Abhishek Upadhyay : पीहू की स्क्रीनिंग खत्म हुई और मैं अवाक सा लोगों के चेहरे देखे जा रहा था। देख रहा था कि जो तस्वीर मेरे चेहरे पर छपी है क्या वही दूसरे चेहरों पर भी है? मैंने फ़िल्म डिवीजन के उस हॉल में सांस रोककर खड़े चेहरे देखे। हाँ, चेहरे भी सांस रोकते हैं। उस रोज़ इस बात का भी एहसास हुआ। लगभग दो घण्टे की इस फ़िल्म का असर इतना गहरा था कि हर कोई सम्मोहित था। सम्बोधित था। स्तब्ध था। अवाक था। ये अभी अभी जो गुज़रा था, ये कोई सपना था! हक़ीक़त थी! ये क्या था? किसी की भी समझ में नही आ रहा था।
दो साल की मासूम बच्ची इतना प्यारा, इतना मौलिक अभिनय कर सकती है!!!! मैं खुद ये समझना चाह रहा था कि जो देखकर उठा हूँ, वो क्या वाकई एक फ़िल्म थी या फिर कोई रेशमी सा ख्वाब जो मेरी जागती हुई आंखें छूकर गुज़र गया!
इस स्क्रीनिंग से पहले ही पीहू कई अति सम्मानित राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म का हिस्सा बन चुकी थी। गोवा में आयोजित देश के सबसे प्रतिष्ठित इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल अवार्ड की पहली फ़िल्म होने का गौरव भी पीहू के नाम गया था। वहां भी फ़िल्म खत्म होने के बाद मैंने लोगों की प्रतिक्रियाओं का वीडियो देखा था। लोगों के चेहरे आश्चर्य मिश्रित सुख की लकीरों से भरे हुए थे। वे इस कदर अभिभूत थे कि अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए कुछ तलाशने से लगते। कुछ तो छूट रहा था जिसे वे सब कुछ कहकर भी नही कह पा रहे थे। मुझे ये एक अनिर्वचनीय सा सुख लगा। जिसे आप महसूस तो कर सकते हैं पर शब्द नही दे सकते। ये सुख हमारी रूह की बुनावट में गुंथा होता है। केवल बारीक, महीन भावनाओं के दो उजले हाथ ही इस तक पहुंच सकते हैं। इसे पा सकते हैं। ये एक भीतर की भूख होती है। जो सिर्फ सृजन करने वाले को ही नही, कुछ नया पाने देखने की आदी आंखों को भी उतना ही लालायित करती है। उतनी ही तृप्ति देती है। कुछ ऐसी ही तृप्ति उन आंखों में तैर रही थी जो ये फ़िल्म देखकर उठे थे।
फ़िल्म की कहानी इतनी मजबूत है और निर्देशन इतना सशक्त है कि फ़िल्म शुरू होते ही दो साल की मासूम बच्ची हमारे जेहन में उतर जाती है। वो अब ये करेगी! अब वो करेगी!! उफ़ उस फ्रिज के भीतर क़ैद हो गई!!! अब क्या? अरे वो गरम प्रेस!!! कोई रोक ले उसे!! और वो ऊंची इमारत की बालकनी पे चढ़ते दो नन्हे छोटे पांव!!!! हे राम!! अब क्या होगा!!! फ़िल्म देखते हुए कितनी बार मेरी सांस अटकी, कितनी बार कलेजा धक से हुआ, गिन नही सकता।
फ़िल्म के निर्देशक विनोद कापड़ी ने फ़िल्म नही बनाई है, बल्कि सिने पर्दे पर इमोशन्स की चित्रकारी की है। ब्रश इधर घुमाया, इस इमोशन की लकीर उभर आई। उधर घुमाया, वो इमोशन लहरा उठा। हर लकीर बीती लकीर से लंबी। हर रंग गुज़रे रंग से गाढ़ा।भावनाओं की कूची का हर छींटा सिनेस्क्रीन से परावर्तित हो, सीधा हमारे चेहरे पर छपाक से पड़ता हुआ। थोड़ी ही देर में दो साल की ये मासूम हमारे ज़ेहन पर कब्ज़ा कर लेती है और हमारी प्रौढ़ होती भावनाओं की लाठी बन जाती है। फिर वो गाइड करती है, हम गाइड होते हैं। वो चलाती है, हम चलते हैं। हमारी पुतलियों में उसकी नज़रेें घुल जाती हैं। वो दिखाती है और हम देखते हैं।
मेरा गर्व है कि विनोद जी मेरे संपादक रहे हैं। अतीत कब लौटकर वर्तमान की शक्ल में दस्तक दे दे, कोई नही जानता। पीहू आज 16 नवम्बर को सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है। ज़रूर देखिएगा। मेरा वादा है कि आप फ़िल्म देखकर अकेले घर नही लौटेंगे। पीहू भी आपके साथ जाएगी।
इंडिया टीवी समेत कई न्यूज चैनलों और अखबारों में वरिष्ठ पद पर कार्यरत रहे तेजतर्रार पत्रकार अभिषेक उपाध्याय की एफबी वॉल से.
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