Nadim S. Akhter : मुस्लिम समाज पर तहलका की जिस स्टोरी पर माननीय Dilip C Mandal जी बलिहारी जा रहे हैं, उन्हें ‘मलाल’ है कि ऐसी स्टोरी वो क्यों नहीं सोच पाए-कर पाए, जो उनके हिसाब से अद्भुत है. उस स्टोरी में कई झोल और छेद हैं. पता नहीं, किस सम्पादक की नजर से गुजरकर ये स्टोरी छपी है. अगर मैं सम्पादक होता तो इस स्टोरी को ब्लॉक कर देता. कहता- पहले जाकर संबंधित पक्षों का वर्जन लेकर आओ, मुस्लिम समाज और उनके धर्मगुरुओं की राय लेकर आओ कि वे इस मामले पर क्या बोलते और सोचते हैं. मुस्लिम समाज के माइंडसेट पर पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह ने जो आपत्तिजनक टिप्पणी की है, उसे यूं ही नहीं छापेंगे. दूसरे पक्ष (मुस्लिम समाज) की बात भी उसी शिद्दत से और उतनी ही प्रमुखता से स्टोरी में जानी चाहिए, वरना स्टोरी एकतरफा हो जाएगी.
लेकिन तहलका के संपादक-रिपोर्टर ने मिलकर ये एकतरफा स्टोरी छापी है. पत्रकारिता का पहला और मूलभूत सिद्धांत है कि किसी विषय पर दोनों पक्षों की राय ली जानी चाहिए. लेकिन ये पूरी स्टोरी सिर्फ भूतपूर्व नौकरशाहों के निजी विचारों पर केंद्रित है. मुस्लिम समाज के आम लोगों, उनके प्रतिनिधियों और मुस्लिम धर्मगुरुओं से बात की ही नहीं गई है. यानी जिस मुस्लिम समाज की -दुर्दशा- पर ये स्टोरी की गई है, पूरी स्टोरी में उस समाज का पक्ष रखा ही नहीं गया है. ये पूरी तरह से अपूर्ण और एकतरफा स्टोरी है. पूर्व नौकरशाहों ने अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों के वशीभूत होकर जो जहर फैलाने वाली बातें कही हैं, जो झूठी जानकारियां दी हैं, उसे जस का तस लिखकर छाप दिया गया है. रिपोर्टर-संपादक ने ये जानना समझना जरूरी नहीं समझा कि ये अल्पज्ञानी नौकरशाह इस्लाम धर्म के बारे में जो बातें इतने आत्मविश्वास के साथ कह रहा है, वह प्रामाणिक हैं भी या नहीं. क्या वाकई में इस्लाम में ऐसा कहा गया है या ये सिर्फ संबंधित नौकरशाह का अधकचरा ज्ञान और पूर्वाग्रह है, जो ये ऐसी बातें बोल रहा है.
मैं एक बार फिर कह रहा हूं कि अगर मैं सम्पादक होता तो इस स्टोरी को होल्ड पर डाल देता. रिपोर्टर को पूरे तथ्य के साथ, सभी पक्षों की बात लेकर एक Complete story फाइल करने को कहता, तभी आवश्यक एडिटिंग के साथ ये स्टोरी छापी जाती. ऐसी स्टोरी लिख और छापकर तहलका वालों ने मेरे हिसाब से अपराध किया है. स्टोरी पढ़कर तो पाठक के जेहन में यही बात आएगी कि मुस्लिम समुदाय ही ऐसा है, उसी में खोट है, सो उसकी संवेदनशील जगहों पर पोस्टिंग नहीं होती, नियुक्ति नहीं होती. ये लोग देश के लिए नहीं, अपने मजहब के लिए जीते हैं. ये बात highly objectionable है. फिर इस्लाम धर्म के बारे में भी गलत जानकारी दी गई है और तुर्रा ये कि ये सब ऐसे लिखा गया है, मानो एकदम प्रामाणिक हो. स्टोरी में कहा गया है कि इस्लाम धर्म में ये छूट है कि अगर कोई इस्लाम छोड़कर दूसरे मजहब को अपना लेता है तो कोई भी मुसलमान उस व्यक्ति को जान से मारने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन इस्लाम में है ठीक इसके उलट. कुरान में कहा गया है कि -लाकुम दीनाकुम वालैयादीन. यानी तुम्हारा दीन-मजहब तुम्हें मुबारक, मेरा दीन-मजहब मुझे मुबारक. तुम शौक से अपने मजहब का पालन करो और मैं अपने मजहब का. हम साथ रहेंगे, इसमें कोई झगड़ा नहीं.
इस एकतरफा और विषैली स्टोरी ने पाठकों के दिमाग में मुस्लिम समुदाय के प्रति और ज्यादा negative feeling बनाने का काम किया है. आम पाठक तो इसे पढ़कर यही कहेगा कि मियां-कटुआ होते ही हैं ऐसे. देखों तभी उनको पुलिस-सेना-खुफिया एजेंसी में नौकरी नहीं मिलती. सारे रिटायर्ड अफसर यही बात तो बोल रहे हैं. शर्मनाक. नीचे मैं स्टोरी में लिखे उन वक्तव्यों को उद्धत कर रहा हूं, जो आपत्तिजनक हैं, मिथ्या फैलाने वाली हैं लेकिन इसकी काट में स्टोरी में संबंधित पक्ष की कोई भी राय नहीं दी गई.
1. “मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर यूपी के पूर्व पुलिस प्रमुख प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘सवाल ये है कि जब आप आधुनिक शिक्षा नहीं लेंगे तो जाहिर सी बात है सरकारी नौकरी या अन्य कई प्रतियोगी परीक्षाओं में नहीं आ पाएंगे. मान लीजिए थोड़ी बहुत आपने शिक्षा ले भी ली तो इस समुदाय के मनोविज्ञान में ये है कि हम सरकारी नौकरी और खासकर की पुलिस या फौज की नौकरी नहीं करेंगे. क्योंकि पुलिस या फौज की नौकरी करने के लिए आपको देश के प्रति अटूट देशभक्ति चाहिए. और आपको मर मिटना पड़े तो मर मिटने के लिए तैयार रहिए. ये कहते हैं कि ठीक है, हम बहादुर हैं. हम मर मिटने को तैयार हैं लेकिन हम इस्लाम के लिए मर मिटने को तैयार हैं. ये खुलकर कोई नहीं कहेगा लेकिन ये बातें इनके भीतर गहरी मानसिकता में है. तो ये पुलिस में आते नहीं, फौज में जाते नहीं. और उसके बाद कहते हैं कि हमारा प्रतिनिधित्व कम है. इनके रिप्रजेंटेशन को बढ़ाने की बार-बार चर्चा होती है लेकिन सवाल ये है कि वो पढ़ें तो. वो तो खाली कुरान पढ़ना चाहते हैं. तो हम क्या करें.’”
2. “हां ये एक तथ्य तो है ही कि मुस्लिम समुदाय के जो लोग हैं अगर उनसे पूछा जाए कि आपकी लॉयलिटी किसकी तरफ है – धर्म के प्रति या देश के प्रति तो मेरा अनुमान है कि वो हमेशा कहेंगे कि उनकी पहली वफादारी तो धर्म की तरफ है. सवाल फिर यहीं से उठता है.’
3. “बहुत से लोग आसिफ इब्राहिम को आईबी प्रमुख बनाने पर भी सवाल उठाते हैं. प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘आसिफ इब्राहिम आईबी के डायरेक्टर बनने के योग्य नहीं हैं. उन्होंने तीन आदमियों को सुपरसीड किया है जो उनसे योग्य थे. ये डायरेक्टर सिर्फ इसलिए बने क्योंकि वो मुस्लिम हैं.’
4. “प्रकाश सिंह मुस्लिम समुदाय की खुफिया और सुरक्षा संस्थाओं में अनुपस्थिति के लिए व्यवस्था के मुस्लिम विरोधी होने से ज्यादा खुद समुदाय को ही जिम्मेदार मानते हैं, ‘सवाल मुसलमानों के आईबी और रॉ में जाने का नहीं है. सवाल मुसलमानों के सरकारी नौकरियों में आने का है. मैं तो अपने व्यक्तिगत अनुभव से बता सकता हूं कि कई बार हम लोगों ने बहुत प्रयास किया कि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए यूपी पुलिस और पीएसी में. हालत ये थी कि इनकी सिफारिश करनी पड़ रही थी. अधिकारियों को मुस्लिम इलाकों में जा कर कहना पड़ता था कि भइया अपने लड़कों को भेजो तो सही. हम तो भर्ती करने को तैयार हैं.’”
(तो प्रकाश सिंह से ये पूछा जाना चाहिए कि कब-कब और कहां-कहां उनके अधिकारी मुस्लिम समाज में जाकर मनुहार करते थे, गुहार लगाते थे कि आओ, हमारी पुलिस में भर्ती हो जाओ और मुस्लिम लड़के नहीं जाते थे. हकीकत तो ये है कि आप पुलिस की एक पोस्ट भरने के लिए मुस्लिम इलाके में जाकर कह दीजिए, हजारों युवा लड़के उस नौकरी को पाने के लिए अगले ही पल लाइन में खड़े नजर आएंगे. प्रकाश सिंह की वाहियात बातों को तहलका ने कितनी बेशर्मी से छापा है)
5. “प्रकाश सिंह कहते हैं-मैं यूपीएससी बोर्ड में था तब जब भी कोई मुसलमान लड़का आता था तो हम कहते थे कि चलो एक तो मिला अरे इसे किसी तरह से धक्का देकर ऊपर चढ़ा दो. मैं आपको अपने अनुभव से बता सकता हूं कि उसको इंटरव्यू लेवल पर हमेशा बोर्ड की तरफ से मदद मिलती है. सवाल है कि अगर आप पढ़ेंगे नहीं तो कहां से हम आपको आईपीएस और आईएएस बना दें. आप सिपाही में भर्ती नहीं होंगे क्योंकि हमें देश की सेवा करनी पड़ेगी. हमको नक्सलियों से लड़ना पड़ेगा, हम क्यों लड़ें. हमें नॉर्थ इस्ट में लड़ना पड़ेगा हम क्यों लड़ें. हमें कश्मीर में पृथकतावादियों से लड़ना होगा, हम उनसे नहीं लड़ेंगे. जब ये चीजें आपके जहन में बैठी हुई हैं और फिर आप दोष देते हैं भारत सरकार को.’”
(अब कोई प्रकाश सिंह से पूछे कि उन्होंने कितने मुस्लिम लड़कों को यूपीएससी में एहसान जताकर और रहम खाकर ऊपर ठेल दिया और आईएएस-आईपीएस बना दिया)
पत्रकार नदीम एस. अख्तर के फेसबुक वॉल से. इस स्टेटस पर आए कुछ महत्वपूर्ण कमेंट्स इस प्रकार हैं…
Qamar Waheed Naqvi आपकी बात से सहमत हूँ. मुसलिम समाज का पक्ष ज़रूर लिया और रखा जाना चाहिए था. इन तमाम मुद्दों पर मुसलिम बुद्धिजीवियों, पूर्व पुलिस अफ़सरों और युवाओं का पक्ष लिया जाना चाहिए था. क़ुरान में क्या लिखा है, इस पर मुसलिम उलेमा ही अपनी राय दे सकते हैं. वैसे अकसर मैं उनकी राय से सहमत नहीं होता. जहाँ तक मैं समझता हूँ, भारत के मुसलमानों की युवा पीढ़ी आधुनिक और प्रगतिशील मूल्यों में विश्वास रखती है. यह स्टोरी बहुत बढ़िया हो सकती थी यदि इसमें मुसलमानों के बारे में कही गयी बातों पर मुसलिम समाज से बात करने के बाद निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश की गयी होती. हो सकता है कि प्रकाश सिंह जी जो कह रहे हों, वह उनके अनुभव हों. यह भी सही है कि इसमें दारापुरी जी जैसे कुछ लोगों के द्वारा कुछ बिन्दुओं पर जवाबी पक्ष भी रखने की कोशिश की गयी है, लेकिन फिर भी रिपोर्टर यदि मुसलिम समाज के कुछ प्रतिनिधियों से बात कर लेता, इसकी पड़ताल कर लेता कि आइपीएस की परीक्षा में कितने मुसलिम युवा बैठते हैं, उनका कुल प्रतिशत कितना है और उनमें से सफल होनेवालों का प्रतिशत कितना है, तो भी कुछ तथ्यों पर प्रकाश पड़ता. इसी तरह, कुछ मुसलिम युवाओं से बात कर यह जानने की कोशिश की जानी चाहिए थी कि क्या वास्तव में वह पुलिस या फ़ौज में नहीं जाना चाहते और अगर ऐसा है तो इसका कारण क्या है. कुल मिला कर यह कि यह स्टोरी कहीं ज़्यादा तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ हो सकती थी, अगर थोड़ी और मेहनत की जाती. हो सकता है कि सारे लोगों का पक्ष लेने के बाद भी प्रकाश सिंह की बात ही सही साबित हो गयी होती, लेकिन कम से कम यह तो होता कि दूसरे पक्ष से बात तो की गयी. पत्रकारिता का मूल सिद्धान्त है कि स्टोरी से सम्बन्धित हर पक्ष से बात की जानी चाहिए, समुचित तौर पर उन सबका पक्ष रखा जाना चाहिए, उसके बाद स्टोरी भले ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचे.
Shambhu Nath Shukla मैं कोई इस्लाम का जानकार तो नहीं पर Nadim S. Akhter की यह आपत्ति काबिले गौर है। रिपोर्टर संपादक को कोई भी स्टोरी, खासकर जब वह एक संवेदनशील मुद्दे पर हो, सारे पक्षों की बात तो सुननी ही चाहिए और इसके बाद ही स्टोरी छपने के लिए क्लीयर करनी चाहिए। एक बात और, Qamar Waheed Naqvi साहब और नदीम साहब ने जिस नई पीढ़ी के नए विचारों की बात की है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा नए नजरिए को भी दर्शाता है। हमारे दिमाग में इस्लाम की छवि एक कट्टरपंथी मजहब की बना दी गई है पर इन दोनों ही राय से लगता है कि शायद हम इस्लाम को बेहतर तरीके से नहीं समझते और न ही समझने की कोशिश करना चाहते हैं।
God_Shareef
September 8, 2014 at 7:06 pm
Tum sab tab kyun nahi bhaunkte jab har jagah dhamaake ka kaaran yehi quam nikal karr aati hai.
Jinn masoom maaon ka khoon behta hai, unn bacchon ki kilkaariyon mein mujhey tumhaari buddhiJeewi BAKWAAS NAHI CHAAHIYE.
Islam khud apne liye gadde khod raha hai.
दलपत
September 9, 2014 at 5:42 am
कुरआन में लीखी गई अच्छी बाते कोई मुसलमान नहीं मानता पर जो दुसरे धर्मो यानी काफ़िरो के बारे में लिखा हहै उसको सब सिद्दत से मानते है.मुझे शंका होती है,जहा मुसलमान 56 देशो में राज करते है वहा के मुसलमानों में आपस में अशांति का क्या कारण हे?और जहा इनकी संख्या जैसे ईराक में हाल में जो हो रहा है क्या वे सभी मुसलमान और कुरआन के अनुशार चलने वाले शांतिदूत है तो वहा खून खराबा क्यों हो रहा है? मुझे नहीं लगता वे शांति दूत है.इस्लाम को कट्टरपंथियों ने अपने कब्जे में कर अपने तौर तरीको से चलते है और उसी का परिन्नाम है की आज ये लोग शांतिदूत नहीं है.इतिहास भी यही बताता की ये लोग कभी शांतिप्रिय नहीं रहे है सत्ता के लिए ये जात धर्म सभी भूल जाते है .इसलिए ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की ये शांतिप्रिय लोग है?.कभी नहीं.