दीपाली अग्रवाल-
बीते दिनों मां आनंद शीला का इंटरव्यू किया था, उसमें जो बातें थीं वो सबके सामने ही हैं इसके अलावा भी उनसे बात हुई। उन दिनों वो बड़ोदा में थीं, एक दफ़ा दिल्ली भी आई थीं लेकिन मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी। इंटव्यू के तुरंत बाद ही मेरी उनकी बात हुई थी, तब उन्होंने बताया कि वो कितने ही इंटरव्यू कर चुकी हैं और वो जैसी हैं वैसे ही जवाब देती हैं। हालांकि यह लाइन अपने आप में एक राजनीति है। उस समय ओशो से उनके प्रेम को लेकर मैं चर्चा कर रही थी।
हालांकि वो कभी इस बात को ना ही मानती हैं और ना ही बात करना चाहती हैं कि वह उस प्रेम में एकाधिकार चाहती थीं और अपना वर्चस्व, सामने वाले के व्यक्तित्व पर छा जाने की आकांक्षा जबकि परिपक्व प्रेम की परिभाषा पर ही ओशो ने इतनी बातें कही हैं। शीला ने इस इस प्रेम में कई जानें लेने की असफल कोशिशें भी कीं।
वह एक टॉक्सिक प्रेम था, बल्कि प्रेम ही नहीं था। जब मैंने पूछा कि आपने कैसे उस व्यक्ति को अचानक छोड़ दिया जिससे आप इतनी प्रेम होने का दावा करती हैं तो उन्होंने बताया कि जब आप किसी काम को सौ प्रतिशत कर लेते हैं तो उससे जुड़े मोह समाप्त हो जाते हैं। वह ओशो के साथ अपने प्रेम को सौ प्रतिशत जी चुकी थीं।
मां आनंद शीला से बात करने के एकमात्र कारण ही ओशो हैं। हालांकि एक तीस साल की लड़की की अमेरिका में एक पूरा शहर बसा देना और फिर उसकी कम्यून को छोड़ने के बाद जिस संघर्ष के बारे में शीला ने अपनी किताब में लिखा है, वो बहुत आसान नहीं है। फिर भी ओशो इतने बड़े हैं कि ये सब बातें बौनी ही जान पड़ती है। अगर वह ओशो की सैक्रेटरी ने होतीं तो कोई लड़की जर्मनी में रहकर कैसा संघर्ष कर रही है इसमें बहुत लोगों की दिलचस्पी नहीं रहती। ओशो इन सब बातों परआच्छादित हो जाते हैं। चूंकि शीला के महत्व को बढ़ाने वाले भी वही थे।
ओशो अध्यात्म की दुनिया के एक रहस्यमयी कैरेक्टर हैं। ज्ञान से भरपूर, किसी बुद्ध पुरुष जैसे दिखने और बोलने वाले, लोगों को अपने आकर्षण में खीूंचने वाले, सन्यास के नए सूत्र देने वाले। लेकिन इसी अध्यात्म को शीला ने एक सिरे से नकार दिया, इसे उनका बाज़ार बताकर हर ध्यान, हर सूत्र को निरर्थक साबित करने की कोशिश की, यहां तक की बुद्ध को भी। मां आनंद शीला ने इंटरव्यू के दौरान अध्यात्म को ही नकार दिया यानी जिस व्यक्ति के प्रेम करती रहीं, उसके जीवन के सारे उद्देश्य और प्रयोगों के निरर्थक ही बता दिया।
जब उनसे पूछा गया कि कैसे तीस साल की स्त्री ने एक शहर खड़ा कर दिया तो जवाब में बताया कि प्रेम ने वो शक्ति दी, मैं इसका भौतिक और प्रेक्टिकल जवाब चाह रही थी। लेकिन जवाब बहुत ही पेचीदा और हाथ छुड़ाने वाला था। लोग सोचते हैं कि मां आनंद शीला के बहाने ओशो को व्यक्तिगत रूप से और जानने में और भी मदद मिलेगी, वे ऐसी बातें बताएंगी जो ऐसे किसी व्यक्तित्व को जानने में मदद करे और अध्यात्म के भीतर की और तह खोले लेकिन वे सारी बातें प्रेम शब्द के सहारे टिका देती हैं। प्रेम तो भावनात्मक पक्ष हुआ लेकिन व्यक्तित्व की रुपरेखा के नाम पर उनके पास इल्ज़ाम हैं ओशो के नाम गढ़ने के लिए। जबकि अगर आप किसी व्यक्ति के साथ प्रेम में हैं तो अमूमन ही उसकी रुचि धीरे-धीरे अपनी रुचि भी बन जाती है। लेकिन शीला ने वर्चस्व और कम्यून को तो स्वीकारा और स्पिरिचुएलिटी को खारिज कर दिया। हालांकि उनके हाथ अंत में कुछ भी नहीं लगा।
लेकिन एक बात है कि कम्यून को छोड़ने के बाद ओशो की दोनों ही महिला सेक्रेटरी लक्ष्मी और शीला ने इसे ओशो की लीला मानकर स्वीकार किया। उन्हें लग रहा था कि दोनों के ही भीतर को और मजबूत बनाने के लिए ओशो ने उनको बाहर निकाला है। लक्ष्मी की तो मृत्यु हो चुकी है। शीला स्विट्ज़रलैंड में रहती हैं। कहती हैं कि ओशो को याद तो नहीं करतीं लेकिन अगल वे दैहिक रूप से भी होते तो बुरा तो नहीं लगता। उनका कहना है कि वह उनकी टीचिंग को ही जीती रहीं लेकिन ये पूछने पर कि कम्यून जैसे ख़याल क्या भारत की संस्कृतिवाहक परंपरा में काम करेगा, तो उन्होंने कहा कि यह जानना उनका विषय नहीं है। कुल मिलाकर मां आनंद शीला जिस रुप में रजनीश के साथ जुड़ी और जिस तरह का लाभ लेना चाहती थीं, वह उन्होंने लिया इसके आगे सब पॉडकास्ट है।