Abhishek Srivastava : मुख्यधारा की एक लोकप्रिय फिल्म में अतीत में हुए किसी दंगे को लेकर जो कुछ भी मौजूदा माहौल में दिखाया जा सकता है, Shorgul उस सीमा के भीतर एक ठीकठाक व संतुलित फिल्म है। फिल्म का अंत बेशक नाटकीय है क्योंकि वास्तविक जि़ंदगी में ऐसा होता दिखता नहीं, लेकिन एक प्रेम कथा से उठाकर जलते हुए शहर तक आख्यान को ले जाना और उसमें निरंतरता बनाए रखना, यह निर्देशक की काबिलियत है।
शोरगुल देखते हुए मुझे पंकज कपूर वाली मौसम याद आ गई जिसमें एक प्रेम कथा को 1984 के दंगे से गुजरात के दंगे तक फैला हुआ दिखाया गया था। मौसम बड़े वितान की फिल्म थी, इसलिए उसका फोकस बिखर गया था। शोरगुल उसके उलट एक स्थानीय व अल्पकालिक प्लॉट पर बनाई गई है, इसलिए इसका कैनवास सीमित है। इंटरवल से पहले घुसाए गए कई बी-ग्रेड गानों ने इसे हलका कर दिया है।
फिल्म की एक उपलब्धि सलीम का किरदार निभाने वाले हितेन तेजवानी हैं, जिनकी बुलंद आवाज़ सुने जाने लायक है। कास्टिंग डायरेक्टर की दाद देनी होगी कि उसने वाकई आज़म खान से हूबहू मिलता आलम खान खोज निकाला, हालांकि आज़म खान के किरदार के साथ लेखक ने थोड़ी-सी बेवफाई ज़रूर की है। मुझे लगता है कि आज़म खान जैसे भी हों, वैसे नहीं हैं जैसा इस फिल्म में दिखाया गया है। मैं गलत भी हो सकता हूं। मेरी ओर से इस फिल्म को 10 में 5.5 अंक।
फिल्म समीक्षक अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.