Nilotpal Mrinal : गाँव में हूं, पहले ये बता दूँ। रात का खाना है। पत्तल में खा रहा हूं। इसका कारण ये सब बिलकुल नही कि गाँव इंजॉय करना है, सादगी को योयो करना है या पर्यावरण के लिये पूरा घर क्रेजी है। इसका कारण ये भी नहीं कि शहर से बेटा आया है तो थोड़ा देशी टच चाहिए ऑसम फील के लिये। पत्तल में खाने का कारण है कि घर का कुआँ सूख चूका। अब इतना पानी नही कि घर के बर्तन बासन धुल सकें। सो ये एक असफल सी कोशिश है पानी बचाने की। हम सब जानते हैं कि इससे एक आध लीटर पानी दिन रात में बचा भी लिया तो क्या किया? और पत्तल में दो-तीन दिन से ज्यादा खाएंगे भी कि नही। मेरे घर शायद ये बड़ी दिक्कत भी न हो, कुछ कर के पानी जुगाड़ ही लेंगे।नही होगा तो खरीद के जी लेंगे। लेकिन कब तक?

सो आईये अब मूल बात पर। कविताओं में गाँव में अभी बसंत चल रहा,होली मना शहर लौट चूके प्रवासी ganv’z वालों की यादगार तस्वीरों में गाँव हरियाली और बसंती पीले पलास सरसों से सजा साथ साथ शहर लौट चूका होगा। अब गाँव में गाँव का संघर्ष अकेला है। धरती के नीचे पानी नहीं है, और ये हाल अभी चैत के ट्रायल बॉल वाले स्पेल का है। अभी बैसाख और जेठ का पूरा अगलग्गा ओवर बाकी ही है। आप अंदाज़ा लगाईये उस दृश्य का जब खेत की फटी मिट्टी के बीचों बीच चींटी कतार में कंकड़ ढोती रहेगी और वहीं बगल में सूखी नदी से बालू फाँक के आया कोई मवेशी दम तोड़ के उलटा होगा।
देश के भविष्य का चुनाव है। मैं जानता हूँ कि ऐसे महत्वपूर्ण समय में जब बात खून की हो रही हो और लोकतंत्र लहू मांग रहा हो, शायद ही किसी के पास पानी पे बात करने फुर्सत और जरुरत होगी। लोकतंत्र तो बिसलेरी पी के भी जी लेगा,लोक को पानी चाहिये,ये मामूली बात ऐसे पोस्ट से समझी जाय,औकात के बाहर है मेरे।चुनाव तो वैचारिक विमर्श मांगता है।अपना खैनी चूना रगड़ के किया हुआ विमर्श। मैं बस इतना जानता हूं, जमीन पर पिछ्ले 18-20 वर्षों से चुनाव में गाँव देहात घुमने का अनुभव है, छात्र राजनीति की बाल कक्षा से नही सीखी और देखी है राजनीति।
कक्षा नौवीं से गंभीर आवारगी की है, बजने वाले भोंपू और माईक के साथ। जानता हूं कि इस चुनाव की बेला में जब भरी दुपहरी में कोई प्रत्याशी सुदूर देहात में वोट मांगने भारी भरकम गाड़ी से किसी गाँव में किसी के दरवाजे पहुँचता है तो उसका पहला वाक्य होता है “थोड़ा पानी पिलवाईए”, गाड़ी में बिस्लेरी का स्टॉक होने के बावजूद। गाँव देहात में किसी के दरवाजे पानी पीना आत्मीयता का सबसे कारगार फार्मूला माना जाता है। पहले इससे संबंध जुड़ता था, अब वोट जुटता है।
राजा सदृश दुर्लभ दर्शनम चक्रवर्ती प्रत्याशी जब किसी गरीब गरुआ के दुआर पानी मांग लेता है तो ये सुदामा पर कृष्ण की कृपा होती है। गरीब धोती पकड़े बाल्टी ले दौड पड़ता है पानी लाने। उसके लिये यही लोकतंत्र की सौगात है, बड़ी बात है कि नेता जी हमरे जैसा गरीब के दुआरे पानी पिए। वो बाल्टी ले के दौड़ा गरीब आधे घन्टे में पानी ले के लौटता है। नेता जी पानी पीते हैं। पर आधी टूटी ग्लास रखने के बाद ये नहीं पूछते हैं कि इतनी देर कहाँ लगा दिए? कहाँ से लाये पानी?
गरीब खुद हँसते हुए क्षमा मूड में बताता है कि गाँव के बाहर नदी के पास से चुहाड़ी कोड़ पानी लाया है, इसलिए थोड़ा देर हो गया। नेता जी हंस के कहते हैं “वाह बड़ा मीठा पानी था, तब न बोले इतना मीठा पानी, नदी का था न, वाह, हमलोग को कहाँ नसीब ई मीठा पानी”… गरीब दांत चिहार देता है हाथ जोड़े हुए।
नेता जी उठते हैं। गरीब गरुआ का 8-9लोगों का समूह उनके पीछे गाड़ी तक आता है। एक तभी फुलपैंट पहना मैट्रिक थर्ड डिवीजन पास साहसी युवा गरीब बीच में से धीमी आवाज़ मे बोलता है “एक ठो चापानल करवा दीजिए नेता जी गाँव में, पानी का बहुत दिक्कत है।”
नेता जी गाड़ी का गेट लगाते हुए कहते हैं- “हाँ, बाप रे हर जगह पानी का दिक्कत है। अभी तो जबकि पूरा गर्मी बाकिये है। क्या जुग आ गया। पानी से भरा रहता था पहले गाँव का कुआँ, आंय, था कि नही।”
सब हाँ, हाँ में समवेत स्वर लहराते हैं। नेता जी की गाड़ी बढ़ चुकी होती है। तीन आदमी थोड़ा दौड़ के गाड़ी के पीछे झटक के जाता है। नेता जी ड्राईवर से गाड़ी धीरे करने का इशारा करते हैं और अपना मुड़ी निकाल कहते हैं- “अभी त आचार संहिता लग गया है। चुनाब के बाद जरा याद करबा दीजियेगा। मामूली चीज़ है, हो जायेगा चापानल।”
गाड़ी निकल जा चुकी होती है। न नेता जी को पता है न जनता जी को, कि पानी मामूली चीज़ नहीं है। जय हो।
पत्रकार और लेखक नीलोत्पल मृणाल की एफबी वॉल से.