सिद्धार्थ ताबिश-
तुर्की के मशहूर सूफ़ी गुरु जलालुद्दीन रूमी, जो कि उस समय इतने मशहूर और क़ाबिल मज़हबी मौलाना माने जाते थे कि उनकी इज़्ज़त वहां के राजा से भी अधिक थी.. बोध प्राप्ति से पहले रूमी मज़हब के वाद विवाद, धर्म प्रचार और धार्मिक शिक्षा के गुरु माने जाते थे.. अपने गुरु तबरेज़ से मिलने के बाद उनको जब बोध प्राप्त हुआ तो वो छह महीने से अधिक समय तक अपने कमरे के एकांत में बंद रहे.. उनके सैकड़ों शिष्य बाहर उनका इंतज़ार करते रहे.. और अंत मे जब वो बाहर निकले तब उनके शिष्यों ने उनसे मज़हब से जुड़े वही सब सवाल और जवाब करने शुरू किए जो वो हमेशा से करते थे.. वो सारे सवाल मज़हब, अल्लाह और इस्लाम की शिक्षा को लेकर होते थे..
रूमी हर सवाल पर चुप थे.. क्यूंकि बोध प्राप्ति के बाद वो सारे सवाल उनके लिए अब बेमानी हो चुके थे.. मगर शिष्य मान नहीं रहे थे.. अंत में जब नमाज़ का वक़्त हुवा तो शिष्यों ने आग्रह किया कि आप जवाब नहीं दे रहे हैं तो कम से कम अब नमाज़ के लिए मस्जिद तो चलिए हमारे साथ.. जिसके प्रयुत्तर में रूमी “गोल गोल नाचने” लगे और वैसे ही नाचते नाचते अपने कमरे की ओर जाने लगे और लोगों से कहा “यही मेरी नमाज़ है अब”
रूमी सिर्फ़ नाचते थे.. वैसे ही बुद्ध बस ध्यान करते थे.. बोध प्राप्ति के बाद रूमी ने अपने पुराने मज़हब से जुड़े हर कर्मकांड से किनारा कर लिया था.. बोध प्राप्ति के बाद वैसे ही बुद्ध ने भी पुराने किसी भी धार्मिक कर्मकांड में न तो कभी हिस्सा लिया और न ही उनके बारे कभी कोई बात की
मगर रूमी के जाने के बाद क्या हुवा? और जो हुवा वो क्यूँ हुवा?
रूमी के जाने के बाद उनके परिवार और बाक़ी के लोग उनके उत्तराधिकारी बने.. रूमी के जीते जी वो सब रूमी के साथ तो रहते थे मगर उनमे से किसी को भी “बोध” की प्राप्ति नहीं हुई थी.. रूमी को देख कर वो सब नाचने तो लगे थे मगर उस नाच के पीछे रूमी का मकसद क्या था वो ये लोग नहीं समझ सके.. आज भी तुर्की में रूमी के शिष्यों द्वारा रूमी के दर्शन पर आधारित कर्मकांड किये जाते हैं.. और इसे एक नयी सूफ़ी परंपरा का नाम दिया गया.. अगर आप वहां जायेंगे तो आपको नशिस्त में जाना होगा, फिर समां होगा, फिर विर्द , फिर ज़िक्र, फिर सूफ़ी डांस.. यानि गोल गोल घूमना.. मतलब जो कुछ भी रूमी ने कभी किया उसकी एक परंपरा बना दी गयी.. और अब इन सब कर्मकांडों में इस्लाम से जुड़े सभी प्रतीक इस्तेमाल किये जाते हैं.. यानि क़ुरान की आयतों से लेकर तमाम वो बातें जो आज के इस्लाम का हिस्सा हैं, वहां इस्तेमाल होती हैं.. रूमी पूरी तरह से अब इस्लामिक हो गए हैं
सोचिये थोड़ा कि अगर रूमी अपने परंपरागत धर्म को ही मान रहे होते और उन तमाम कर्मकांडों को मान रहे होते तो उन्हें नाचने की क्या ज़रूरत थी? वो चुपचाप नमाज़ पढ़ते रहते और बाक़ी कर्मकांड करते रहते.. चूँकि इस्लाम में इस तरह का कोई भी नया कर्मकांड इजाद करने कि इजाज़त नहीं है.. इसलिए रूमी ने जो भी किया वो कहीं से कहीं तक भी इस्लाम नहीं था.. वो उनका अपना “मत” था.. वो एक नयी परंपरा के वाहक थे.. वो पहले इस्लाम में थे मगर “बोध” प्राप्त होने के बाद वो पूरी तरह से अपने पुराने धर्म से मुक्त थे.. मगर उनके आसपास वाले इस बात को हज़म नहीं कर सके और उनके इस दुनिया से जाते ही उन्हें वापस खींच कर उसी पुराने धर्म में ले गए.. उनके सारे दर्शन को बाद के लोगों ने इस्लाम से जोड़ दिया और अब रूमी एक मछली पकड़ने के जाल जैसे हैं, जिनका सहारा लेकर इस्लामिक लोग तमाम भोले भाले पश्चिमी लोगों को “इस्लाम” की तरफ़ आकर्षित करते हैं
रूमी अब बस एक टूल हैं.. वो कोई सूफ़ी परंपरा नहीं हैं.. क्यूंकि अब कितना भी लोग गोल गोल घूमें, वो कभी बोध को प्राप्त नहीं होते हैं.. आप कितना भी उस सूफ़ी परंपरा का हिस्सा बन जाएँ, आप पहुंचेंगे कहीं नहीं.. जहाँ रूमी पहुंचे थे वहां आप कभी नहीं पहुंचेंगे.. अब रूमी डांस एक कर्मकांड भर है जिसका इस्तेमाल अब इस्लाम के आलिमों द्वारा किया जा रहा है.. और जब आप उस डांस से कुछ नहीं पाते हैं तब आपको ये बताया जाता है कि “देखिये, मिलेगा आपको सब कुछ उस परंपरा को मानने से जो रूमी का मूल थी, यानि इनका “इस्लाम” इसलिए आप इस्लाम के कर्म काण्ड, नमाज़ इत्यादि पर फोकस कीजिये” और ऐसे धीरे धीरे अंत में “रूमी के सूफीवाद” में गए लोग “इस्लामिक परंपरा” के वाहक बन जाते हैं और रूमी और तबरेज़ का असल दर्शन कहीं बहुत चालाकी से चुपके से दबा दिया जाता है
क्रमशः …. (जारी है आगे)
~सिद्धार्थ ताबिश