Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

हिंदुत्व के पोस्टर व्वॉय रहे चर्चित लेखक-पत्रकार सुशोभित का BJP से मोहभंग, देने लगे मोदी-शाह को बददुवाएं!

Sushobhit

यात्रा

मेरे राजनीतिक लेखन की यात्रा उथल-पुथल से भरी रही है। इसमें मुझसे भूलें भी बहुत हुईं। आज बहुत सारे युवा राजनीतिक चिंतन की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। मैं अपनी यात्रा का एक संक्षिप्त विवरण यहां पर यही सोचकर प्रस्तुत कर रहा हूं कि शायद इसे पढ़कर उन्हें मेरे अनुभवों का लाभ मिले और यह उनके लिए उपयोगी सिद्ध हो।

मैं वर्ष 2010 में फ़ेसबुक पर अवतरित हुआ। आरम्भ के चार वर्षों में मैंने एक भी राजनीतिक पोस्ट नहीं लिखी। मैं अपनी कला, साहित्य, सिनेमा की दुनिया में रमा रहता था। आज भी बहुतेरे मित्र उसी लोक में मग्न हैं। यह उनकी मौज है। पोलिटिकल एम्बीग्विटी बनाए रखने से लाभ यह है कि आपको वाम और दक्षिण, दोनों ही वर्गों का स्नेह मिलता है और आप नाहक़ के विवादों से बच जाते हैं। मानसिक शांति बनी रहती है, सो अलग। किंतु मेरे भाग्य में तो यही लिखा था कि मानसिक शांति भंग होकर रहेगी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

वर्ष 2012 के उत्तरार्ध में मूर्धन्य पत्रकार श्री श्रवण गर्ग ने मुझे नईदुनिया के सम्पादकीय पन्ने का प्रभारी नियुक्त किया। यह मेरे लिए बड़ी चुनौती थी। श्री गर्ग जेपी क्रांति के समय से ही पत्रकारिता कर रहे हैं और एक ज़माना उन्होंने देखा है। वे पत्रकारिता की दुनिया में मेरे गुरु और अभिभावक रहे हैं, मेरे लिए सदैव प्रणम्य हैं। उनके सुदीर्घ अनुभव और राजनीतिक मेधा के सामने मेरी कोई बिसात नहीं थी। वे दोपहर दो बजे दफ़्तर पहुंचते और सबसे पहले मुझी को तलब करते। वे पूछते कि आज हम किस विषय पर सम्पादकीय लिखवा रहे हैं, उसमें हमारी लाइन क्या रहेगी और अग्रलेख कौन लिख रहा है। उनके सम्मुख जाने के लिए मैं सुबह से ही तैयारी में जुटा रहता। सभी प्रमुख अख़बारों के सम्पादकीय और लेख पढ़ लेता और ताज़ा ख़बरों पर नज़र बनाए रखता। इस तरह कला-साहित्य की दुनिया में रमने वाले सुशोभित का राजनीतिक प्रबोध हुआ और वह श्री गर्ग के साथ ही श्री रामचंद्र गुहा, श्री गोपालकृष्ण गांधी, श्री संजय बारू, श्री शिव विश्वनाथन जैसों के सजीव सम्पर्क में आया और उनसे संवादरत हुआ।

सितम्बर 2013 में भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी नामक व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया और भारत का लोकविमर्श कोलाहल से भर गया। सितम्बर 2013 से लेकर मई 2014 में लोकसभा चुनाव परिणाम आने तक का यह समय अत्यंत राजनीतिक गहमागहमियों का था। मैं इसमें आपादमस्तक संलिप्त हो गया। नरेंद्र मोदी एंटी-इंकम्बेंसी की पुकार बन गए थे। वे मतदाताओं को लुभा रहे थे। किंतु मैंने स्वयं को एक उधेड़बुन में पाया। मैंने देखा कि भारत की मुख्यधारा के लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी इस्लाम की बुराइयों पर एक संगीन चुप्पी साधे रहते हैं किंतु हिंदू धर्म की कुरीतियों पर बहुत मुखर होकर प्रहार करते हैं। मैंने अनुभव किया कि इसके प्रति आक्रोश की एक लहर समाज में भीतर ही भीतर बह रही थी और भारतीय जनता पार्टी उसे उभार रही थी। यह आवाज़ आगे चलकर कितनी कलुषित होने वाली है, यह तब किसी को अंदाज़ा नहीं था। तब आईटी सेल नहीं थी। सोशल मीडिया का प्रभुत्व भी नगण्य था। सोनिया गांधी के द्वारा गठित एनएसी को सुपर कैबिनेट कहा जाता था और उसमें वामपंथी झुकाव रखने वाले बुद्धिजीवी भरे पड़े थे। राजनीतिक जागरण के उस दौर में मेरा सहज ही झुकाव भारतीय जनता पार्टी की ओर हो गया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मुझे अपनी पहली राजनीतिक पोस्ट आज भी याद है। अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में धरना दिया था। मैंने इसके विरोध में आम्बेडकर को उद्धृत करते हुए इसे अराजकता के व्याकरण की संज्ञा दी। सभी चौंके। सुशोभित और राजनीतिक टिप्पणी? वह जो अज्ञेय, निर्मल वर्मा, काफ़्का, मोत्सार्ट, बेर्गमान की बातें करता नहीं थकता? किंतु वह तो आरम्भ ही था। 16 मई को जब लोकसभा चुनावों का परिणाम आया तो मैंने रोमांच का अनुभव किया। नरेंद्र मोदी के बड़ोदा में दिए गए विजय-भाषण को ध्यान से सुना। फ़ेसबुक पर पोस्ट लिखी- “क्या अब बौद्धिक उदारवादी इस अभूतपूर्व जनादेश को भी झुठलाएंगे?” चंद महीनों बाद फ़रवरी में हुए दिल्ली के चुनावों में बाज़ी उलट गई और आम आदमी पार्टी की शानदार जीत हुई। श्री रवीश कुमार उस जीत के सितारों में से एक बनकर उभरे, जिनके द्वारा भाजपा प्रत्याशी किरन बेदी के एक चर्चित साक्षात्कार ने “आप” के पक्ष में ज़बर्दस्त हवा बनाने का काम किया था। मैंने फ़ेसबुक पर लिखा- “हर 16 मई की एक 10 फ़रवरी होती है!” मैंने पाया कि मेरे इस पोस्ट को बौद्धिक उदारवादियों ने ज़ोर-शोर से शेयर किया। वे भारतीय जनता पार्टी की हार का जश्न मना रहे थे। मुझे बुरा लगा। मैंने इस बात को गांठ बांध लिया।

उसी साल यानी 2015 में बिहार चुनावों के परिणाम आए। भाजपा फिर हारी। लालू-नीतीश युति की विजय हुई। एक बार फिर उदारवादियों ने फ़ेसबुक पर उत्सव मनाया। मैंने रोष में आकर पोस्ट लिखी- “आप उस नीतीश कुमार की जीत का जश्न मना रहे हैं, जो अभी कुछ समय पहले तक भाजपा के गठबंधन सहयोगी थे। आपके अरमान कितने बौने हैं, उदारवादियो?” मैं धीरे-धीरे पोलिटिकल रैडिकलाइज़ेशन की ओर अग्रसर हो रहा था!

Advertisement. Scroll to continue reading.

वर्ष 2016 की शुरुआत एक मैरॉथन डिबेट से हुई। जेएनयू के एक पूर्व छात्र और कट्‌टर वामपंथी से मेरी वह बहस अनेक दिनों तक चलती रही। वह आने वाले समय में होने जा रही असंख्य बहसों में से पहली थी। मैंने पाया कि मेरे पास इस विषय का भरपूर ज्ञान नहीं है, किंतु मैं अपनी इस स्थापना पर अडिग बना रहा कि कम्युनिस्ट शासनतंत्र समानता स्थापित करने के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हत्या करता है। मैंने लीक नहीं छोड़ी। वह लम्बी बहस अनेक कटाक्षों और कुटिल प्रपंचों के बाद समाप्त हुई। मैं आक्रोशित हो उठा। वह पूरा साल फिर रोष में ही बीता। अगस्त में इस्लाम पर एक टिप्पणी करने पर मुझे फ़ेसबुक ने 24 घंटों के लिए ब्लॉक कर दिया। मैंने ब्लॉक खुलते ही तैश में आकर एक पोस्ट लिखी और मेरा समर्थन नहीं करने वालों को अपमानित किया। फ़ेसबुक पर 2010 से 2014 तक मेरा व्यवहार अत्यंत सौम्य था। अब मेरे उग्र और असंयमित व्यवहार से मेरे अनेक मित्र चौंके, कइयों ने मुझसे किनारा कर लिया। किंतु मुझे इससे कहां फ़र्क़ पड़ना था?

वर्ष 2017 में हिंदी के एक वरिष्ठ कवि ने सार्वजनिक रूप से मेरा अपमान किया। मैंने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। उनके विरुद्ध लम्बी पोस्टें लिखीं। मुझे भरपूर समर्थन मिला। उससे मैं और फूल गया। मुझे लगा सत्य की लड़ाई में लोग मेरे साथ हैं। जबकि वास्तविकता यह थी कि इसे वाम के विरुद्ध लड़ाई में दक्षिण का एक सशक्त प्रतिकार माना जा रहा था। दक्षिणपंथी मेरे समर्थन में लामबंद हो गए थे। संयोग की बात कि उसी दौरान फ़ेसबुक ने एक महीने के लिए मेरा अकाउंट बंद कर दिया। मैं बुरी तरह तिलमिलाया और अब स्वयं को “विक्टिम” की तरह प्रस्तुत किया। अपार जनसमर्थन मेरे पक्ष में उमड़ा। मैंने नया अकाउंट बनाया और तीन दिन में पांच हज़ार मित्र मुझे मिल गए। मैंने स्वयं से कहा, “वामपंथियों ने मेरा पांच हज़ार मित्रों का पुराना अकाउंट बंद करवा दिया तो मैंने मात्र तीन दिन में पांच हज़ार नए मित्र जोड़ लिए। यह मेरी निजी जीत है!” मैंने यह नहीं सोचा कि वे पांच हज़ार लोग कौन थे, और किस क़ीमत पर मेरा समर्थन कर रहे थे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आज पीछे लौटकर देखता हूं तो पाता हूं हर पोस्ट पर आने वाले दो-ढाई हज़ार लाइक्स और असंख्य टिप्पणियों से मेरा अहंकार तुष्ट होता था। इसी के वशीभूत होकर मैंने कई ऐसी भी बातें कहीं, जो लोकप्रियता के दबाव में आप कह जाते हैं। ये एक जटिल संदर्भ है। यह मेरे चरित्र में निहित नैतिक दुर्बलता को भी उजागर करता है। आशा करता हूं, अब मैंने उससे सदैव के लिए अपना पिंड छुड़ा लिया होगा।

जुलाई 2017 में मुझको हिंदुत्व का पोस्टर ब्वॉय मान लिया गया था, जबकि मैं तो अनीश्वरवादी था और स्वयं को हिंदू तक नहीं मानता था। बौद्धिक उदारवादियों पर मेरे प्रहार तीव्रतर होते जा रहे थे। मैंने इस विचार-क्रांति को आगे बढ़ाने का यत्न किया और अब वसुधैव कुटुम्बकम् के अभिप्रायों और हिंदू राष्ट्रवाद बनाम भारतीय राष्ट्रवाद पर बहस छेड़ी। मेरे दक्षिणपंथी समर्थकों को यह पसंद नहीं आया। उन्होंने तुरंत ही अपना विरोध जतला दिया। मुझको लगा, यह तो मैं सोने के महल में क़ैद हो गया। मैंने इससे असहज अनुभव किया। उसके बाद धीरे-धीरे स्वयं को इससे अलगाने का यत्न शुरू हुआ।

Advertisement. Scroll to continue reading.

वर्ष 2018 में विवाह संस्था पर एक पोस्ट लिखी। मुझ पर हिंदू राष्ट्रवादियों ने अपशब्दों की बौछार कर दी। मैं चकित हुआ। विवाह केवल हिंदू ही करते हैं, वैसा तो है नहीं, फिर हिंदुओं ने इसे व्यक्तिगत क्यों लिया? जिन शब्दों में उन्होंने मुझ पर प्रहार किया, उसने मुझे विचलित तो किया, दृढ़ भी बनाया। मैंने पाया कि मैं भले सिंधु सभ्यता पर लिखूं, गौतम बुद्ध पर लिखूं, या मुंशी प्रेमचंद पर ही क्यों ना लिखूं, हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक उसमें कोई ना कोई बिंदु अपने अनुकूल नहीं पाकर पोस्ट पर प्रलाप करते। मैंने सोचा कि यह तो असहिष्णुता की बड़ी कुसंस्कृति पनप गई कि ये लोग अपने विपरीत कुछ सुनने को ही तैयार नहीं हैं। इसकी परिणति तब हुई, जब मैंने गांधी जी पर लिखा। एक तरफ़ मैं गांधी जी की निर्मल चेतना और उज्जवल मेधा से साक्षात कर रहा था, दूसरी तरफ़ हिंदू राष्ट्रवादी इन्हीं गांधी जी के विरुद्ध मनगढ़ंत प्रलाप कर रहे थे और उन्हें अपशब्द कहते थे। इसने मेरे भीतर इस धारणा को बलवती कर दिया कि इंटरनेट पर हिंदू राष्ट्रवाद के नाम से एक कलुषित अपसंस्कृति स्थापित की जा चुकी है और ये आत्महीन भीड़ किसी की सगी नहीं है। ये केवल हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्रवाद और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में कहना-सुनना चाहती है, इसके पास किसी और दृष्टि के लिए जगह नहीं है। यह गहरे अर्थों में भारत-विरोधी वृत्ति है। जो इसके कुचक्र में धंसे हैं, उनका दम घुटता होगा। सजग चेतना वाले व्यक्तियों को तुरंत इससे स्वयं को पृथक कर लेना चाहिए।

इस प्रकार घोर वाम-विरोध से घोर दक्षिण-विरोध तक का यह चक्र पूरा हुआ। ना काहू से दोस्ती और सभी से वैर की यह यात्रा अहर्निश जारी है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस्लाम से मुझको जो शिकायतें हैं, वे आज भी अपनी जगह पर हैं। मैं आज भी बुरक़ा को स्त्री-स्वतंत्रता का हनन मानता हूं, सामूहिक पशुबलि को जघन्य पाप समझता हूं, इस्लाम में निहित अलगाववाद और कट्‌टरता के प्रति भी सहज नहीं हूं। किंतु इन बातों का विरोध करना एक बात है और हिंदू राष्ट्रवादियों के पक्ष में चले जाना दूसरी बात है। सभी स्वतंत्र चेतनाओं को इसके प्रति सजग रहना चाहिए। गांधी जी ने “हिन्द स्वराज” में कहा है कि किसी समुदाय में अगर बुराइयां हों तो लोकशिक्षण से ही वो दूर होती हैं। यह एक लम्बी धैर्यपूर्ण प्रक्रिया होती है। कटाक्ष और तिरस्कार की भाषा बोलने से तो उलटे वह समुदाय अपमानित ही होता है और हठी बनता है। सभी पक्षों को इससे बचना चाहिए। मैं स्वीकार करूंगा कि गांधी जी की विचार-प्रक्रिया के सम्पर्क में आने के बाद मेरे भीतर गुणात्मक परिवर्तन आया है। मैं इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद ही देना चाहूंगा।

आज झारखण्ड चुनावों के परिणाम आए हैं और भारतीय जनता पार्टी को हार मिली है। यह परिघटना देश के लिए शुभ है। मेरी मनोकामना है कि दिल्ली, बिहार, बंगाल के चुनावों में भी इस पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़े, ताकि इसके दम्भ, स्वेच्छाचारिता, संवेदनहीनता और ग़ैरज़िम्मेदाराना रवैये पर लगाम लगे और वह जनहित के कार्यों को करने की दिशा में प्रवृत्त हो। सरेआम झूठ बोलने वाले प्रधानमंत्री और अहंकार की भाषा बोलने वाले गृहमंत्री के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचना आज राष्ट्रहित में अनिवार्य हो गया है। भारत इस हिंदू राष्ट्रवाद से कहीं बड़ा है और भारतीय होना हिंदू या मुसलमान होने से श्रेयस्कर है, इसे हमेशा याद रखना चाहिए। किंतु अभी इतना ही। शुभमस्तु!

Advertisement. Scroll to continue reading.

आत्मनिवेदन

दुविधा के दो छोर हैं। एक तरफ़ हिंदू राष्ट्रवादी हैं, जो कहते हैं पाला बदल लिया। दूसरी तरफ़ बौद्धिक उदारवादी हैं, जो कह रहे हैं, देर आयद दुरुस्त आयद। अब जाकर अक़्ल आई। मुझे बड़ा कष्ट होता है। इस दुविधा का कोई क्या करे?

Advertisement. Scroll to continue reading.

हिंदू राष्ट्रवादियों से मैं कहूंगा, मैं तुम्हारे पाले में था कब? बौद्धिक उदारवादियों से मैं कहूंगा, आपसे किसने कह दिया मैं आपके पाले में आना चाहता हूं? पाला क्या होता है, मुझे यही नहीं पता। पाला पड़ता है, यह ज़रूर मालूम है। किससे पाला पड़ा है वाला पाला नहीं, हिमपात वाला पाला। अंत:करण में जम जाने वाला शीत।

मित्रों की विवशता है, या सोचने की सीमा है कि वो खेमों में ही सोचते हैं। आदमी स्वतंत्र होकर सोच नहीं सकता। सही को सही, ग़लत को ग़लत नहीं बोल सकता। उसका अपना विवेक नहीं हो सकता। उसे किसी पाले में ही जाना होगा, तभी वह स्वीकार्य होगा। नहीं तो जो अभी कल तक आपके गुण गाते थे, वो आपको गालियां देंगे। और जो अभी कल तक आपको दुष्ट समझते थे, वो सहसा आपके लिए सदाशय हो उठेंगे। मित्रो, ऐसे श्रेणियों में विभाजित होकर चीज़ों को क्यों देखते हो?

Advertisement. Scroll to continue reading.

एक व्यक्ति की सोच की अपनी एक यात्रा होती है। मैं समझता हूं, जब तक हम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों को ठीक से ना समझें, हमें किसी विषय पर टिप्पणी नहीं करना चाहिए। किंतु यह समय एक समझदार चुप्पी का नहीं है। फिर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों को जानने-समझने के लिए गहरा धैर्य, अध्यवसाय, जीवन भर का परिश्रम लगता है। तात्कालिक और फ़ौरी टिप्पणियां सोशल मीडिया की मांग है। इसमें दीर्घकालिक संदर्भ खेत रहते हैं।

ये भूलें मुझसे भी हुई हैं, किंतु भले क्रोध से कही हो, बदनीयत से अतीत में कोई बात नहीं कही, यह निश्चय है। ऐसा कहने से मुझको लाभ मिलेगा, यह चिंतन भी कभी नहीं किया। अब पीछे लौटकर देखता हूं तो पाता हूं कि कुछ बातें कहने में जल्दबाज़ी का परिचय दिया। कौन जाने, आज से पांच साल बाद यही बात मैं आज लिखी जा रही बातों के लिए कहूं। यह सम्भावना तो अपनी जगह पर हमेशा बनी रहती है ना। व्यक्ति कभी पूर्ण होता नहीं, सोच की यात्रा चलती रहती है। जबकि हमारा समय तो ऐसे लोगों से भरा हुआ है, जिन्होंने पहले ही वह जान लिया है, जो जानना चाहिए। उन्होंने अपने-अपने पाले चुन लिए हैं। व्यक्ति का मूल्यांकन वो इससे करते हैं कि यह हमारे अनुरूप है या नहीं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कुछ घटनाएं व्यक्ति के निजी जीवन में भी घटती हैं। क्रौंच वध को देखकर दस्यु आदिकवि बन जाता है। कलिंग युद्ध के बाद अशोक विचलित हो जाता है। सिकंदर विजेता की तरह नहीं मरता। नेपोलियन के अंतिम समय के एकाकीपन का कोई हिसाब नहीं है। प्रियजन की मृत्यु उद्दंड को भी कातर बना देती है। मनुष्य का अंतकाल पछतावों और आत्मचेतना से भरा होता है। सम्भव है मेरे जीवन में भी बीते एक साल में ऐसी कुछ घटनाएं घटी हों, जिसने चीज़ों को देखने का आयाम बदला हो। हो सकता है, इन विषयों पर इधर और गहरा मनन किया हो, कुछ नया पढ़ा हो, एक नई दृष्टि पाई हो, जिसके बाद अतीत में सोची गई बातें सतही लगने लगी हों। हो सकता है, अभी आप उसी यात्रा में हों, जिस यात्रा में अतीत में मैं था। जब तक आप मेरी स्थिति तक पहुंचेंगे, तब तक कौन जाने मैं कहां पहुंच जाऊं। किंतु एक बात तो निश्चित है कि यह एक यात्रा है, जिसमें हम निरंतर अपना परिष्कार करते हैं।

जो मैं इन दिनों लिख रहा हूं, वह सब लिखने के लिए मुझको कोई पैसे नहीं दे रहा, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है। मुझ पर किसी शासन या संस्था या नियोक्ता का दबाव नहीं है। दबाव से मैं मौन रह सकता हूं, किंतु कुछ लिख नहीं सकता। लिखता मैं स्वप्रेरणा से ही हूं और अपने शब्दों के लिए स्वयं को उत्तरदायी समझता हूं। किंतु जब कोई मुझ पर वैसा आरोप लगाता है तो इससे उसके चरित्र का पता चल जाता है। मैं मन ही मन यह दर्ज कर लेता हूं। कहता कुछ नहीं। किसी का नाम लेकर कभी प्रहार नहीं करता। किंतु अब मैं जानता हूं कि किस व्यक्ति की चेतना का स्तर क्या है, और मुझे उससे कितना दूर रहना है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

हिंदू राष्ट्रवादियों और बौद्धिक उदारवादियों, दोनों से मैं कहूंगा- ईश्वर ने मुझको इस धरती पर इसलिए नहीं भेजा कि आप जो सोचते हैं, मैं उसकी पुष्टि करूं। मैं यहां इसलिए आया हूं कि अपने स्तर पर सत्य का अनुसंधान कर सकूं, अपनी बुद्धि का परिष्कार कर सकूं, और रात को सोने से पहले स्वयं से कह सकूं कि आज मैंने अन्याय का साथ नहीं दिया। जिनके लिए उनके चुने गए पक्ष उनके अंत:करण से अधिक मूल्यवान हैं, उन्हें यह बात समझ नहीं आएगी।

एक तरफ़ से भरपूर गालियां मैंने इधर सुनीं, दूसरी तरफ़ से बड़े कटाक्ष भी सुने। किसी ने कहा, “नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली!” मैंने विनोद में उत्तर दिया, “जो पापी हो वही ना गंगा नहाने आएगा? आप आदेश करें तो वहीं लौट जाऊं, जहां से आया हूं?” किंतु वैसा कहकर मन उदास हो गया। किसी और ने कहा- “लौट के बुद्धू घर को आए।” पर मैं तो कहीं लौटा नहीं हूं, बंधु। मैं अपनी जगह पर ही हूं। मुझे लोकप्रिय होने के लिए किसी प्रपंच की आवश्यकता नहीं, उससे तो अपकीर्ति ही होती है। अपनी किताबें बेचने के लिए भी विवादों की आवश्यकता नहीं, उनकी अंतर्वस्तु स्वयं ही अपना पाठक खोज लेंगी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मुझे किसी मीडिया संस्थान में कोई पद नहीं चाहिए, उलटे मुझे प्रस्ताव दिया जाता है तो ठुकरा देता हूं। मुझे कोई स्पीच, ग्रांट, फ़ेलोशिप का लोभ नहीं है। मैं हिंदी साहित्य और मीडिया की मुख्यधारा में आज भी अनागरिक हूं, और हमेशा रहूंगा। मैं किसी बड़े लेखक या सम्पादक या प्रकाशक के सम्पर्क में नहीं हूं। मैंने किसी से यह वायदा नहीं किया है कि मैं केंद्र सरकार की नीतियों के विरोध में लिखूंगा, बदले में आपसे मुझे यह लाभ चाहिए। केंद्र सरकार राजधर्म की कसौटी पर स्वयं ही नाकाम है। मेरे बोलने न बोलने से फ़र्क़ नहीं पड़ता। किंतु मैं भी बोलना चाहता हूं और इससे तो कोई रोक नहीं सकता।

जब मैं कट्‌टरताओं का विरोध करता हूं तो एक का विरोध और दूसरे का समर्थन नहीं करता, सभी के लिए एक नियम रखता हूं। जब मैं न्याय-अन्याय की बात करता हूं, तो उसमें भेददृष्टि नहीं रखता। हर अन्याय को एक नज़र से लक्ष्य करता हूं। परिप्रेक्ष्यों का ही अंतर है कि अभी पखवाड़ा पहले जनेवि छात्रों के विरोध में लिख रहा था, अभी सरकार के विरोध में लिख रहा हूं। तब अलग बात थी, अभी अलग बात है- ऐसा भेद रखना मुझको मेरा विवेक सिखलाता है। हो सकता है मैं ग़लत होऊं किंतु मैं लिखने में बेईमानी नहीं करता। अपशब्द सुनने की मुझे आदत नहीं है। किसी भी सभ्य मनुष्य को नहीं होती। जो लोग मुझे अपशब्द कह रहे हैं और मेरे बारे में कुत्सित पोस्टें लिख रहे हैं, वे केवल अपनी चेतना के स्तर को ही उद्‌घाटित करते हैं। उससे मुझे हानि नहीं, उन्हें ही क्लेश होगा। किंतु एक बार अपने भीतर झांककर स्वयं से पूछ लेना चाहिए कि वो क्या कर रहे हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लोकविमर्श खेमों में बंट हो गया, यह एक उदास करने वाला दृश्य है। सबने अपने-अपने पक्ष चुन लिए हैं। वो एक की भरपूर निंदा करते हैं, दूसरे पर चुप लगा जाते हैं। मनुष्यता को इनसे हानि ही होगी। इकलौती उम्मीद वे स्वतंत्र बौद्धिक चेतनाएं हैं, जिन्होंने अपने विवेक और अंत:करण को किसी राजनीतिक दल, धार्मिक मत या जातीय आग्रह के हाथों गिरवी नहीं रख दिया है। मनुष्य का दायित्व अपने अंत:करण के प्रति है, किसी भी अन्य बाहरी उपादान के लिए अपनी निष्ठा सिद्ध करने के लिए वह बाध्य नहीं है। किंतु मुझे अपनी दृष्टिबाधिता से मुक्त कीजिये। मेरा निर्णय मत कीजिये। जजमेंटल होना बुरी बात है। यह आत्मनिवेदन करना मुझे ज़रूरी लगा सो कर रहा हूं। सम्भवतया यह अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा। इससे कुछ बदलेगा, यह तो अब आशा भी नहीं रखता। यही वस्तुस्थिति है। इति।

चर्चित युवा लेखक और पत्रकार सुशोभित की एफबी वॉल से.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement