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मेरी पत्रकारिता और सुनील दुबे जी : …सीवी भेजो और लखनऊ में आकर मैडम से मिलो!

-दिनेश पाठक-

मेरे पहले संपादक सुनील दुबे सर ने आज दुनिया छोड़ दी। वे बीमार थे। जैसे ही यह सूचना दोपहर में मिली। सहसा भरोसा नहीं हुआ। यह जानने के बावजूद कि वे इधर कुछ दिनों से अस्पताल में भर्ती थे और वेंटिलेटर सपोर्ट से हम सबके साथ थे। फिर चलचित्र माफ़िक बहुत कुछ सामने आने लगा।
ढेरों किस्से याद आ रहे हैं दुबे सर के। मेरी पहली मुलाकात नवंबर 1991 में हुई थी दिल्ली स्थित राष्ट्रीय सहारा के कनॉट प्लेस दफ्तर में। बोले 2750 रूपये मिलेंगे, नोएडा में जॉइन कर लो।

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मैंने जब नोएडा मना किया तो बोले दो महीने बाद लखनऊ में मिलना। फिर बात करेंगे। ठीक दो महीने बाद जनवरी 1992 में लखनऊ के संपादक होकर आए तो वायदे के मुताबिक मिले और काम भी दिया लेकिन पैसे कम होकर रह गए सिर्फ 1800 रूपये महीना। लखनऊ में किसी नए पत्रकार के लिए यह अच्छा पैसा था।

खैर, कॅरियर शुरू हुआ। बहुत कुछ सीखने को मिलता गया। पूरी-पूरी पाठशाला थे सर। कपूरथला पर अखबार छोड़ने के बाद डिवाइडर पर उनकी क्लास लगती तो कई बार सुबह हो जाती।

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समय आगे बढ़ा। मुझे दिल्ली की एक मैगजीन ने तीन हजार ऑफर किया। मैंने सर से पूछा। अलीगंज के घर में पराठा खिलाते हुए बोले प्यारे-अभी तुम्हें अखबार में काम करना चाहिए। मैग्जीन में नहीं। उनकी बात सही थी। कुछ महीने बाद उस मैगजीन के बन्द होने की जानकारी मिली तो सर की बात सटीक लगी।

मैं कुछ महीने बाद राष्ट्रीय सहारा में ही चीफ रिपोर्टर हो गया। वेतन हुआ 10 हजार महीना, साथ में और भी बहुत कुछ। हालाँकि, तब सर हिंदुस्तान जा चुके थे।

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लखनऊ का अखबार निकलना था। सुबह-सुबह फोन आया। क्लार्क चौराहे पर स्थित सुभाष प्रतिमा पर मुलाकात हुई मॉर्निंग वॉक पर। बोले-सीवी लाये हो। मैंने कहा-नहीं। अप्रैल-मई 1996 की बात है। बोले-कोई बात नहीं। हाथ से लिखकर दे दो। होटल में जाकर हाथ से लिखा और दे दिया। वहीं तनिक देर बार हिंदुस्तान, लखनऊ के पहले यूनिट हेड समीर गुहा से मिलवाया।

दिल्ली में अगस्त में इंटरव्यू के लिए बुलावा आया। अपने कई साथी गए थे वहाँ। मेरा छठवां-सातवाँ नम्बर था। अंदर पहुँचा तो वहाँ शोभना भरतिया जी, नरेश मोहन जी और दुबे सर थे। शोभना जी ने छूटते ही पूछा-लखनऊ में चारबाग से एक दिन में कितनी ट्रेन्स गुजरती हैं। मेरे मुंह से तपाक से निकला-मैम 84। सामने से फिर सवाल उछला-आर यू कॉन्फिडेंट। मैंने जवाब दिया-यस मैम। बोलीं-नाउ यू कैन गो। अब मैं कंफ्यूज। मेरी समझ में नहीं आया कि बाकी किसी ने कोई सवाल नहीं किया।

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खैर,मैं बाहर आया ही था कि पीछे से किसी ने बहुत जोर पीठ पर थपकी दी। पीछे मुड़ा तो दुबे सर थे। बोले-चलो तुम्हें किराया-भाड़ा दिलवा दूँ। क्योंकि मैडम बहुत खुश हैं तुमसे। बोलीं इस लड़के को जरूर रखना। उस जमाने में पहली दफा सेकंड एसी का किराया दिलवाया। कोई दो हजार के आसपास हिंदुस्तान ने दिया था हम सबको।

15 अगस्त 1996 के आसपास ऑफर लेटर मिल गया। 31 अगस्त की रात सहारा से इस्तीफा दिया। नींद आई नहीं। कुछ घण्टों की बेरोजगारी के बाद सुबह सुबह दुबे सर के गोमतीनगर स्थित घर पहुँच गया। देखकर चौंके-अरे इतनी सुबह तुम यहाँ? मैंने कहा-सर रात में 11 बजे इस्तीफा मंजूर हुआ और अब तक नींद नहीं आई। बोले क्यों?

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मैंने कहा कि डर लग रहा था सर कि हिंदुस्तान कहीं अपना ही ऑफर लेटर मना न कर दे। जोर से हँसे और कागज का एक टुकड़ा उठाकर बोले-लिखो इस पर और अभी से जॉइन मान लो। मैंने लिखा और सर ने तुरन्त एचआर को मेरा जॉइनिंग लेटर मार्क कर दिया।

मैंने 10 बजे वह पत्र ले जाकर एसबी अस्थाना को दिया, जो एचआर हेड थे। अब मन निश्चिन्त था। सर दफ्तर पहुँचे तो बोले तुम्हें एक वर्ष के लिए फैज़ाबाद जाना है। एक साल बाद बुला लेंगे। मुझे काटो तो खून नहीं।

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खैर, अब कुछ हो तो सकता नहीं था। मैं चल पड़ा। जब भी फैज़ाबाद आते, मैं याद दिलाता या मैं लखनऊ में मिलता तो याद दिलाता। लखनऊ में जगह बनने में वक्त लग गया लेकिन जैसे ही बना, तत्काल फोन आया। एक सीवी भेजो तुरन्त और कल सुबह आ जाओ लखनऊ। मैडम से मुलाकात होगी। मैडम मतलब श्रीमती शोभना जी, केके बिरला साहब की बेटी।

सीवी भेजकर मैं सुबह लखनऊ में अशोक मार्ग दफ्तर में हाजिर था। तीन बजे मेरा इंटरव्यू हुआ। मैं कंफ्यूज था कि तबादले के लिए मालकिन ने इंटरव्यू लिया। लेकिन वह दुबे सर का अपना तरीका था। मुझ समेत चार लोग मैडम के सामने पहुँचे लेकिन शाम को सर ने कहा-बधाई हो। मैडम ने तुम्हें लखनऊ बुलाने की अनुमति दे दी है।

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अब मैं लखनऊ में आ तो गया लेकिन अलग तरह की चुनौती फिर खड़ी थी। यहाँ मेरे इंचार्ज थे अनिल के अंकुर जी, जो सहारा में मेरी टीम में सेकण्ड मैन थे और यहाँ मैं उनकी टीम में अंतिम व्यक्ति था। दुबे सर को मेरी समस्या समझने में दिक्कत नहीं हुई।

बोले-तुम परेशान न हो। सब ठीक होगा। कुछ महीना ही गुजरा होगा। मेरा काम निखरता गया। मैं धीरे-धीरे अपनी जगह पर पहुँचता हुआ पा रहा था। एक दिन मीटिंग शुरू हुई और सर अचानक किसी बात पर गुस्सा हो गए। अंकुर जी से बोले-दिनेश पाठक को रजिस्टर दे दो। मुझसे बोले-काम दिया है। साबित करना पड़ेगा। जब तक मैं न कहूँ तब तक आप किसी से नहीं कहेंगे कि आप इंचार्ज हैं।

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15 दिन की परीक्षा के बाद सर ने कहा-अब से आप इंचार्ज हुए। लखनऊ हिंदुस्तान में वह दिन था और संपादक बनने तक बहुत सारी जिम्मेदारियां मिलीं लेकिन इंचार्जी न छूटी।

जारी…

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