Connect with us

Hi, what are you looking for?

साहित्य

बेहतर समाज के स्वप्न रचती सुभाष राय की कविताएं

सुभाष राय की कविताएं सच और सलीब दोनों की सही-सही पहचान करती हैं ।पोस्ट ट्रुथ के इस दौर में जहाँ सच और झूठ को अलगाना एक बड़ी चुनौती बन गया है, कवि की दृष्टि, सरोकार, वैचारिक दृढता और उनका पत्रकारीय व्यक्तित्व मिलजुल कर उस मनोगतिकी का निर्माण करते हैं जो झूठ पर चढ़ी सच सी लगती परतों को उघार देने में सक्षम है।

अपने कवि पर सुभाष राय को गहरा भरोसा है क्योंकि संग्रह की भूमिका में मेरे लिए कविता के मायने लिखते हुए वह कविता को अपने व्यक्तित्व का अविभाज्य हिस्सा मानते हैं-मैं जैसा भी हूँ, कविता के कारण ही हूँ ।कविता नहीं होती तो मैं वैसा नहीं होता, जैसा आज हूँ। कविता उनके व्यक्तित्व का निर्माण करती है इसलिए सुभाष राय के कवि और उनकी कविता के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं है।वह खुद को अपनी कविताओं में व्यक्त करते हैं… मेरा परिचय /उन अनगिनत लोगों का परिचय है /जो मेरी ही तरह उबल रहे हैं लगातार।

Advertisement. Scroll to continue reading.

हमारे समय के कवि को परिभाषित करते हुए तुर्की के इंकलाबी कवि निज़ाम हिकमत ने कहा था-असल कवि अपने प्रेम, अपनी खुशियों या अपने दर्द भर ही में महदूद नहीं रह सकता।ऐसे कवि की कविता में उसके जन को धड़कना चाहिए…सफल होने के लिए कवि ने अपनी कविता में संसार के जीवन पर रोशनी डालनी चाहिए। यह तय है कि जो कवि यथार्थ से बचता है और असम्बद्ध विषयों पर बातें करता है,उसकी नियति भूसे की तरह जल जाने के सिवा कुछ नहीं होगी।

सुभाष राय की कविताएँ पढ़ते हुये नाजिम हिकमत का यह वक्तव्य बतौर निकष मेरे सामने बार-बार आता रहा है। यह अकारण नहीं है कि सुभाष राय अपनी कविताओं में लगातार उन लोगों को याद करते हैं -जो धधकते रहते हों पृथ्वी के गर्भ की तरह /ज्वालामुखी बनने को आतुर /लावा से नया रचने को बेचैन /सूर्य को अपने भीतर समेटे, खौलते हुए।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सलीब पर सच की कविताएँ दुनिया को सुन्दर बनाने की परियोजना में लगे करोडों-करोड़ मेहनतकशों के हक में दृढ़ता से खड़ी हैं । ये उनके ही राग-अनुराग और बेचैनियों से पैदा हुई हैं। इन कविताओं को लिखते हुए कवि लगातार जिंदा लोगों की पडताल करता है -देखो,पड़ताल करो /कोई तो जिंदा बचा होगा /किसी की तो सांस चल रही होगी /कोई तो अपने लहू-लुहान पांवों पर /खड़े होने की कोशिश कर रहा होगा।

कवि को अपने शब्दों की ताकत पर गहरा भरोसा है बावजूद इसके कविताएं बेअसर क्यों होती जा रही हैं। बासी और कुम्हलाए फूल की तरह रंगहीन और निर्गंध। वे कोई हलचल पैदा करने में असमर्थ क्यों हैं। इन सवालों से हर युग का कवि जूझता है।कवि की कथनी और करनी में अंतर उसके कहे शब्दों के ठंडे और बेजान होते जाने का प्रमुख कारण है। कथनी मीठी खांड सी करनी विष की लोय कह कर कबीर ने इसे बहुत पहले पहचान लिया था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कवि सुभाष राय

कवियों ने मुंहजबानी बासन तो खुब घिसे, मुलम्मा छूट जाने की हद तक पर अपने ही कहे गये शब्दों को अपने आचरण में नहीं उतारा।सुभाष राय शब्दों के खिलाफ हुई इन साज़िशों से परिचित हैं और शब्दों की कमाई खाने वाले उन लोगों से भी जो शब्दों को कमजोर, कायर, डरपोक बनाने में जुटे हैं। कवि, साहित्यकार, प्राध्यापक, नेता, वकील, पत्रकार सब इसमें शामिल है। इसलिए शब्द चुप हैं। कवि फिर से इन शब्दों में जीवन भर देना चाहता है। यह शब्द और कर्म के बीच की दूरी को खत्म करके ही किया जा सकता है…. मुझे शब्दों के चुप /हो जाने की वजह पता है /मैं चुप नहीँ रह सकता /जो भी बोलना चाहते हैं /उन सबको आना होगा सडक पर /निकलना होगा दहकते रास्तों पर /शब्दों के लिए, शब्दों के साथ ।

सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना पाश की यह काव्य पंक्ति एक मुहावरे की तरह स्थापित है। सपने क्या करते हैं? कृत्रिम और यांत्रिक होते जाते जीवन में उनकी क्या भूमिका है? बाजारवादी-पूँजीवादी व्यवस्था को अपने अधिकाधिक लाभ के लिये युवाओं को रोबोट में तब्दील कर रही है। जिन्हें जितना कमांड दिया जाए उतना ही वह करें, पूरी तत्परता और परफेक्शन के साथ। स्वप्न और स्मृतियां इस लक्ष्य में बाधक हैं इसलिए लगातार सपनों का निषेध किया जा रहा है और स्मृतियां मिटाई जा रही हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

यह कार्रवाई पूरी मनुष्यता को एक ख़तरनाक और अंधी सुरंग की ओर ढकेल रही है। दरअसल सपने तरुणाई के उत्प्रेरक हैं जिंदगी के ड्राइविंग फोर्स हैं और तरुणाई ही बदलाव की वाहक है। इसलिए सपने बहुत जरूरी है। सपने गढते हैं नये रास्ते,नयी मंजिलें.. जो लीक छोड़कर चलते हैं अनवरत /अपने सपनों का पीछा करते हुए /सिर्फ वे ही गाड़ पाते हैं /नये शिखरों पर विजय के ध्वज /सपनों के पांव ही रौंद पाते हैं मंजिल को।

यह सपने ही कुछ नया सोचने और नया करने की ताकत देते हैं। खुद की स्वीकारी हुई जड़ता के विरुद्ध उठ खड़े होने का साहस भरते हैं। आधुनिकता और उससे पैदा हुए व्यक्तिवाद ने एक इकाई के रूप में मनुष्य की हैसियत में भारी इजाफा किया है लेकिन यह सामूहिकता की आदिम और नैसर्गिक इच्छा की कीमत पर है। यह यथास्थितिवादी व्यवस्था के हित मे भी है कि कोई काॅमन कान्शसनेस न बनने पाये जो उसके विरुद्ध हो।जबकि कबीर से लेकर मुक्तिबोध तक यह चिंता लगातार व्यक्त हुई है कि हमें बाहर निकलना होगा, अपने समानधर्माओं की खोज करनी होगी और उनसे मिलकर एक मजबूत साझा मोर्चा बनाना होगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अपने कमरे में अकेले गुणा-गणित करते रहने का कुल प्रतिफल सिफ़र ही है। इसके विपरीत विकल, बिखरे और निरुपित से लगते ये शक्ति के विद्युत कण यदि समन्वित हों जाएँ तो मानवता की जय को कोई रोक नहीं सकता। कोई विकल्प नहीं है और यह दुनिया यूँ हीं चलती रहेगी जैसे निराशाजनक निष्कर्ष हमारे बाहरी दुनिया से कट जाने के कारण उपजे हैं जिसे मास मीडिया ने राजनीति के तहत एक मात्र युग सत्य की तरह प्रचारित किया है। कवि इस बद्धमूल अवधारणा को तोड़ता है- मुझे यकीन है कि मैं बाहर निकालूँगा तो /आसमान में बादल छाएंगे, बरसेंगे /हवा तेज होगी और आंधी में बदलेगी। यह सिर्फ मौसम का बदलना नहीं है।

यह अजीब दौर है, जहां वक्त की ठीक-ठीक पहचान करना मुश्किल हो रहा है। सच और झूठ, नैतिकता और अनैतिकता तथा नायक और प्रतिनायक के बीच की विभाजक रेखाएँ बहुत क्षीण होती जा रही हैं। अपने ही कहे और लिखे से इंकार करते, सुविधानुसार पाला बदलते लोग हैं। ऐसे में सही व्यक्तित्व की पहचान कर पाना कठिन है। एक ओर लालच और लोभ है तो दूसरी ओर प्रलोभन के अनेक आॅफर भी मौजूद हैं। किसी भी लंबी लड़ाई मे लगे नायकों को पथ से विचलित करने के लिए अनेक ताकतें सक्रिय हैं। ऐसे विभ्रम के दौर में कविता सावधान करती है-सावधान रहना जब कोई भी साथ न हो /जब लालच और पाखंड के बवंडर मंडराने रहे हों /ताकि लड़ते हुए भी बने राय रह सको मनुष्य /मनुष्य की तरह मरकर भी झूठ के खिलाफ लड़ते रहोगे /भविष्य के हर युद्ध में खड़े मिलोगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सलीब पर सच को टांग दिया जाना खौफनाक है। सुभाष राय इसे देखते है और इस विडम्बना की पड़ताल करते हुए अंधेरे की तह तक की यात्रा करते हैं।इस यात्रा से प्राप्त निष्कर्षों को लिखते हुए शब्द कई बार घायल हुए हैं पर कवि को पता है शब्द जितनी बार घायल हुए उतने ही मजबूत होते चले गये इसलिए वह काले दिमागों को कविता में डिकोड कर सके हैं। आयतों और श्लोकों की धार से घायल लोगों की चीखें कविता में दर्ज हो सकी हैं ।हवा में डर और आदमी की धमनियों में पसर रहे जंगल की खामोश आहटों को पकड़ पाना किसी चुनौती से कम नहीं पर सही विचारधारा की रौशनी में लरजती शाम, कांपती सुबह और झनझनाती रातों में डरते-मरते आदमी की खौफज़दा शक्लें सुभाष राय की कविताओं में शरण पाती हैं।

चूँकि सुभाष राय पत्रकार हैं इसलिए देश -दुनिया में घट रही घटनाओं पर उनकी सतर्क नजर है।उनके पास गहरा विश्लेषण है और घटना की आखिरी तह तक जाने की सहूलियत भी है। देश उनके सरोकारों में प्राथमिक स्तर पर है इसलिये देश के वर्तमान को प्रभावित करने वाले इतिहास के अनुत्तरित प्रश्नों से वह एक तार्किक मुठभेड़ करते हैं। आजाद मुल्क की नींव को हिला देने वाली एक दुर्घटना के हवाले से वह उभरती साम्प्रदायिकता को रेखांकित करते हुए उसके हिंसक चरित्र को उजागर करते हैं। यही वे भेड़िए हैं जो मिलकर लोकतंत्र की चीर-फाड़ कर रहे हैं जिन्होंने गांधी के लहू से लिखी इबारत को खारिज कर दिया है। ये इबारतें सत्य, अंहिसा और साझेदारी की थीं जो सालों चले आजादी के आन्दोलन के दौरान एक समझदारी के रूप में पैदा हुई थीं, जिन पर अब गंभीर संकट है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मार्केज के जादुई यथार्थवाद का भारतीय संस्करण अद्भुत रूप से शक्तिशाली है। वह नित नये नैरेटिव रच रहा है।उसमें जादू है, नशा है एक सम्मोहन है। जो झूठ को सच की तरह स्थापित कर देता है। किसी हत्यारे को मसीहा में तब्दील कर देता है।और जन-विरोधी नीतियों की घोषणा पर जनता ही ताली बजाती है। सपनों का सौदागर देखते ही देखते देवदूत बन बैठता है।वह जनता के मनोमस्तिष्क पर कब्जा कर लेता है। सच और सपने तब गड्डमड्ड हो जाते हैं, आँखे बंद करते ही दिखने लगता है वह /वादों को पूरा करने का वादा करते हुए। … बार-बार सपने बेचते मसीहा फरेब की चादर /जनता पर फेंक कर निकल जाते हैं /कुछ और झूठे सपने गढ़ने।

सुभाष राय की कविताएँ इस इल्यूजन को चीर कर पाठकों को सही राह दिखाती हैं। वे बार-बार शब्दों से बाहर मोर्चे पर जाने की बात करते हैं । जैसा कि एक बड़ा दार्शनिक पहले ही कह गया है- शब्दों ने दुनिया की व्याख्या बहुत की है, सवाल उसे बदलने का है। सुभाष राय की कविताएं समाज को बेहतर बनाने में लगे लोगों की कविताएँ हैं जो न हारते हैं और न भागते हैं। कवि भी उन्हीं मोर्चों पर है -यातना, दर्द ,फरेब, वंचना से लडता हुआ..जाओ दोस्त, तुम्हें नजर आऊंगा /लड़ते हुए हमेशा तुम्हारे साथ /अपनी आखों में देखना मुझे /वे सभी होगें तुम्हारे साथ /जो हारते नहीं, जो भागते नहीं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सलीब पर सच / सुभाष राय

बोधि प्रकाशन, जयपुर

Advertisement. Scroll to continue reading.

मूल्य रु 120

लेखक अनिल अविश्रान्त राजकीय महिला महाविद्यालय झाँसी में असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.

Advertisement. Scroll to continue reading.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement