संजय कुमार सिंह-
अगर हम हिटलर बना रहे हैं तो क्या समझ रहे हैं?
अफसरों के पीछे ईडी, सीबीआई; मीडिया के पीछे सेठ के जमाने में
जमशेदपुर से आज ट्रेन से दिल्ली लौटा। राजधानी में इंडियन एक्सप्रेस का जो संस्करण मिला उसमें यह खबर लीड थी। पढ़कर गुजरात मॉडल का ख्याल आया और लगा कि जज को गवरनर बनना हो या राज्य सभा में मनोनित होना हो या विशेष किस्म के फैसले के बाद ऐसा कुछ जल्दबाजी में किया जाए तो जनता को कैसे पता चलेगा कि खेल हुआ और हुआ तो कहां, कब किसने किया। पर गुजरात मॉडल यही है। जनता ने बहुमत से चुना है। इसलिए, इसे समझने की जरूरत है। इसलिए कि इसमें मीडिया और सेठों की भूमिका शामिल है। गुजरात मॉडल का सच एनडीटीवी ने बताया था और इंडियन एक्सप्रेस लीड को सेकेंड लीड बना कर ही सही, अपनी परेशानी भी बता रहा है।
कांग्रेस और इंदिरा गांधी के जमाने में इंडियन एक्सप्रेस की एक्सक्लूसिव खबरें (जो तब की सरकार के खिलाफ होती थीं) टॉप बॉक्स या जैसे भी छपती थी सभी एडिशन में रहती थी। सिटी में तो प्रमुखता से रहती ही थी। भले ही तब इंटरनेट संस्करण नहीं था लेकिन उसका महत्व तो नगर या सिटी एडिशन से ज्यादा है, होना चाहिए। तब एक्सक्लूसिव शुरुआत डाक एडिशन से होती थी। इस लिहाज से इंडियन एक्सप्रेस की नीति में बड़ा बदलाव है और मेरे लिए यह समझना मुश्किल है कि बदलाव की वजह राजनीति है (सत्ता का विरोध तो अब नहीं ही होता है, अब तो उसकी तारीफ की भी अपेक्षा है) या सेठ के खरीदने का डर पर – जो है सामने है। वैसे यह भी संभव है कि तब विरोध संपादक अरुण शौरी करते और अब कोई रिपोर्टर विरोध की खबर करता है इसलिए अंतर हो – पर जो है सो है और यह भी तय है कि कांग्रेस के पास कोई अरुण शौरी और इंडियन एक्सप्रेस की जोड़ी नहीं है।
दूसरी ओर, जनता की पसंद और समर्थन के बहुमत से गुजरात मॉडल देश भर में लागू हो रहा है। धीरे-धीरे ही सही, जो काम गुजरात में होता था वह अब केंद्र स्तर पर भी हो रहा है। मीडिया का सहयोग और विरोध इसमें सबसे महत्वपूर्ण है। संपूर्ण मीडिया की समग्र पत्रकारिता में सहयोग करने वालों और विरोध करने वालों का जो हाल हुआ है वह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में गुजरात मॉडल भी सर्वव्यापी है। इसमें अपराध होता है, अपराधी नहीं मिलते और जिसपर शक किया जाता है या जिसकी जांच होती है उसके पास कुछ मिलता नहीं है या बाद में पता चलता है (आरोप लगता है) कि सबूत कंप्यूटर में प्लांट किया गया था। पर सब चल रहा है। ऐसे मामले की सुनवाई प्राथमिकता से हो जाए इसकी जरूरत नहीं समझी जाती है और फिर मामला पुराना हो जाता है इसलिए छोड़ दिया जाता है। इसरो जासूसी कांड इस लिहाज से बहुत दिलचस्प है।
कहने की जरूरत नहीं है कि 70 साल अगर कुछ नहीं हुआ तो उसका कारण इसरो जासूसी कांड से भी समझा जा सकता है। आखिर वह भारत की प्रगति में बाधा डालने की कोशिश ही तो थी (अगर उसमें कुछ नहीं मिला)। उसकी जांच क्यों नहीं कराई जा रही है, मीडिया में उसपर वो हंगामा क्यों नहीं है? मैं नहीं समझ पा रहा हूं और जितना पढ़ रहा हूं उतना उलझता जा रहा हूं। पहले लिखा था कि इसपर तीन किताबें मेरी जानकारी में हैं। अभी पहली ही पढ़ रहा हूं। पर आश्चर्य यह है कि भारत के विकास में बाधा माने जा सकने वाले इस मामले में क्या कैसे हुआ इससे जानने-बताने में किसी की दिलचस्पी क्यों नहीं है और जिनकी वजह से यह सब हुआ उन्हें सजा देने में सब आम राय क्यों नहीं हैं।
पुनःश्च – इस खबर से साफ है कि नोटबंदी जबरन एक व्यक्ति की इच्छा और सलाह से लागू की गई, अब उससे बचने की कोशिश हो रही है (हालांकि यह भी पहले होना चाहिए था)। उससे फायदा नहीं हुआ, नुकसान उम्मीद या अनुमान से ज्यादा हुआ – फिर भी ऐसा करने वाला कुछ गलत नहीं करता है – यह छवि मीडिया ने पैसे के दम पर बनाई है और यह पोल खुलने के बाद कि मेरा कोई नहीं है मैं किसके लिए भ्रष्टाचार करूंगा। और इनका तो कोई विकल्प ही नहीं है। जहां तक योग्यता का सवाल है 18 घंटे मेहनत करने और गधे से प्रेरणा लेने और मनमाफिक टीम बनाने की आजादी के बाद भी प्रदर्शन और आंकड़े गवाह हैं। अगर हम हिटलर बना रहे हैं तो क्या समझ रहे हैं?
गिरीश मालवीय-
फिर आप कहेंगे कि न्याय तो मिला ही नहीं!
नए साल की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट नोटबंदी के ऊपर महत्वपूर्ण फैसला सुना रही है …..लेकिन जरा ठहरिए !
इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़, आरबीआई और केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामों में आरबीआई की ओर से की गई उन आलोचनाओं का ज़िक्र नहीं किया है जिनमें आरबीआई के सेंट्रल बोर्ड ने सरकार के उन तर्कों की आलोचना की थी जिनके आधार पर नोटबंदी को ज़रूरी फ़ैसला ठहराया गया था.
हलफ़नामों में ये नहीं बताया गया है कि कैश टू जीडीपी अनुपात नोटबंदी के बाद तीन साल के अंदर ही नोटबंदी से पहले वाले स्तर पर पहुंच गया है हलफ़नामों में ये नहीं बताया गया है कि आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने सरकार के इस विश्लेषण पर सवाल उठाए थे.
नोटबंदी के एलान से ठीक ढाई घंटे पहले शाम पांच बजकर तीस मिनट पर हुई इस मीटिंग में आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने कहा कि ‘अर्थव्यवस्था में वृद्धि की जो दर बताई गयी है, वो ठीक है, उसके लिहाज से कैश इन सर्कुलेशन में वृद्धि नाममात्र है. इन्फ़्लेशन को ध्यान में रखा जाए तो अंतर इतना ज़्यादा नहीं नज़र आएगा. ऐसे में ये तर्क पूरी तरह से नोटबंदी के फ़ैसले का समर्थन नहीं करता.”
केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामे में लिखा है कि इस क़दम का उद्देश्य जाली मुद्रा के ज़रिए आतंकवाद और ऐसी ही दूसरी गतिविधियों को रोकना था.
इस हलफ़नामे में ये नहीं बताया गया है कि आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने इस तर्क पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा था – ‘हालांकि, जाली नोटों का होना एक चिंता का विषय है लेकिन चलन में जाली नोटों का मूल्य चार सौ करोड़ रुपये है जो कि 17 लाख करोड़ रुपये के असली नोटों की तुलना में बहुत ज़्यादा नहीं है.
केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामे में ये भी बताया कि नोटबंदी का मक़सद बेनामी संपत्ति की समस्या दूर करना भी है जो ऊंचे मूल्य वाले नोटों के ज़रिए जमा की जाती है और जो अक्सर जाली नोट होते हैं.
आरबीआई के सेंट्रल बोर्ड ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि ‘ज़्यादातर काला धन नक़दी के रूप में नहीं बल्कि सोने और ज़मीनों के रूप में जमा किया गया है और नोटबंदी से इन संपत्तियों पर बड़ा असर नहीं पड़ेगा.’
केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामे में लिखा है कि इस क़दम का उद्देश्य जाली मुद्रा के ज़रिए आतंकवाद और ऐसी ही दूसरी गतिविधियों को रोकना था.
लेकिन कोर्ट को ये नहीं बताया गया है कि आरबीआई की बैठक में इस बारे में कोई चर्चा ही नहीं हुई.
यानी काला धन, जाली मुद्रा, कैश फ्लो और बेनामी संपत्ति ……ये चार बड़े कारण थे जो मोदी सरकार ने नोटबंदी के लिए गिनाए थे लेकिन यहां साफ दिख रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने मोदी सरकार ऐसा फर्जी हलफनामा पेश कर रही है जिसमे आरबीआई द्वारा पेश किए गए जवाबो को छुपाया गया है
स्पष्ट दिख रहा है कि सुबूत ही गलत तरीके से पेश किए जा रहे हैं
ऐसे में कोर्ट क्या ही न्याय करेगा !