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उत्तर प्रदेश

सहूर है नहीं, कराएंगे पर्यटन!

काफी दिन हुए बीबीसी पर एक प्रोग्राम देखा था. उसमे उन्होंने यूरोप के कुछ फेमस किलों को इस तरह से सजाया था कि वे तीन – चार सौ साल पहले के जीवंत किले दिख रहे थे. ज़ाहिर सी बात है वो प्रोग्राम काफी सफल रहा. पर्यटन के प्रति लोगों का रुझान बढे इसके लिए नए – नए विचारों की जरूरत पड़ती है. लेकिन कम से कम अपने उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं है. यहाँ तो कुछ पेशेवर लोगों का झुण्ड है जो इस काम को अंजाम देता है और पर्यटन का सत्यानाश करने पर उतारू है.

काफी दिन हुए बीबीसी पर एक प्रोग्राम देखा था. उसमे उन्होंने यूरोप के कुछ फेमस किलों को इस तरह से सजाया था कि वे तीन – चार सौ साल पहले के जीवंत किले दिख रहे थे. ज़ाहिर सी बात है वो प्रोग्राम काफी सफल रहा. पर्यटन के प्रति लोगों का रुझान बढे इसके लिए नए – नए विचारों की जरूरत पड़ती है. लेकिन कम से कम अपने उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं है. यहाँ तो कुछ पेशेवर लोगों का झुण्ड है जो इस काम को अंजाम देता है और पर्यटन का सत्यानाश करने पर उतारू है.

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इसे समझने के लिए किसी बड़े शोध की जरूरत नहीं, अपने लखनऊ में ही बेशुमार उदाहरण हैं. लखनऊ ऐतिहासिक शहर है और इसका समृद्ध अतीत है. लेकिन एक कमी भी है, जो इस अतीत को सामने लाने में सबसे बड़ी बाधा है. लार्ड डलहौजी ने एकदम से अवध पर कब्ज़ा कर लिया और नवाब को कलकत्ता भेज दिया. इसके तत्काल बाद अवध में विद्रोह फैल गया. उस अफरा – तफरी में लखनऊ में जो कुछ भी देखने लायक था उसका अधिकतर हिस्सा नष्ट हो गया.

तो भी जो बचा वो इतना सुन्दर था कि तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग जब लखनऊ आए तो उनकी पत्नी ने लिखा कि अगर मै खुद न देखती तो यह मानने से इंकार कर देती कि कोई शहर इतना सुन्दर हो सकता है. यह शहर नहीं वरन एक बहुत ही सुन्दर कलाकृति है. लगभग उसी समय १८५७ का विद्रोह कवर करने आए टाइम्स के संवाददाता विलियम हॉवर्ड रसेल ने लिखा न रोम न कोंस्तान्तिने और न ही मेसोपोटामिया कोई भी शहर इतना सुन्दर नहीं है जितना मैंने लखनऊ को पाया. इस ऐतिहासिक विवरण से तय है कि लखनऊ बहुत ही सुन्दर शहर रहा होगा.

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लेकिन आज उस कालखंड की सुन्दरता पर्यटकों को दिखाने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं है. बड़े इमामबाड़े को एक हद तक छोड़ दें तो पर्यटकों को हम केवल खंडहर इमारतें दिखाते हैं. इसीलिये लाख कोशिश के बावजूद पर्यटक लखनऊ नहीं आते. मज़े की बात लखनऊ में फोटोग्राफर १८४५-४६ के आस -पास ही आ गए थे और नवाबी ख़तम हुई है १८५६ में. उस समय का पूरा लखनऊ अपनी पूरी भव्यता के साथ फोटोग्राफ्स में मौजूद है.

लेकिन पर्यटन का बाजा बजानेवाले किसी भी ओहदेदार ने ये न किया कि एक आकर्षक इमारत बनाकर ये सारे फोटोग्राफ्स वहां डिस्प्ले कर दें उनके प्रामाणिक और दिलचस्प विवरण के साथ. ऐसा हो तो पर्यटक अभी भी पुराने लखनऊ को उसकी पूरी भव्यता में देख सकता है. लेकिन ये नहीं होगा उसके बजाए हो ये रहा है कि मुजफ्फर अली जैसे फ्लॉप फिल्म बनाने वाले से नवाबी एरा पर बेहूदे प्रोग्राम बनवा कर अफसरों और नेताओं को दिखाए जाते हैं. बेहूदगी और फूहड़पन के और भी उदाहरण लखनऊ में हैं जिन्हें अली जैसे ही और कॉकस के लोग  पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर अंजाम दे रहे हैं.

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ऐसा नहीं है कि लखनऊ में लोग नहीं हैं, रोशन तकी और योगेश प्रवीन सरीखे कई जानकार शहर में हैं जो लखनऊ के आधिकारिक विद्वान हैं और जो मुझे लगता है पर्यटन को बढ़ावा देने के नायाब तरीके बता सकते होंगे लेकिन उनतक कोई नहीं जायेगा. पूरे पर्यटन को लेकर ओहदेदारों का यही रवैय्या है कि पर्यटन को लेकर कुछ फूहड़ लोगों को कमाने-खाने का मौका दिया जाए, ऐसा ही होता रहा तो और चाहे जो कुछ हो जाए पर्यटन को बढ़ावा नहीं मिलेगा, हाँ कुछ लोगों की मौज का इंतजाम तो हो ही जाएगा.

लेखक अनेहस शाश्वत सुल्तानपुर के निवासी हैं और उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. मेरठ, बनारस, लखनऊ, सतना समेत कई शहरों में विभिन्न अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. घुमक्कड़ी, यायावरी, किस्सागोई और आरामतलबी इनके स्वभाव में हैं. इन दिनों वे लखनऊ में रहकर जीवन की आंतरिक यात्रा के कई प्रयोगों से दो-चार हो रहे हैं. उनसे संपर्क 9453633502 के जरिए किया जा सकता है.

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