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सुख-दुख

संकट होता है तब, जब आप किसी को ‘कल्ट’ बना देते हैं, जैसे रवीश भी कल्ट बना दिये गये हैं!

Sanjeev Chandan : रवीश कुमार को मैं भी पसंद करता हूं, उनकी पत्रकारिता को, उनके गद्य को। उनकी प्रतिबद्धता का भी कायल हूं, और उन्हें किसी भी पक्ष के द्वारा बुली किये जाने का सख्त विरोधी हूं। विरोध गाहे- बगाहे लिखकर भी प्रकट करता रहा हूं। लप्रेक के उनके प्रयोग से बहुत वास्ता न होते हुए भी उनके संग्रह की कुछ कहानियां मुझे बहुत पसंद है- खासकर डा. आंबेडकर की मूर्ति के पास प्रेमी-युगलों के संवाद वाली कहानी।

<p>Sanjeev Chandan : रवीश कुमार को मैं भी पसंद करता हूं, उनकी पत्रकारिता को, उनके गद्य को। उनकी प्रतिबद्धता का भी कायल हूं, और उन्हें किसी भी पक्ष के द्वारा बुली किये जाने का सख्त विरोधी हूं। विरोध गाहे- बगाहे लिखकर भी प्रकट करता रहा हूं। लप्रेक के उनके प्रयोग से बहुत वास्ता न होते हुए भी उनके संग्रह की कुछ कहानियां मुझे बहुत पसंद है- खासकर डा. आंबेडकर की मूर्ति के पास प्रेमी-युगलों के संवाद वाली कहानी।</p>

Sanjeev Chandan : रवीश कुमार को मैं भी पसंद करता हूं, उनकी पत्रकारिता को, उनके गद्य को। उनकी प्रतिबद्धता का भी कायल हूं, और उन्हें किसी भी पक्ष के द्वारा बुली किये जाने का सख्त विरोधी हूं। विरोध गाहे- बगाहे लिखकर भी प्रकट करता रहा हूं। लप्रेक के उनके प्रयोग से बहुत वास्ता न होते हुए भी उनके संग्रह की कुछ कहानियां मुझे बहुत पसंद है- खासकर डा. आंबेडकर की मूर्ति के पास प्रेमी-युगलों के संवाद वाली कहानी।

मेरे ख्याल से दो- एक बार तो जरूर मिला होउंगा, तब, जब वे स्टार नहीं हुए थे- एक बार संभवत: जेएनयू में, एक बार दफ्तर में। कई बार फोन या एसएमएस से संपर्क भी रहा- कुछ- एक दफा उन्होंने हिंदी विश्वविद्यालय में हमारे संघर्ष को कवर भी कराया। पिछली बार मावलंकर हॉल में ‘प्रतिरोध’ कार्यक्रम में देखा उन्हें विनीत कुमार के साथ, बगल से गुजरा, लेकिन या तो किसी जल्दी के कारण या सहज उत्सुकता न होने के कारण मैं उनकी ओर न बढ़ पाया। यह ठीक वैसा ही था, जैसे कल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर विनोद दुआ के साथ आगे- पीछे स्कलेटर पर चढ़ने के बावजूद टोकने की उत्सुकता न होना।

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संकट है, संकट होता है तब, जब आप किसी को ‘ कल्ट’ बना देते हैं। रवीश भी कल्ट बना दिये गये हैं, बन जाने का चुनाव शायद ही उनका हो। इसके पहले भी नामवर सिंह के साथ आपने यही किया था। नुकसान आपके सामने है- प्रगतिशील नामवर का सबकुछ आपको झेलना है। ऐसा क्या महान हो गया जब रवीश ने Swarn Kanta के बारे में लिखा! आप कनेक्शन तलाशने लगे। स्वर्णकांता डिजर्ब करती हैं। जिस मुद्दे ने उन्हें रवीश के ब्लाग ‘कस्बा‘ में लिखने का विषय बनाया, उस मुद्दे पर स्वर्णकांता खुद बीबीसी में बोल चुकी थीं- वे खुदमुख्तार हैं और प्रतिभाशाली भी। रवीश ने हिंदी की लड़कियों के रूप में उन्हें चिह्नित कर लिखा , मैं समझ नहीं पाया कि वे किस ऑडियंस को ऐड्रेस कर रहे थे।

खैर, रवीश का लिखना ठीक वैसा ही है, जैसा हिंदी या अन्य भाषाओं के दूसरे पत्रकारों का लिखना- हां प्रतिबद्धता का दायरा बड़ा है। लेकिन उनके लिखने ने स्वर्णकांता को परेशान भी कर डाला, एक पोस्ट लिखने को विवश । ऐसा क्यों होता है- ऐसा इसलिए कि आप स्क्रीन बौद्धिकता, स्क्रीन ऐक्टिविज्म से आक्रांत है। अन्यथा बीबीसी में अपनी बात कहकर स्वर्णकांता पहले ही लाखो ऑडियंस तक पहुंच चुकी थीं। स्वर्णकांता बीबीसी में लिखने के पहले भी स्वर्णकांता थीं,उसके बाद भी और ‘कस्बा’ का विषय बनने के बाद भी वे स्वर्णकांता हैं। बहुत हद तक अब वे मुक्ता ( उनका पहला नाम, जिससे अविनाश दास ने प्यार किया था) भी नहीं रहीं- वे स्वर्णकांता हैं।

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पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट संजीव चंदन की एफबी वॉल से.

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