-अनिल सिंह-
ये शशि शेखर चौबे का लेख है, जिसमें लिखते हैं कि उम्मीद है कि टीआरपी पिपासु चैनल भटकाऊ, भड़काऊ बहस की जगह वास्तविक मुद्दों पर विचार करेगा.
यह पढ़ने सुनने में तो इतना अच्छा लग रहा है कि मेरा मन खट से इनको राज्यसभा भेज देने का कर रहा है, लेकिन जब आप ये जानेंगे कि टीवी से वास्तविक मुद्दों पर बहस की अपेक्षा करनेवाले इस महान क्रांतिकारी पत्रकार के संस्थान में पत्रकारों का कत्लेआम मचा हुआ है, इस मुश्किल वक्त में उनकी नौकरियां खाई जा रही हैं, बहुतों को मरने के लिए छोड़ दिया गया है, कितने पत्रकारों के बच्चों का स्कूल छूट गया, और ये तमाम चीजें इस महान पत्रकार के लिए वास्तविक मुद्दा नहीं है तो आश्चर्यचकित रह जायेंगे.
पत्रकारों के बेरोजगारी के वास्तविक मुद्दे पर यह पत्रकार नहीं लिख सकता क्योंकि इसके लिए राजपूत कंगना और ब्राह्मण रिया का मुद्दा बेरोजगार होते साथियों से ज्यादा बड़ा है. क्रातिकारी पत्रकार जिन मुद्दों से बचने की सलाह टीवी वालों को दे रहा है, खुद उसी मुद्दे पर लेख लिख रहा है. यह होती है हिप्पोक्रेसी.
क्या ये अच्छा नहीं होता कि यह महान पत्रकार अपने साथियों को निकाले जाने के खिलाफ अपने अखबार में संपादकीय लिखता या लेख लिखकर विरोध स्वरूप इस्तीफा दे देता?
पर ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि इस देश में क्रांति की अपेक्षा दूसरों से की जाती है. भगत सिंह हमेशा पड़ोस में चाहिए होते हैं. अपने साथियों के पक्ष में खड़ा होकर इतिहास बनाने की बजाय इस पत्रकार को लाखों करोड़ों का पैकेज बचाना ज्यादा जरूरी लगा, इसमें बुराई भी नहीं है, लेकिन इस पर प्रवचन देना भी उचित नहीं है.
आप दोगले हो तो दोगले दिखो, क्रांतिकारी मत बनो. और क्रांतिकारी बनो तो कीमत चुकाओ.
अनिल सिंह लखनऊ में दृष्टान्त मैग्जीन में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं।