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इतने खराब अनुभव के साथ पांचजन्य से विदा लूंगी, कभी सोचा न था : अनुपमा श्रीवास्तव

Anupama Shrivastava : मैंने 1992 में पांचजन्य में अपनी सेवा आरंभ की थी। उन दिनों तरुण विजय जी संपादक हुआ करते थे। तब पांचजन्य का इतिहास पढ़ते हुए बड़ा गर्व महसूस होता था कि अटल जी, भानु प्रताप शुक्ल जी, यादव राव जी, देवेन्द्र स्वरुप जी और न जाने कितनी महान हस्तियों ने संपादक बनकर कर यहां काम किया। यहां काम करते हुए हमें लगता था कि हम भी एक मिशन में संघ कार्य कर रहे हैं। कभी लगा ही नहीं कि हम नौकरी कर रहे हैं। एक परिवार के नाते लड़ते झगड़ते 23 साल इस संस्थान में बिता दिए। लेकिन कभी सोचा नहीं था कि इतने ख़राब अनुभव के साथ पांचजन्य से विदा लूंगी। एक ऐसे संपादक के साथ 3 साल काम किया जिसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मुझे बुलाता और नमस्ते करता और कहता कि कल से आपकी सेवा समाप्त। कम से कम गर्व तो होता कि हितेश जी ने संपादक पद की गरिमा रखी। लेकिन अफ़सोस, पाञ्चजन्य का संपादक अब प्रबंधन का कर्मचारी बन गया है।

Anupama Shrivastava : मैंने 1992 में पांचजन्य में अपनी सेवा आरंभ की थी। उन दिनों तरुण विजय जी संपादक हुआ करते थे। तब पांचजन्य का इतिहास पढ़ते हुए बड़ा गर्व महसूस होता था कि अटल जी, भानु प्रताप शुक्ल जी, यादव राव जी, देवेन्द्र स्वरुप जी और न जाने कितनी महान हस्तियों ने संपादक बनकर कर यहां काम किया। यहां काम करते हुए हमें लगता था कि हम भी एक मिशन में संघ कार्य कर रहे हैं। कभी लगा ही नहीं कि हम नौकरी कर रहे हैं। एक परिवार के नाते लड़ते झगड़ते 23 साल इस संस्थान में बिता दिए। लेकिन कभी सोचा नहीं था कि इतने ख़राब अनुभव के साथ पांचजन्य से विदा लूंगी। एक ऐसे संपादक के साथ 3 साल काम किया जिसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मुझे बुलाता और नमस्ते करता और कहता कि कल से आपकी सेवा समाप्त। कम से कम गर्व तो होता कि हितेश जी ने संपादक पद की गरिमा रखी। लेकिन अफ़सोस, पाञ्चजन्य का संपादक अब प्रबंधन का कर्मचारी बन गया है।

संस्थान में 22 साल से और अपने निजी सहायक के तौर पर 3 साल से कार्यरत एक सहकर्मी को सम्मान के साथ विदा करने का नैतिक बल जिस प्रबंधन और सम्पादक में नहीं, वे ख़ुद देश के सबसे बड़े वैचारिक पत्र का संचालन कर रहे हैं। मेरे अलावा 5 अन्य को भी ऐसी ही कायरता दिखाकर एक एक कर निकाला गया। उनके भी छोटे छोटे बच्चे हैं। पर हम सबसे खुद को एक परिवार कहने वाले संगठन का कोई एक अधिकारी तक भी सांत्वना देने के लिए एक शब्द नहीं बोल रहा। इसे कहते हैं अनुशासन। पाञ्चजन्य में प्रबंधन मतलब विजय कुमार क्षेत्रीय सह कार्यवाह और जितेंद्र मेहता जो अपनी व्यक्तिगत एजेंडा चला रहे है। एक संस्कार भारती चला रहे हैं और एक संघ चला रहे हैं। विजय कुमार तो खुले आम कर्मचारियों को निकाल कर ही दम लेंगे भले ही भारत प्रकाशन बंद करना पड़े। समय समय पर हमारी कम्बल परेड कराने की धमकी देते थे। कहते थे संघ तुम्हारा नहीं संघ मेरा है। 2012 में हमारी वार्षिक वृद्धि मात्र 120 रुपये तक रोक दी। जब हमने लेबर कमिश्नर से शिकायत की तो इनको मुंहकी खानी पड़ी।

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कहां है मजदूर संघ?

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गजब का दुस्साहस भरा हुआ है पांचजन्य-आर्गेनाइजर के प्रबंधन तंत्र में। स्थायी कमर्चारियों को लगातार निकाले जाने के बाद आज भी प्रबंध निदेशक मोहारिया धमकाते घूम रहे हैं कि स्थायी नौकरी छोड़कर ठेके के मजदूर बन जाओ वरना..। मोहारिया तो चलो संघ के क्षेत्र कार्यवाह विजय कुमार के मोहरे भर हैं। पर यह सब जानकर भी उसी गली में स्थित भारतीय मजदूर संघ के केन्द्रीय कार्यालय रामनरेश भवन में मौजूद पदाधिकारियों की चुप्पी आश्चर्य पैदा करती है। याद आते हैं दत्तोपंत ठेंगडी, जो सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ सार्वजनिक विरोध प्रकट करते थे। उनके द्वारा स्थापित भारतीय मजदूर संघ ठेकेदारी प्रथा का विरोध करता है। पर संघ के मुखपत्र में ही ठेकेदारी प्रथा को लागू करने पर मौन स्वीकृति प्रदान कर रहा है। शायद पूरे संगठन को भगवा प्रणाम की जगह लाल सलाम की गूंज सुनने का इंतजार है।

पांचजन्य में कार्यरत रहीं अनुपमा श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से.

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