी लोगों के नाम भी याद रखते हैं। पर ये जान लीजिए कि सेल्फी पत्रकार विरोध में ना लिखें, बिना काम किए पक्ष में भी नहीं लिख पाएंगे। पक्ष में लिखवाने के लिए पुरस्कार ईनाम बांटना भी पर्याप्त नहीं होगा – कुछ काम ही करना पड़ेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि यह दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक शशि शेखर का लिखा हुआ है। वही हिन्दुस्तान जिसके सीवान संवाददाता की हत्या हो गई तो एक दिन बाद संपादक जी ने लिखा था, “हम लडेंगे, क्योंकि लड़ने की जरूरत है”। यह लाइन पंजाबी कवि ‘पाश’ से उधार ली हुई है।


दो बरस बाद प्रधानमंत्री मोदी

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-शशि शेखर-

दिल्ली में ‘हैदराबाद हाउस’ के तौर-तरीके अनोखे हैं। वहां कदम रखते ही ‘लुटियन्स दिल्ली’ की भद्रता तक बौनी लगने लगती है। द्वारपाल हों या नफीस बेयरे अथवा विदेश मंत्रालय के सजे-धजे अधिकारी, हरेक में ऐसी नफासत कि भदेस-से-भदेस इंसान ‘भद्र’ बनने को बेताब हो जाए। हैदराबाद के महाकंजूस निजाम द्वारा बनाया गया यह वैभवशाली भवन अब विदेश मंत्रालय के उपयोग में आता है। सर्वोच्च विदेशी हस्तियों से मुलाकात और उनके सम्मान में दी जाने वाली भव्य दावतों के कारण यह इमारत विदेशों में भारत की पहचान बन गई है।

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उस दिन हम लोग यहां कतार में खडे़ थे। क्यों? दरअसल, जब कभी कोई विदेशी राष्ट्राध्यक्ष अथवा प्रधानमंत्री आता है, तो देश के प्रमुख लोगों से उसकी मुलाकात कराई जाती है। वे सबको देख-पहचान सकें, इसके लिए नामचीन हस्तियों को एक पंक्ति में खड़ा कर दिया जाता है। विदेशी मेहमान को कोई वरिष्ठ अधिकारी बारी-बारी सबसे रूबरू करवाता है। उनसे दो-एक कदम पीछे भारतीय प्रधानमंत्री चल रहे होते हैं। इस बहाने उनकी भी इन तमाम लोगों से ‘हैलो-हाय’ हो जाती है।

उस दिन नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली के सम्मान में भारतीय ‘पीएम’ ने दोपहर-भोज का आयोजन किया था। ओली साहब आए। सभी से अति औपचारिक मुस्कान के साथ ‘हैंडशेक’ किया और आगे बढ़ गए। इसके विपरीत, नरेंद्र मोदी लोगों से ठहरकर हालचाल पूछते और उन्हें अनौपचारिक बराबरी का एहसास दिलाते। एक मेहमान से हाथ मिलाते हुए अचानक प्रधानमंत्री ने मेरी ओर देखा और हंसते हुए पूछा- ‘शशि, कैसे हो भैया?’ मैं चौंक गया। इनसे मेरी कुल तीन बार की रस्मी मुलाकात है। जो शख्स सैकड़ों लोगों से रोज मिलता हो, उसकी ऐसी गजब की याददाश्त! विस्मित होने वाला वहां मैं अकेला नहीं था।

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कुछ देर पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पास से गुजरे थे। मैंने उनका अभिवादन किया, पर कोई जवाब न मिला। क्या उन्होंने मुझे देखा नहीं या पहचान नहीं सके, या फिर वह कुछ सोच रहे थे? मैं तो उनके साथ कई बार विदेश गया हूं। हर बार आमना-सामना होने पर सलाम-बंदगी होती थी, फिर यह क्या? नरेंद्र मोदी के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि वह बेहद अक्खड़ हैं, पर पिछली तीन मुलाकातों में सिर्फ मुझे ही नहीं, बल्कि साथी संपादकों को भी उनमें विनम्रता भरी गर्मजोशी नजर आई थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह दिल्ली के ‘भद्रलोक’ का रचा हुआ तमाशा है? उन्होंने हमेशा क्षेत्रीय नेताओं का मजाक उड़ाया है।

उन्हें बददिमाग, बदगुमान या बेजुबान साबित करने की कोशिश की है। सिर्फ मोदी ही क्यों, उनके विरोधी तक इसके शिकार होते रहे हैं। अरविंद केजरीवाल, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, जयललिता अथवा पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा इसके उदाहरण हैं। शायद इसीलिए के कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने से इनकार कर दिया था। उन्हीं के सहयोग से इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं। श्रीमती गांधी विलक्षण थीं, पर बताने की जरूरत नहीं कि वह किस वर्ग से आती थीं।

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दिल्ली अब तक ‘नॉन लुटियन्स’ को शीर्ष पदों पर अस्वीकार करती आई है। अरुण जेटली शायद इसीलिए कहते हैं कि सबसे अधिक असहिष्णुता तो खुद नरेंद्र मोदी ने झेली है। वजह? वह देश के पहले ‘नॉन लुटियन’ पूर्णकालिक प्रधानमंत्री हैं। इससे पूर्व जितने प्रधानमंत्री पांच साल के लिए चुने गए, वे मूलत: कहीं के रहने वाले हों, पर बरसों लुटियन दिल्ली के प्रासादों में रहने के कारण उन्होंने ‘दिल्ली-क्लब’ में अपनी जगह बना ली थी। प्रधानमंत्री मोदी इसे समझते हैं, पर घबराते या कतराते नहीं। अपनी बात को समूची शिद्दत से रखने का उनमें अद्भुत माद्दा है।

इसी के जरिये वह आम आदमी की तालियों के साथ ‘खास लोगों’ की आलोचना भी बटोरते चलते हैं। 16 मई को 16वीं लोकसभा के नतीजे आए दो साल हो गए। इस दिन तय हो गया था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अब नरेंद्र दामोदरदास मोदी को बैठना है। वह लंबे-चौडे़ वायदों और अकल्पनीय लगने वाले बहुमत के साथ सत्ता-सदन में पहुंचे थे। कार्यकाल का 40 फीसदी समय निकलने के बाद वह कितने सफल या असफल रहे हैं? पहली बात तो यह कि उनकी सरकार पर अभी तक भ्रष्टाचार का कोई गंभीर आरोप नहीं लगा है।

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देश की सीमाओं के अंदर, पठानकोट को छोड़ दें, तो कोई बर्बर आतंकवादी हमला नहीं हुआ और सीमा पर पाक की ओर से चलने वाली गोलियां फिलहाल थमी हुई हैं। उनसे पहले किसी प्रधानमंत्री को आईएस, अल-कायदा, आईएसआई जैसे तमाम खूनी संगठनों से एक साथ लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी थी। भारत इन दरिंदों से सफलतापूर्वक जूझ रहा है, जबकि यूरोप और अमेरिका थरथरा रहे हैं। इसी दौरान बांग्लादेश के जन्म के समय से ही चले आ रहे ‘सीमा विवाद’ का निपटारा हुआ, जो बड़ी सफलता है। बांग्लादेश ‘बॉर्डर’ पूर्वोत्तर के आतंकवादियों का आश्रय-स्थल रहा है। शेख हसीना वाजेद और नरेंद्र मोदी के गर्मजोशी भरे रिश्तों ने इन पर अंकुश लगाया है।

इसी दौरान, म्यांमार की सीमा में घुसकर भारतीय सेना ने उल्फा आतंकियों का मनोबल तोड़ा। अपने विदेशी दौरों के दौरान भारतीय शासनाध्यक्ष ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य का लोहा समूची दुनिया से मनवाया। यही वजह है कि चीन से ज्यादा विदेशी निवेश (प्रतिशत में) भारत को हासिल होने लगा है। उम्मीद है कि अगले वर्ष हम आठ फीसदी की विकास दर हासिल कर लेंगे, जो विश्व के महत्वपूर्ण देशों में सबसे ज्यादा होगी। गंगा सफाई, स्वच्छ-भारत अभियान, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, गैस सब्सिडी त्यागो और उज्ज्वला जैसी योजनाओं से उन्होंने पूरे देश में अनोखी जागृति लाने की कोशिश की।

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इससे पहले की सरकारों ने भी सामाजिक कल्याण के कारगर कार्य किए, पर उन्हें जनचर्चा में तब्दील कर देने का सामर्थ्य इंदिरा गांधी के बाद किसी और प्रधानमंत्री में नहीं दिखा। इसके अलावा, जन-धन योजना, स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसी योजनाओं से उन्होंने युवाओं और समाज की निचली सीढ़ियों पर खड़े लोगों के लिए नए रास्ते खोले। क्या वह इन तमाम योजनाओं को सिरे तक पहुंचा पाएंगे?

मैंने देहरादून हवाई अड्डे पर वरिष्ठ मंत्री रामविलास पासवान से यह सवाल सरेआम पूछ लिया। उन्होंने कहा, मुझे और भी प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का मौका मिला है, पर मैंने किसी को भी लगातार 14 से 16 घंटे जूझते नहीं देखा। रायसीना पहाड़ी पर चर्चा है कि उनके साथ काम करने वाले अधिकारी उनकी इस जोशीली कार्यशैली से आतंकित रहते हैं।

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वह अपने सहयोगियों पर भी पैनी नजर रखते हैं, ताकि कहीं कोई शिथिलता न रह जाए। इस सबके बावजूद यह सच है कि दादरी में अखलाक की हत्या हो या जेएनयू प्रकरण, या फिर रोहित वेमुला की आत्महत्या, केंद्र सरकार हर बार अनावश्यक विवादों में घिरी। यही नहीं, कुछ सांसदों की बयानबाजी और सत्ताधारी पार्टी से नजदीकी का दावा करने वाले संगठनों ने भी केंद्र सरकार की ‘यश-यात्रा’ का रास्ता रोका। इसी तरह, दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा की पराजय को भी केंद्र सरकार से जोड़कर देखने की कोशिश की गई। हर बार निशाने पर नरेंद्र मोदी रहे। समय रहते वरिष्ठ साथियों की समुचित प्रतिक्रिया ही ऐसे मामलों से निपटने की सियासी कुंजी है। उम्मीद है, आने वाले दिनों में केंद्र सरकार ‘रिस्क मैनेजमेंट’ की एक टीम बनाएगी, ताकि अनावश्यक झंझटों से बचा जा सके। ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए अच्छा वातावरण बनाना जरूरी है। (साभार : हिन्दुस्तान)


एक ये मिला है…

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A Slap For All Those Asking Kahan Hain Ache Din !! 2 Years Of Modi Governance

यह सरकारी विज्ञप्तियों का अच्छा संकलन है। रूटीन के कामों में कुछ अच्छे-कुछ बुरे, कुछ तेज, कुछ धीमें होते ही हैं। उन्हें ही उपलब्धियों के नाम पर परोस दिया गया है। जन धन योजना को बड़ी योजना दो साल से बताया जा रहा है पर उससे लाभ किसे मिला – ये नहीं बताया जा रहा है। इससे सरकार ने सिर्फ पैसे वसूले हैं किसे लाभ दिया वह नहीं बता रही है। रेलवे में बहुत काम हुआ है पर ट्रेन समय से चले इस बारे में कोई बात नहीं हो रही है। फिर भी, चलिए एक तो मिला।

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दो साल पर तो नहीं लेकिन देश की सामान्य दशा का भगवंत मान का यह चित्रण लाजवाब है। कोई इसका कोई काट हो तो बताइए।

देश में नफरत की राजनीति का बोल-बाला है
आम लोगों का निकल चुका दीवाला है
सोने की दुकानों पर लोहे का ताला है
अल्पसंख्यक हर रोज डर के माहौल में रहते हैं
सरकार जी बता दीजिए
क्या इन्हीं को अच्छे दिन कहते हैं
छोटा व्यापारी और किसान हो चुका है दिवालिया
9000 करोड़ लेकर विदेश में विजय मना रहा है कोई माल्या
दुश्मन हर रोज बॉर्डर पार कर रहे हैं
हर रोज हमारे जांबाज जवान मर रहे हैं
10 सर काटकर लाएंगे अगर वो एक काटते हैं
लेकिन मोदी जी नवाजशरीफ का बर्थडे केक काट रहे हैं
एक तरफ हैप्पी टू यू है दूसरी तरफ खून के दरिया बहते हैं
सरकार जी बता दीजिए
क्या इन्हीं को अच्छे दिन कहते हैं
काले धन के बारे में कुछ लिखता हूं तो कलम रुक जाती है
15 लाख की रकम लिखने से पहले स्याही सूख जाती है
हर वादा जुमला निकला
अब तो शक है क्या चाय बनानी आती है
करोड़ों लोगों के पास नहीं है पानी पीने को
क्या रेडियो पर ही सुनते रहें 56 ईंच के सीने को
प्रधानमंत्री जी तो विदेश की सैर पर रहते हैं
चलो प्रधानमंत्री जी किसी विदेशी रैली के जरिए बता दो
क्या इन्हीं को अच्छे दिन कहते हैं
पंजाब में सरेआम नशा बिकता है
एक बाप अपने नौजवान बेटे के कफन पर
प्रधानमंत्री जी के लिए मेमोरेंडम लिखता है
क्या अभी भी, कुछ भी आपको गलत नहीं दिखता है
पंजाब के पानी के साथ इंसाफ कीजिए
पंजाब के किसानों का कर्जा माफ कीजिए
जो हर दिन गले में फंदा डालकर पेड़ पर लटकते हैं
मैं पूछना चाहता हूं, मोदी जी बता दीजिए
क्या इन्हीं को अच्छे दिन कहते हैं।
– भगवंत मान

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दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से.

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