Amrendra Rai–
बुधवार की शाम को यूं ही बैठा फेसबुक देख रहा था। अचानक यू ट्यूब देखने लगा। यू ट्यूब पर शैलेंद्र सक्सेना दिखे। गंगोत्री से आगे तपोवन और वहां के संतों के बारे में बता रहे थे। लौटकर उन्होंने गंगोत्री के दर्शन कराए और फिर गंगोत्री के संत सुंदरानंद जी का जिक्र किया। उन्होंने उस यात्रा के दौरान स्वामी सुंदरानंद जी से बातचीत के अंश भी वीडियो बनाकर डाले हैं। पूरी बातचीत करीब 40 मिनट की देख गया। रात को खाना खाकर जल्दी सो गया। ढाई बजे ही नींद पूरी हो गई और खुल गई। कुछ काम करना था उसे पूरा करने में लग गया। गुरुवार की रात भी खाना खाकर जल्दी ही सो गया।
आज शुक्रवार है। जल्दी सो जाने के कारण नींद जल्दी पूरी हो गई। आज थोड़ा और पहले उठ गया। दो बजे ही। सोने की कोशिश नहीं की। मोबाइल यूं ही खोल लिया। यू ट्यूब पर वही शैलेंद्र सक्सेना दिखे। स्वामी सुंदरानंद के ब्रह्मलीन होने का वीडियो डाला हुआ है। करीब आधे घंटे का पूरा वीडियो देख गया। पता चला कि बुधवार की रात दस बज कर 19 मिनट पर स्वामी सुंदरानंद ने अंतिम सांस ली। अब समझ में आया कि क्यों बुधवार को स्वामी सुंदरानंद से संबंधित वीडियो देखता रहा। ऐसा पहले भी एक बार हुआ है। जब मेरी आजी (दादी) की मृत्यु हुई थी तो मैं अपने ननिहाल में था। अचानक मन उचट गया। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो गया है पर मन कहीं लगे नहीं। अगले दिन सूचना आ गई कि आजी नहीं रहीं।
सुंदरानंद जी से एक अजीब तरह का रिश्ता था। मिला तो एक ही बार था, पर वो मेरे मन में ऐसे बसे हुए थे जैसे घर का कोई व्यक्ति हो। जब भी बात होती उनके बारे में इसी बोध से बात करता था।
बचपन से ही हिमालय और गंगा का उद्गम देखने की इच्छा थी। तब हम जानते भी नहीं थे कि गंगा का उद्गम गंगोत्री-गोमुख है। बस इतना पता था कि गंगा पहाड़ (हिमालय) से निकलती है। बड़े होने पर भी वह इच्छा बनी रही। 1990 के करीब दिल्ली से एक अखबार निकलता था संडे मेल। उसमें अपने कई मित्र काम करते थे। अखबार के साथ ही सप्ताह में एक दिन रविवार को एक पत्रिका भी होती थी। उस पत्रिका में एक बार अपने मित्र अनिल शुक्ल का लेख देखा। लेख टिहरी बांध को लेकर था। उस समय बांध के बनने न बनने, उसके हानि-लाभ को लेकर जोरदार चर्चा चल रही थी। उस लेख में स्वामी सुंदरानंद जी से टिहरी बांध को लेकर ही बात की गई थी। पर बताया गया था कि वे गंगोत्री में रहते हैं। उस लेख को पढ़ने के बाद मेरे मन में गंगोत्री जाने की इच्छा एक बार फिर प्रबल हो उठी। मैंने अनिल शुक्ल से बात की। स्वामी जी का पता और फोन नंबर मांगा। पर उनके पास नहीं था। तब फोन भी बहुत कम होते थे। उन्होंने इतना जरूर कहा कि स्वामी जी अच्छे और प्रगतिशील व्यक्ति लगे। तुम वहां जाओगे तो तुम्हारे रुकने की व्यवस्था वहीं हो जाएगी। गंगोत्री में किसी से भी पूछोगे उनकी कुटिया का पता चल जाएगा। इच्छा इतनी प्रबल थी और अनिल शुक्ल से बात करने के बाद उत्साह इतना बढ़ गया कि दफ्तर से छुट्टी लेकर गंगोत्री के लिए निकल पड़ा। गंगोत्री पहुंचा तो वहां मुरारी बापू की कथा होने वाली थी। तब होटल वहां बहुत कम थे और सारे आश्रम और धर्म शालाएं मोरारी बापू के भक्तों से भर गई थीं। रुकने का कहीं इंतजाम नहीं हुआ। अंतिम आश्रय ढूंढ़ते हुए सुंदरानंद जी की कुटिया पर पहुंचे थे। पर वहां भी स्वामी जी नहीं थे। वहां उनके गुरुभाई के शिष्य, जिसे वे अपना भतीजा बताते थे, थे। बड़ी मुश्किल से वहां उन्होंने मुझे ठहरने की इजाजत दी। मुझे अर्ध सत्य का सहारा लेना पड़ा। उन्हें यह विश्वास दिलाना पड़ा कि मैं स्वामी जी को बहुत करीब से जानता हूं लेकिन इस अंदाज में दिलाया कि वो ये समझें कि मैं स्वामी जी का बहुत करीबी हूं।
आश्रम में रुकने की जगह तो मिल गई पर स्वामी जी तीन-चार दिन बाद लौटने वाले थे। मेरी इच्छा थी कि स्वामी जी के साथ ही गोमुख जाउंगा। उनके भतीजे ने सुझाव दिया कि अगर आपको गोमुख जाना है तो जब तक स्वामी जी आएं आप गोमुख हो आइए। सुझाव ठीक लगा और मैं गोमुख हो आया। लौटकर आया तो स्वामी जी कुटिया में विराजमान थे। उनके भतीजे ने उन्हें बता दिया था कि आपके जानने वाले दिल्ली से आए हैं और गोमुख गए हुए हैं। पर ये तो मैं जानता था कि स्वामी जी से मेरी पहले कभी मुलाकात नहीं है। स्वामी जी के सम्मुख आते ही मैंने उनके दिल्ली में अनिल शुक्ल से मुलाकात और संडे मेल की मैगजीन में उनका इंटरव्यू छपने वाली बात बताई। यह भी बताया कि अनिल शुक्ल ने ही मुझसे कहा था कि जाकर स्वामी जी से मिलना। इसके बाद स्वामी जी ने इस बारे में मुझसे कोई बात नहीं की। बड़े अपनत्व भाव से पेश आए। उन्होंने तुरंत अपने भतीजे को कॉफी बनाने को कहा। दोनों देर तक कॉफी पीते रहे और बात करते रहे। गंगोत्री में शाम भी जल्दी होती है और रात तो और जल्दी ढलती है। मैं तो गोमुख से चलकर शाम होने से थोड़ा पहले ही वहां पहुंचा था। रात में खाना खाए और सो गए।
सुबह उठे तो देखा स्वामी जी नहीं हैं। उनके भतीजे ने बताया कि वो शौच के लिए बाहर गए हैं। स्वामी जी दो-तीन घंटे बाद लौटे। बताया ये उनका रोज का क्रम है। शौच के लिए पहाड़ पर चढ़ जाते हैं। आसपास घूमते रहते हैं। देखते हैं कोई पेड़ गिरने वाला होता तो उसे सीधा करके किसी चीज से बांध देते। पेड़ की जड़ों के पास गड्ढा खोदकर क्यारी बना देते ताकि बरसात का पानी वहां रुक सके और पेड़ तेजी से बढ़ सके। कभी-कभी उधर से एक घास ले आते और उसे आलू की सब्जी में डाल देते। हरी सब्जी के नाम पर वो घास ही वहां मिलती थी। बाकी आलू और सोयाबीन की सब्जी ही उपलब्ध होती।
स्वामी जी जब लौटे तो मैं उनके पास पहुंचा। स्वामी जी ने चाय को पूछा, मैंने बताया कि चाय पी ली है। कहा कोई बात नहीं। यहां ठंड बहुत है। और पी लो। उन्होंने अपने भतीजे को चाय बनाने को कहा। लेकिन जब उन्होंने पानी चढ़ाया तो कहा चाय की बजाय कॉफी बना लो। स्वामी जी को अपने बारे में बात करना ज्यादा पसंद नहीं था। वे अपने गुरु महाराज की महिमा से अभिभूत थे। हमेशा उन्हीं की महिमा का वर्णन करते रहते थे। कहते कि आज वो जो कुछ भी हैं उन्हीं की बदौलत हैं। अपने बारे में वे बहुत पूछने पर टुकड़ों-टुकड़ों में बात करते थे। वे आंध्र प्रदेश के एक गांव के रहने वाले थे। पढ़ाई पांचवीं या आठवीं तक हुई थी। वहां से विशाखापट्टनम, कोलकाता, बनारस, हरिद्वार, रिषिकेश और उत्तरकाशी होते हुए गंगोत्री पहुंचे थे। वे सन 1948 में गंगोत्री पहुंचे थे और तब से लगातार जाड़ा-गर्मी-बरसात हर मौसम में गंगोत्री में ही रहते थे। जबकि बाकी के संत जाड़ों में नीचे चले आते थे। उनके गुरु तपोवन महाराज थे। बड़े फख्र के साथ सुंदरानंद जी बताते थे कि उन्होंने ही मेहनत करके गुरुदेव के लिए ये कुटिया बनाई है। जब मैं उनके आश्रम में गया था तो तीन कमरे (झोपड़ी भी कह सकते हैं) थे। एक में सुंदरानंद जी रहते थे। जो थोड़ा ऊपर था। दूसरे में उनके भतीजे रह रहे थे। अपना बिस्तरा भी उन्हीं की बगल में लगा था। और तीसरा कमरा उसी के बिल्कुल बगल में था। उस कमरे में एकदम अंधेरा छाया रहता। स्वामी जी बताते कि उसमें साधना बहुत अच्छे ढंग से होती है। ध्यान अच्छा लगता है। बाहर से स्वामी जी से योग सीखने या उनका कोई आध्यात्मिक शिष्य आता था तो उसी कमरे में रहता था।
सुंदरानंद जी ने बातचीत में बताया कि जब वो शुरू में यहां आए तो रहने लायक कुछ भी नहीं था। उन्होंने खुद मेहनत करके गुरुदेव के लिए दीवार बनाई और छप्पर डाला। फिर अपने लिए बगल में एक झोपड़ी तैयार की। पहले दो ही कमरे थे। बाद में तीसरी झोपड़ी डाली। जब तक गुरुदेव रहे ऊपर वाले कमरे में रहते थे और मैं नीचे वाले कमरे में। गुरुदेव अपने कमरे में मुझे जाने नहीं देते थे। जब उनका शरीर थकने लगा तब साफ-सफाई के लिए मैं उनके कमरे में जाने लगा। गुरुदेव के शरीर छोड़ने के बाद भी लंबे समय तक मैं उनके कमरे में नहीं सोता था। दिन भर उनके कमरे के बाहर बने बरामदे में बैठा रहता और रात को जाकर अपने कमरे में सो जाता था। सालों बाद जब इस कमरे से ठीक से परिचित हो गया तब जाकर मैं इस कमरे में रहने लगा।
सुंदरानंद जी बताते थे- गुरुदेव तपोवन महाराज के दो शिष्य थे। एक बहुत ज्ञानी थे (शायद गणेशानंद नाम बता रहे थे) और दूसरा मैं। जब उनका अंतिम समय करीब आया तो विद्वान संत शिष्य ने पूछा, गुरुदेव मेरे लिए क्या आदेश है। गुरुदेव ने कहा, तुम ज्ञानी हो। अपना रास्ता खुद चुन सकते हो। वे चले गए। हरिद्वार में उन्होंने अपना आश्रम बनाया है। जिसे वे अपना भतीजा कहते थे यह उन्हीं का शिष्य है। उनके जाने के बाद सुंदरानंद जी ने गुरुदेव से पूछा कि मेरे लिए क्या आदेश है। गुरुदेव ने कहा हिमालय बहुत सुंदर है। तुम लोगों को बताओ कि हिमालय कितना सुंदर है। इसके कुछ समय बाद गुरुदेव तपोवन महाराज ने शरीर छोड़ दिया। स्वामी सुंदरानंद बताते हैं कि गुरुदेव के आदेश के बाद तभी से मैं हिमालय का भ्रमण करने लगा और लोगों को जाकर बताने लगा।
सुंदरानंद जी कहते थे जब मैं जाकर लोगों को बताता कि मैं हिमालय मैं अमुक-अमुक जगह पर गया और उसकी सुंदरता देखी तो लोग बहुत खुश होते थे। उनमें से कुछ लोग गंगोत्री आने और ये सब देखने की बात करते थे। उनमें से कुछ लोग आते भी थे। मुझे भी बड़ा अच्छा लगता कि गुरुदेव के आदेश का मैं ठीक से पालन कर रहा हूं। पर यह सब देखकर यहां के पंडे मुझसे जलने लगे। जो भी गंगोत्री आता पूछता सुंदरानंद जी कहां रहते हैं, वे मेरी निंदा करने लगते। वे लोगों से कहने लगे कि ढोंगी है। झूठ बोलता है। कहीं नहीं जाता। मन गढ़ंत बातें लोगों को सुनाता है। यह सब सुनकर मैं रोने लगता। गुरुदेव को ध्यान कर पूछता कि गुरुदेव अब मैं क्या करूं। आपने तो मुझे हिमालय के बारे में लोगों को बताने का आदेश दिया था और ये लोग मुझे झूठा कह रहे हैं। तभी किसी ने मुझे सुझाया कि आप यात्रा के दौरान अपने साथ कैमरा ले जाया करो। फोटो खींचो और लोगों को दिखाओ। तब कोई आपकी बात पर अविश्वास नहीं करेगा। इसके बाद मैंने कैमरा उठा लिया और फोटो खींचने से लेकर उसे डेवलप करने तक का काम सीखा। पहाड़ों पर चढ़ने में दिक्कत आती थी तो माउंटेनेरियरिंग का कोर्स किया। अब पहाड़ पर जाता, फोटो खींचता और फिर लोगों को दिखाता। स्वामी सुंदरानंद जी स्लाइड शो करते थे। वे परदे पर पहाड़ों के दृष्य दिखाते और सामने खड़े होकर कमेंट्री करते। वे ज्यादा पढ़े तो नहीं थे पर काम चलाऊ अंग्रेजी बोल लेते थे। कमेंट्री वो हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ही करते थे। ज्यादातर अंग्रेजी में। स्वामी जी की ख्याति और बढ़ने लगी। स्वामी जी तब आम लोगों के साथ ही प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और दूसरे प्रमुख लोगों के लिए भी स्लाइड शो का आयोजन करते थे। स्वामी जी की ख्याति बाहरी जगत में जितनी बढ़ती गंगोत्री के पंडे उनसे उतना ही जलते। पहले जहां उन् पर झूठ बोलने का आरोप लगा रहे थे अब उन्हें फोटोग्राफर बताने लगे। वे लोगों को स्वामी जी के यहां जाने से रोकने लगे। कोई पूछता तो कहते वहां क्यों जा रहे हो। वो कोई संत थोड़े ही है। वो तो फोटोग्राफर है। इसी चिढ़ में उन्होंने एक बार जब सुंदरानंद जी अपनी कुटिया में नहीं थे तो उनकी कुटिया का ताला तोड़कर उनके सारे निगेटिव गंगा में बहा दिए। सुंदरानंद जी वहां के पंडों के व्यवहार से तो दुखी रहते ही थे वहां के कुछ संतों को भी उनकी प्रसिद्धि रास नहीं आती थी। बता रहे थे कि एक बार गंगोत्री के लिए जीप पर आ रहे थे। आखिरी जीप थी। ऐन वक्त पर एक विदेशी पर्यटक आ गई। यह सोचकर कि कहां रुकेगी, महिला है, कुछ अनहोनी न हो, ड्राइवर से बात करके उसके लिए भी जगह बना ली। वह स्वामी जी के पास ही आगे की सीट पर बैठी। गंगोत्री जब उतरे तो किसी संत ने उन्हें देख लिया और चटखारे लेकर हालचाल पूछा। बाद में दूसरे संतों के बीच भी उन्हें बदनाम करने की कोशिश की।
सुंदरानंद जी की एक फोटो काफी मशहूर हुई थी। बादलों के बीच ओम लिखा हुआ था। सुंदरानंद जी बता रहे थे कि पता नहीं कहां जाने की योजना बनाई हुई थी। वहीं जा रहे थे। अचानक एक बड़ा सुंदर दृष्य दिखा। सोचा फोटो खींच लें। लेकिन जैसे ही क्लिक किया लगा बादलों ने वहां ओम का रूप धारण कर लिया। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि ये क्या हो रहा है। आगे की यात्रा मैंने स्थगित कर दी। तुरंत गंगोत्री की ओर लौट पड़ा। गंगोत्री में जब फोटो को डेवलप किया तो भरोसा नहीं हुआ। सचमुच बादलों में ओम लिखा हुआ था। कोई बता रहा था कि तब उनकी यह फोटो स्टेट्स मैन में छपी भी थी। उस फोटो को देखकर मुरारी बापू भी बहुत खुश हुए। गंगोत्री में उन्होंने अपनी कथा के दौरान सुंदरानंद जी का स्वागत किया था और उस फोटो के लिए एक लाख रुपये देकर सम्मानित किया था। सुंदरानंद जी तो उस फोटो के बारे में कहते थे इस फोटो के रूप में ही ईश्वर ने मुझे दर्शन दिया।
मैं सुंदरानंद जी के साथ गंगोत्री में चार-पांच दिन रहा। जाते समय जल्दबाजी में मैं अपने गरम कपड़े साथ ले जाना भूल गया था। वहां ठंड बहुत थी तो दिन भर कंबल ओढ़े रहता था। जब सुंदरानंद जी ने देखा तो अपना एक स्वेटर दिया। स्वेटर गेरुए रंग का था। पहनने में हिच तो हुई पर बाद में अभ्यस्त हो गया। सुंदरानंद जी ने उस दौरान कई बार मुझे खुद अपने हाथ से बनाकर खाना खिलाया। अपने भतीजे के लिए कहते थे ये रोटी मेरे जितनी अच्छी नहीं बना पाता। चलते समय ये भी पूछा कि तुम्हारे पास किराया है कि नहीं। मुझे लगा ये भी मुझे संत ही मान बैठे हैं। सुंदरानंद जी की एक ही इच्छा थी कि उनके फोटो की एक आर्ट गैलरी बन जाए। उन्होंने तब कहा भी था कि कुछ पैसे उन्होंने जोड़े भी हैं।
वहां से लौटने के बाद गंगोत्री और सुंदरानंद जी मेरे मन में बस गए। मैंने तब जनसत्ता, नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान में वहां के अनुभवों को लेकर लेख लिखे। उसके चार-पांच साल बाद मेरी गंगोत्री कथा सुनकर मेरे दो मित्रों- अनिल यादव और अनेहस शास्वत ने गंगोत्री जाने की योजना बनाई। तब दोनों मेरे अमर उजाला में सहयोगी थे। मैंने उनसे सुंदरानंद जी से मिलने को भी कहा। वे आए और मिले भी। उन्होंने भी गंगोत्री के पंडों को लेकर अमर उजाला में एक स्टोरी लिखी जिस पर बाद में हंगामा हुआ और वहां के पंडे अमर उजाला के मेरठ कार्यालय तक त्राहि माम करते हुए पहुंच गए। मेरा फिर कभी गंगोत्री जाना नहीं हुआ लेकिन मेरे दिलो दिमाग में गंगोत्री और सुंदरानंद जी हमेशा बसे रहे। 2017 में मेरी पुस्तक गंगा तीरे जब आई तो उसमें भी मैंने विस्तार से गंगोत्री, गोमुख और सुंदरानंद जी का वर्णन किया है।
कुछ महीने पहले एक बार फिर से सुंदरानंद जी की बहुत तेज याद आई। फेसबुक के जरिए ढूंढ़ा तो पता चला कि स्वामी जी की आखिरी इच्छा पूरी होने वाली है। उनकी आर्ट गैलरी बनकर तैयार हो गई है और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उसका उद्घाटन करने वाले हैं। तभी सुंदरानंद जी से जुड़े विशाल जी से संपर्क हुआ। उन्होंने बताया कि स्वामी जी अब जाड़ों में देहरादून में रहते हैं और गर्मियों में गंगोत्री। उन्होंने एक बार सुंदरानंद जी से मेरी बात भी कराई पर सुंदरानंद जी पहचान नहीं पाए। विशाल जी ने आग्रह किया कि आप आइए आपको देखते ही पहचान जाएंगे पर वह संभव नहीं हो पाया। और अब कभी संभव भी नहीं हो पाएगा।
वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र राय की एफबी वॉल से.