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नरगिस राज कपूर की प्रेयसी होने के साथ ही उनकी कलात्मक प्रेरणा भी थीं!

सुशोभित-

वर्ष 1959 में राज कपूर की एक फ़िल्म आई थी- ‘मैं नशे में हूँ।’ फ़िल्म के दौरान एक अजीब घटना घटी। राज कपूर ने एक गाने का फ़िल्मांकन उन पर कराए जाने से इनकार कर दिया। गाना उन्हीं के लिए बनाया गया था। आवाज़ मुकेश की थी, संगीतकार शंकर-जयकिशन, गीतकार हसरत जयपुरी। यह टीम बीते दस सालों से राज कपूर के लिए गाने बना रही थी। फिर राज कपूर ने अचानक क्यों इनकार कर दिया?

कारण, गाने के बोल थे- ‘किसी नरगिसी नज़र को दिल देंगे हम।’ नरगिस एक फूल का नाम है और प्रेयसी की सुंदर आँखों को नरगिसी कहने की परम्परा उर्दू शायरी में रही है। गीतकार हसरत जयपुरी ने अन्यत्र भी इस बिम्ब का इस्तेमाल किया है, फ़िल्म ‘आरज़ू’ के गीत, ‘ऐ नरगिसे मस्ताना, बस इतनी शिक़ायत है’ में। लेकिन राज कपूर को लगा कि यह गीत यह ध्वनि व्यंजित कर सकता है कि वे प्रकारान्तर से अपनी पूर्व प्रेमिका नरगिस की ओर इशारा कर रहे हैं। यह उन्हें मंज़ूर न था।

तब तक राज कपूर और नरगिस का अलगाव हो चुका था और नरगिस सुनील दत्त से विवाह कर चुकी थीं। राज कपूर को लगा कि भले ऐसा जान-बूझकर नहीं किया जा रहा हो, लेकिन अपने किसी गीत में नरगिस की ओर संकेत करना एक बहुत ही फूहड़ हरकत होगी। उन्होंने गीत के फ़िल्मांकन से इनकार कर दिया। निर्माता ने लाख समझाया, राज कपूर नहीं माने। अंतत: वह गीत एक हास्य-कलाकार मारुति राव पर फ़िल्माया गया।

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प्रेम की एक गरिमा होती है। सम्बंध-विच्छेद के बाद भी वह अक्षुण्ण रहती है। और प्रेमियों में एक-दूसरे के प्रति चाहे जितने उलाहने हों, शिकायतें हों, नाराज़गी हो, अगर भावना गहरी थी तो वे कभी उस पर लाँछन नहीं लगने देते हैं। सार्वजनिक-आक्षेपों से सदैव उसकी रक्षा करते हैं। प्रेम सफल हो जाए, तो जीवनभर का साथ बन जाता है। किंतु अगर प्रेम परिणति तक नहीं पहुँचे, तो फिर जीवनभर की साधना और संकल्प है, उसकी गरिमा, सुन्दरता और स्मृति की रक्षा करने के लिए। क्योंकि अगर प्रेम में ही गरिमा नहीं होगी, तो किस और वस्तु में होगी? उससे उच्चतर भावना भला कौन-सी हो सकती है?

लिहाजा, राज कपूर ने नरगिस के प्रति एक सम्मान का भाव ताउम्र बनाए रखा। आरके स्टूडियो में उनकी बैठक के ठीक ऊपर नरगिस का चित्र टँगा रहता था। वास्तव में, राज कपूर ने अपनी फ़िल्मों में जिस अस्मिता से नरगिस को चित्रित किया था, वैसा वे फिर दूसरी नायिकाओं के साथ नहीं कर सके, अगर एक अपवाद के तौर पर कुछ हद तक वैजयंती माला (‘संगम’) को छोड़ दें तो। एक मनोवैज्ञानिक ने टिप्पणी की है कि नरगिस के बाद राज कपूर ने जब भी किसी स्त्री को नायिका के रूप में लेकर फ़िल्म बनाई, वे उनके प्रति वैसे सम्मान का प्रदर्शन नहीं कर सके थे, जैसे नरगिस के लिए उन्होंने ‘बरसात’, ‘आवारा’ और ‘श्री420’ में किया था। उलटे उनमें अपनी नायिकाओं के प्रति एक दबा-छुपा विद्वेष भी दिखलाई देता है, बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर।

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नरगिस राज कपूर की प्रेयसी होने के साथ ही उनकी कलात्मक प्रेरणा भी थीं। उनके अभाव को राज कपूर कभी भर नहीं सकते थे। वे इस बात के लिए भी नरगिस को माफ़ नहीं कर सके थे कि उन्होंने जीवनसाथी के रूप में एक ऐसे युवा अभिनेता को चुन लिया था, जो एक समय रेडियो सीलोन पर राज कपूर का साक्षात्कार लेने के लिए उनसे विनती किया करता था। नरगिस के बाद राज कपूर का व्यक्तित्व आहत अहं, भग्न प्रेरणा और इसके साथ ही प्रेम की महान भावना को सुरक्षित, अक्षुण्ण, सजीव रखने के अहर्निश आत्मसंघर्ष का व्यक्तिचित्र बन गया था!

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