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साहित्य

‘दरबार’ के विद्रोही लेखक श्रीलाल शुक्ल और उनका ‘राग दरबारी!’

अमरीक-

जन्मदिन विशेष : (31 दिसंबर) : हिंदी साहित्य की बाबत प्रतियोगी परीक्षाओं से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए होने वाले साक्षात्कार में अमूमन एक सवाल जरूर पूछा जाता है कि सदी के सर्वाधिक लोकप्रिय (हिंदी) उपन्यासों में कौन-कौन से नावल शुमार हैं। जवाब मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ से शुरू होकर कहीं न कहीं ‘राग दरबारी’ पर भी जरूर ठहरता है और फिर सूची आगे बढ़ती है। यानी ‘राग दरबारी’ को हिंदी की प्रतिनिधि साहित्यिक कृतियों में कालजयी का दर्जा हासिल है। श्रीलाल शुक्ल की कलम से निकली इस कृति पर आज भी आलोचनात्मक दृष्टि से बहस व चर्चा खूब होती है। तमाम निष्कर्षों के बाद अब यह मान लिया ही लिया गया है कि ‘राग दरबारी’ और उसके लेखक श्रीलाल शुक्ल के जिक्र के बगैर हिंदी उपन्यास की विकास यात्रा पर बात नहीं हो सकती। उनके प्रबल आलोचक (यहां तक कि ‘निंदक’ भी ऐसा मानते हैं)। ‘राग दरबारी’ की वजह से श्रीलाल शुक्ल को स्वतंत्रता के बाद के उपन्यासकारों में विशिष्ट स्थान हासिल है। कई पीढ़ियों तक फैले हिंदी साहित्य के पाठकों में विरला ही कोई ऐसा होगा जिसने ‘राग दरबारी’ न पढ़ा हो। ऐसे ही कथा साहित्य आलोचकों की पहली कतार के नामवर नामों के साथ है। यह उपन्यास किसी को अच्छा लगा हो या नहीं। साधारण लगा हो या असाधारण। लेकिन इसे पढ़ा जरूर गया और नोटिस भी विशेषतौर पर लिया गया। व्यवस्था का जमीनी यथार्थ उपन्यास के जरिए बयान करने वाले श्रीलाल शुक्ल को निसंदेह ‘राग दरबारी’ ने अमर कर दिया। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने इस रचना के जरिए भारतीय साहित्य में अपनी विशिष्ट जगह बनाई और समकालीन साहित्य का इतिहास जब-जब भी लिखा जाएगा, यकीनन श्री लाल शुक्ल और उनके राग दरबारी को यकीनन याद किया जाएगा। पूरे संदर्भों के साथ।

फिलहाल इस बहस से बचते हैं कि कतिपय आलोचक और समीक्षक हास्य और व्यंग्य में अंतर क्यों नहीं समझते लेकिन श्री लल शुक्ल को साहित्यिक इतिहास की सर्वाधिक प्रमाणिक धारा श्रेष्ठ व्यंग्यकारों की पहली कतार में रखेगी ही। ‘राग दरबारी’ और श्रीलाल शुक्ल एक–दूसरे से अलहदा नहीं किए जा सकते। कथाधारा के जरिए भारतीय शासन व्यवस्था में किसी कोढ़ की तरह हर कोने–अंतरे में फैले भ्रष्टाचार, विसंगतियों और विद्रूपताओं को बारीकी से समझना हो तो ‘राग दरबारी’ सबसे समीप और पुख्ता रचना है। कहते हैं कि भारत गांवों में बसता है और इस देश की मूलभूत संरचनाओं को समझना हो तो ग्रामीण लोकजीवन के विभिन्न रंगो और अंगों से वाकिफ होना अपरिहार्य है। श्रीलाल शुक्ल ने अपने कालजयी उपन्यास में यही किया है। ‘राग दरबारी’ दरअसल आजादी के बाद के भारतीय गांव के यथार्थ का असली चेहरा प्रस्तुत करता है। मुंशी प्रेमचंद के बाद फणीश्वर नाथ रेणु को उस परंपरा का सच्चा वारिस कहा जाता है और वह हैं भी। इसमें कोई दो राय नहीं ‘मैला अंचल’ जैसा महान उपन्यास लिख कर रेणुजी ने बखूबी बताया था कि देश को मिली आजादी सरासर अधूरी है और गांधी–नेहरू की अवधारणाओं से एकदम परे!

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एक तरह से उन्होंने शिद्दत के साथ बताया कि 1947 में सिर्फ सत्ता हस्तांतरण हुआ है। बदलाव अभी शेष और संभावना हैं। ‘मैला अंचल’ आंचलिक भाषा (मैथिली) में लिखा गया था और शायद यही वजह है कि बहुतेरे पाठक अपनी अपनी सीमाओं के चलते उसका पूरा पाठ नहीं कर पाते। बहुत सारी महान साहित्यिक कृतियों के साथ ऐसा होता है कि वह भाषागत वजहों से देर बाद संपूर्णता में खुलती हैं। ‘मैला अंचल’ के बाद भारतीय गांव का तत्कालीन यथार्थवादी चेहरा दिखाने वाला उपन्यास ‘राग दरबारी’ आया। यहां किसी भी लिहाज से रेणु और श्रीलाल शुक्ल की आपसी तुलना नहीं की जा रही। रेणु का ‘मैला आंचल’ आंचलिक था तो श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ ठेठ हिंदी में लिखा गया था। दोनों कृतियों की भी कोई तुलना हरगिज़ नहीं हो सकती। सिवा इसके कि दोनों उपन्यास निहायत यथार्थवादी नजरिए से लिखे गए थे और ग्रामीण भारत का सच ठोस धरातल पर आकर बताते थे। (यह शायद इसलिए भी संभव हो सका कि दोनों लेखकों में से एक राजनीतिक था और दूसरा प्रशासनिक अधिकारी)। सूक्ष्मता से देखा जाए तो अब भी क्या बदला है? सिर्फ रंग और ढंग बदले हैं। बाकी सब तो और ज्यादा बदतर ही हुआ है। उससे ज्यादा, जो ‘मैला आंचल’ तथा ‘राग दरबारी’ ने अपनी-अपनी समयावधि में दर्ज किया था। खैर, आज श्रीलाल शुक्ल का जन्मदन है और इसी बहाने उन्हें तथा उनके और बाद में पाठक विशेष वर्ग के अत्यंत प्रिय ‘राग दरबारी’ की बात करना ही प्रासंगिक है।

श्रीलाल शुक्ल हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के समकालीन थे। तीनों को वस्तुतः व्यंग्य लेखक के तौर पर जाना जाता है। बेशक तीनों की विचारधारात्मक पहुंच और रचनात्मक विषय वस्तु अलग-अलग थी। एकाधिक उदाहरण मिलते हैं कि हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ने राग दरबारी को विशिष्ट रचना का दर्जा देते हुए श्रीलाल शुक्ल को व्यापक हिंदी समाज का बेहतरीन लेखक बताया था। सर्वविदित है कि श्रीलाल शुक्ल महज व्यंग्य लेखक नहीं थे। अपने व्यंग्य की धार को महफूज किनारे रखते हुए उन्होंने ‘विश्रामपुर का संत’ और ‘सूनी घाटी का सूरज’ सरीखे उपन्यास भी लिखे व इस मिजाज की कहानियां भी। लेकिन जाने गए वह ‘राग दरबारी’ की वजह से।

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काल्पनिक गांव शिवपालगंज को केंद्र में रखकर उन्होंने यह उपन्यास लिखा। इसमें श्रीलाल शुक्ल ने समकालीन लोकतंत्र और व्यवस्था के बीच ग्रामीण तथा नगरिय समाज में, अंग्रेज हुक्मरानों के जाने के बाद पैदा हुईं कुछ नईं और तब से अब तक लगातार विस्तृत होती जातीं विसंगतियों को पकड़ा और सामने रखा। बतौर नौकरशाह वह भारतीय शासन व्यवस्था के अंग थे और इसलिए बखूबी जानते थे कि जंग (युद्ध नहीं) कहां-कहां लगी हुई है और परतों के नीचे असल में क्या है?

‘राग दरबारी’ का गांव शिवपालगंज गोया कथित आजाद भारत के हर इलाके में मौजूद है और और किसी न किसी रूप में उसके अहम पात्र वैद्य जी, मास्टर खन्ना, शनिचर, पंडित राधेलाल, बद्री पहलवान, रूप्पन बाबू और दारोगा जी। ये पात्र हमें (अभी भी) गांवों में ही नहीं मिलते। कस्बों और शहरों में तो मिलते ही हैं बल्कि लोकसभा, राज्यसभा तथा विधानसभा में भी बैठे मिलते हैं। लगभग हर राजनेता शिक्षा व्यवस्था की घोर बदहाली, ग्रामीण तथा शहरी निकायों में चप्पे-चप्पे पर फैले भ्रष्टाचार, सहकारिता की आवाम से शाश्वत दूरी, खाकी और खादी की असलियत और प्रशासन एवं सामाजिक संस्थाओं/व्यवस्थाओं की बात कहीं न कहीं, कभी न कभी जरूर करता है। उन्हें तथा उनके पैरोंकारों से लेकर सलाहकार–समर्थकों (जो थोड़ा-बहुत भी पढ़े–लिखे हैं) को मुफ्त की सलाह है कि उन्हें श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास ‘राग दरबारी’ एक बार तो जरूर पढ़ना चाहिए। शुक्ल के प्रशंसक बेशक इस कृति को बार-बार पढ़ते हैं। यही वजह है कि इस उपन्यास की आज भी रिकॉर्ड बिक्री होती है और थोड़े-थोड़े अरसे के बाद ही इसके नए संस्करण आ जाते हैं। बेशक ‘राग दरबारी’ का यह पहलू भी सदा प्रसागिक रहेगा कि उसमें (एक को छोड़कर/उसे भी शुक्ल जी की कलम ने चंद पंक्तियां ही दीं) महिला और मुस्लिम पात्र नहीं हैं। यकीनन यह एक बहसतलब पहलू है। जो उपन्यास को किसी अधूरेपन के करीब ले जाता है। क्या भारत का किसी भी राज्य का कोई गांव ऐसा है जहां महिलाएं और अहिंदू न हों! ,’अहिंदू’ को मुसलमानों के संदर्भ में ही पढ़िए। ऐसे में जानना जरूरी है कि श्रीलाल शुक्ला ने जब ‘राग दरबारी’ की व्यापक रचना के लिए ‘शिवपालगंज’ की कल्पना की तो उनके मन–मस्तिष्क में यह सब क्यों नहीं आया? इन पंक्तियों का लेखक पत्रकार है और नहीं जानता कि श्रीलाल शुक्ल से कभी यह पूछा गया होगा तो उनका क्या जवाब रहा होगा? लेकिन यह कमी और थोड़ा–सा असंतुलन ‘राग दरबारी’ की महानता में कुछ अड़चन तो डालता ही है! नहीं क्या?

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कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ के लेखक श्रीलाल शुक्ल का जन्म आज के दिन यानी 31 दिसंबर के साल 1925 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिले के एक कस्बे अतरौली के एक छोटे खेतिहर परिवार में हुआ था। उनका बचपन हिंदी के दूसरे ज्यादातर यथार्थवादी लेखकों की मानिंद घोर अभाव में बीता। जैसे तैसे उन्होंने प्रयाग मैं स्नातक की शिक्षा हासिल की। 1947 में पिता की मृत्यु के बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी आ गए और एमए करने के बाद यहीं से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। 1949 में वह राज्य सिविल सेवा का हिस्सा हो गए। विधिवत लेखन की शुरुआत 1954 में हुई। ‘सूनी घाटी का सूरज’ (1957) उनका पहला उपन्यास है। ‘राग दरबारी’ का प्रकाशन वर्ष 1968 है। 1970 में इस उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। ‘राग दरबारी’ की बदौलत प्रसिद्ध हुए श्रीलाल शुक्ला को सन 2008 में भारत सरकार ने पद्मभूषण दिया। पुरस्कारों की फेहरिस्त लंबी है। इसमें ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा व्यास सम्मान खासतौर से शामिल हैं।

‘राग दरबारी’ और ‘सूनी घाटी का सूरज’ के अतिरिक्त उन्होंने अज्ञातवास, आदमी का जहर, सीमाएं टूटती हैं, मकान, पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत, बब्बर सिंह और उसके साथी और राग विराग उपन्यास लिखे। उनके दस व्यंग्य निबंध संग्रह और चार कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। ‘बब्बर सिंह और उसके साथी’ उनका बाल उपन्यास है। इसके अतिरिक्त श्रीलाल शुक्ल ने कुछ संकलनों का संपादन किया। आलोचना की किताबें लिखीं और उनके संस्मरण भी पुस्तकाकार में आए। ‘राग दरबारी’का अनुवाद अंग्रेजी सहित अन्य 16 भारतीय भाषाओं में हुआ।

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जीवन को खुलकर जीने वाले श्रीलाल शुक्ल का जिस्मानी अंत 28 अक्टूबर 2011 को पार्किसन बीमारी से हुआ। हरिशंकर परसाई की मानिंद उन्हें भी स्वतंत्र भारत की बेखौफ आवाज कहा जाता है, जबकि इस पर कुछ एतराज इसलिए उठते हैं कि वह भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर हुए थे यानी व्यवस्था के अंग थे लेकिन इससे उनकी पैनी दृष्टि और ज्यादा पैनी हुई तथा वह ज्यादा प्रामाणिकता और पुख्तगी से अपने लेखन के लिए यथार्थ को और ज्यादा बीनने–छानने का काम बखूबी कर पाए। ‘राग दरबारी’ का यह नामचीन लेखक एक किस्म से ‘दरबार’ का विद्रोही दरबारी था!

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