नाश्ता अंग्रेज़ों के साथ भारत आया

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राजकमल प्रकाशन फ़ेसबुक लाइव : बुधवार, लॉकडाउन के 29वें दिन खान-पान विशेषज्ञ पुष्पेश पंत के साथ देश-दुनिया में खाए जाने वाले नाश्ते की विविधता पर विस्तार से चर्चा हुई। साथ ही लेखक-पत्रकार पुष्यमित्र ने, बिहार के संदर्भ में अप्रवासी मजदूरों की पीड़ा एवं आने वाले समय में गाँव की सामाजिक संरचना में होने वाले बदलाव पर कई महत्वपूर्ण जानकारियां साझा कीं। शाम का समय इन्हीं ‘अपने से अलग कर दिए लोगों’ पर आधारित कहानी का सुंदर पाठ किया लेखक सारा राय ने।

कोरोना के समय में जरूरी है कि हम शारीरिक और मानसिक तौर पर स्वस्थ रहें

लॉकडाउन में खाने-पीने की बातें करना भी उतना ही महत्वपूर्ण हैं जितना पढ़ना, सोना, खेलना और टीवी देखना। सादा और पौष्टिक भोजन हमें स्वस्थ रखने में सहायक है। ‘स्वाद-सुख’ का लक्ष्य यही है कि कैसे फिलहाल रसोई में उपल्बध चीजों से स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन घर पर ही तैयार किया जा सके।

राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक पेज से रोज़ ग्यारह बजे लाइव होने वाले कार्यक्रम ‘स्वाद-सुख’ में आज पुष्पेश पंत ने बात की देश के भिन्न प्रांतों में खाए जाने वाले नाश्ते के बारे में।

पुष्पेश पंत ने कहा, “नाश्ता, अग्रेज़ों के साथ भारत आया। अंग्रेज़ अफ़सरों की दिनचर्या में सुबह के वर्जिश के बाद जमकर नाश्ता करना शामिल था। इसी की देखा-देखी साधन सम्पन्न हिन्दुस्तानियों ने शासक की नक़ल करके नाश्ते को अपने जीवन का हिस्सा बनाया।“

आज उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम देश के सभी प्रांतों में नाश्ते से दिन के खाने की शुरुआत होती है। पावभाजी, इडली, डोसा, उपमा, पोहा, परांठा, ढोकला लगभग सभी घरों में आसानी से उपलब्ध होने वाले नाश्ते में शामिल हैं।

पुष्पेश पंत ने कहा कि, गौर करने वाली बात यह है कि हमारे घरों में पहले से ही नाश्ते में उन चीजों को खाने का रिवाज़ रहा जो पौष्टिक हैं। जैसे बिहार में मिलने वाला सत्तू। इसे पानी में घोलकर, थोड़ा काला नमक मिलाकर पी सकते हैं; या छोटे-छोटे लड्डू की तरह बनाकर, थोड़ा प्याज़, नमक और मिर्च के साथ खा सकते हैं। कुछ लोग इसे गुड़ से मिठा करके भी खाते हैं। इससे ज्यादा पौष्टिक, किफायती, बिना तेल वाली चीज़ शायद ही कहीं और देखने को मिलेगी।

वैसे, ही महाराष्ट्र का पोहा आज हर जगह खाया जाता है। पोहा, मराठा सैनिकों के साथ महाराष्ट्र से चलकर, दिल्ली के रास्ते लाहौर तक पहुंचा था। आज, राजस्थान हो या मालवा का इलाका प्याज़, मटर से सजा पोहा तरह-तरह से पेश किया जाता है। नाश्ते में उपमा भी आज सभी घरों में खाने को मिल जाता है। इतना की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी इन्हें पैकेट बंद में बेचती हैं। बस, गरम करो और खाओ।

असम में ‘जलपान’ नाम का व्यंजन है जिसे नाश्ते के रूप में खाया जाता है। इसमें दो तरह के चुड़ा के मिश्रण में उपर से थोड़ी दही और थोड़ा गुड़ मिलाते हैं। उडीसा में नाश्ते में ‘पीठा’ खाने को मिल जाता है। वहाँ का ‘चकोली पीठा’ बहुत मशहुर है जिसे भाजी के साथ भी खाया जाता है।

उडीसा औऱ बंगाल में ‘मुड़ी’ का महत्व भी बहुत अधिक है। बंगाल में, रोड़ के किनारे बहुत कम पैसे में एक तरह का पिटाई परांठा ख़रीद कर इसमें मिलाकर इसे खा सकते हैं।

दक्षिण में केरल की तरफ चावल के आटे से बना ‘पाथिरी’ नाश्ते के रूप में खाया जाता है। साथ ही पतली सेवईयों से बना ‘इडियप्पम’ भी पौष्टिक नाश्ते में शामिल है। चावल के आटे से ‘पुट्टू और काले चने से बनी ‘कडला करी’ को दक्षिण में नाश्ते का दर्ज़ा प्राप्त है। लद्दाख और हिमाचल के बहुत सारे इलाकों में ‘साम्पा’ खाने को मिलती है जिसे याक के दूध की चाय के साथ परोसा जाता है। नाश्ते में गुजरात का नाम न आए ऐसा संभव नहीं। गुजरात के नाश्ते में ढोकला, खांडवी और दमन की दाबेली रोटी भी चाव से खाई जाती है।

लॉकडाउन में बार-बार गांधी याद आते हैं

दिल्ली का आनंद विहार बस स्टैंड, सूरत की सड़कें या मुम्बई का बांद्रा रेलवे स्टेशन, सभी जगहों पर अप्रवासी मजदूरों के सड़कों पर उतर आने वाले दृश्यों में इतनी ताकत थी कि स्क्रीन से बहार निकलकर वो चित्र लॉकडाउन के अंधेरे पक्ष की सच्चाई बयां कर रहे थे। लॉकडाउन शुरू होने के तुरंत बाद ही लाखों की संख्या में देश के अलग-अलग कोने से ग़रीब और मजदूर तबके के लोग घर लौटने की कोशिश कर रहे हैं। उनके सामने सदियों से चला आ रहा था- रोटी, कपड़ा और मकान। लॉकडाउन 1 औऱ लॉकडाउन 2.0 के कुल 40 दिन बिना राशन और पैसे के वो कैसे अजनबी शहर में रह सकते हैं…

राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक लाइव से जुड़कर ‘कोरोना, लक्ष्मण रेखा और गरीबी रेखा’ विषय पर लेखक एवं पत्रकार पुष्यमित्र ने बातचीत में कहा, “गांधी हमारी पहचान हैं। बचपन में गांधी जी का जंतर हमारी किताब के शुरुआती पन्नों पर छपा होता था, जिसमें लिखा था कि मन में संशय हो तो फैसला लेने से पहले इसका विचार कर लेना चाहिए कि हमारे फैसले का सबसे नीचले तबके के लोगों पर क्या असर होगा। यह जतंर आज और भी महत्वपूर्ण हो गया है। हमें इस जंतर को फ्रेम कर सभी सरकारी दफ्तरों में लगा देना चाहिए।“

सराकार द्वारा 40 दिन के लॉकडाउन के नियम को लागू करने से पहले मजदूरों के बारे में कोई नहीं सोच रहा था। अपनी परेशानी में वो घर से बाहर निकले। बहुत हंगामें के बाद सरकार ने उनकी मदद के लिए रिलिफ़ पैकेज की घोषणा की लेकिन उसकी सच्चाई भी कुछ और है।

पुष्यमित्र ने बताया कि, “ स्टैंडर्ड वर्कर एक्शन नेटवर्क (SWAN) द्वारा बिहार के 11,159 मजदूरों से बात कर तैयार किए गए सर्वे से पता चलता है कि 96 प्रतिशत मजदूरों के पास सरकार की तरफ से राशन की कोई सुविधा नहीं पहुंची है। 50 प्रतिशत मजदूरों के पास पॉकेट में 300 रूपये भी नहीं हैं। 70 प्रतिशत मजदूरों ने कहा कि उन्हें सरकार की तरफ से पका हुआ खाना नहीं मिल रहा और 79 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें उनकी मजदूरी नहीं मिली।“

उन्होंने कहा, “बिहार के 13 से 14 लाख मजदूरों ने बिहार सरकारी के एप्प पर रजिस्टर कर कहा है कि वो संकट में हैं और उन्हें मदद चाहिए। लेकिन 11 से 12 लाख लोगों के पास अबतक कोई सुविधा नहीं पहुंची है। सरकार ने कहा कि उन्होंने प्रति व्यक्ति 1000 रूपये की मदद मुहैया करा दिया है लेकिन सच कुछ और है।“

दरअसल, हम अभी भी यह सोचने के आदी नहीं हैं कि भारत में संपन्न तबके और गरीब तबके के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। गरीब तबकों का संपर्क सबसे दूर होता जा रहा है।

सड़क और रेल सुविधा के अचानक बंद हो जाने के कारण मजदूर पैदल अपने घर की ओर बढ़ चले। इतने दिनों के बाद, बहुत सारे लोग अब जाकर घर पहुंच रहे हैं। इस बीच 100 से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि इनके बारे में कौन सोचेगा? लोग गाँव की तरफ़ लौट रहे हैं। लेकिन, अपने की लोग उन्हें शंका की दृष्टि से देख रहे हैं।

राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक लाइव पर सशक्त भाषा में अपनी बात रखते हुए पुष्यमित्र ने कहा कि कोरोना के डर ने इंसानी रिश्तों को भी संक्रमित कर दिया है। जो लोग वापिस लौट रहे हैं उन्हें अपने खेतों में छुपकर रहना पड़ रहा है। उनके पड़ोसी उनसे दूर भाग रहे हैं। वो सरकार से अपील कर रहे हैं कि उनका टेस्ट करवाया जाए।

उन्होंने कहा, “कोरोना के बाद का समय निश्चय ही बहुत भयंकर परिस्थितियाँ खड़ी करने वाला है। जिसकी आशंका अभी से देखने को मिल रही है। गाँव लौट रहे लोग शायद वापिस शहर की तरफ़ नहीं लौटेंगे। ऐसे में गाँव में उनके लिए क्या है? मजदूरों के बिना शहर कैसा होगा? सामाजिक और आर्थिक नज़रीय से देखें तो आगे बहुत ज्यादा बड़े सवालों का सामना करने के लिए हमें तैयार रहना होगा। ऐसे में मुझे सिर्फ़ गांधी याद आते हैं।“

राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक लाइव में लेखक सारा राय ने इन्हीं अलग कर दिए लोगों की दास्तान को कहानी में पिरो कर पेश किया। उन्होंने कहा, “इस मुश्किल दौर से हम नहीं, पूरी दुनिया लॉकडाउन में हैं। यह सच है कि घर में बंद होना भी एक लग्जरी है। लाखों मजदूर अभी भी इसकी मार झेल रहे हैं। इस लॉकडाउन में हम एक नए सिरे से देखना सीख रहे हैं। इस समय में मन की आंखें खुल जाती हैं।“

सारा राय ने बातचीत में बताया कि वो लॉकडाउन में किताबों के साथ हैं और कुछ किताबों को दुबारा पढ़ रहीं हैं। फिलाहल वो, तुलसीराम की आत्कथा ‘मुर्दहिया’, रॉबर्ट मैकफर्लेन की ‘द वाइल्ड प्लेस’ और ‘नैयर मसूद’ की किताबें दुबारा पढ़ रहीं हैं।

राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक लाइव पर उन्होंने अपनी प्रकाशित कहानी का पाठ किया।



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