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उत्तर प्रदेश

यूपी उप-चुनावः सपा-भाजपा टक्कर में कुछ सीटों पर कांग्रेस का भी दबदबा

उत्तर प्रदेश में उप-चुनाव की जंग जीतने के लिये बसपा को छोड़कर सभी दलों का शीर्ष नेतृत्व अपने-अपने हिसाब से ताल ठोंक रहा है। कहने को तो मात्र 11 विधान सभा और एक मात्र लोकसभा सीट के लिये ही मतदान हो रहा है, लेकिन राजनैतिक माहौल ऐसा बनाया जा रहा है मानों उप-चुनाव में मिली जीत-हार से राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य बदल जायेगा। इस बात का प्रयास समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की तरफ से कुछ अधिक ही किया जा रहा है, जिनके पास खोने के लिये कुछ नहीं है और पाने के लिये बहुत कुछ है।

<p>उत्तर प्रदेश में उप-चुनाव की जंग जीतने के लिये बसपा को छोड़कर सभी दलों का शीर्ष नेतृत्व अपने-अपने हिसाब से ताल ठोंक रहा है। कहने को तो मात्र 11 विधान सभा और एक मात्र लोकसभा सीट के लिये ही मतदान हो रहा है, लेकिन राजनैतिक माहौल ऐसा बनाया जा रहा है मानों उप-चुनाव में मिली जीत-हार से राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य बदल जायेगा। इस बात का प्रयास समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की तरफ से कुछ अधिक ही किया जा रहा है, जिनके पास खोने के लिये कुछ नहीं है और पाने के लिये बहुत कुछ है।</p>

उत्तर प्रदेश में उप-चुनाव की जंग जीतने के लिये बसपा को छोड़कर सभी दलों का शीर्ष नेतृत्व अपने-अपने हिसाब से ताल ठोंक रहा है। कहने को तो मात्र 11 विधान सभा और एक मात्र लोकसभा सीट के लिये ही मतदान हो रहा है, लेकिन राजनैतिक माहौल ऐसा बनाया जा रहा है मानों उप-चुनाव में मिली जीत-हार से राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य बदल जायेगा। इस बात का प्रयास समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की तरफ से कुछ अधिक ही किया जा रहा है, जिनके पास खोने के लिये कुछ नहीं है और पाने के लिये बहुत कुछ है।

जिन 11 विधान सभा और एक लोकसभा सीट पर 13 सितंबर 2014 को चुनाव होना है, वर्तमान में उसमें से दस पर भाजपा का एक पर उसकी सहयोगी अपना दल का कब्जा है, जबकि लोकसभा की एक मात्र सीट मुलायम के इस्तीफे से रिक्त हुई है। यहां मुलायम की स्वयं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। भारतीय जनता पार्टी के लिये उप-विधानसभा चुनाव में किसी भी तरह अपनी साख बचाये रखना आसान नहीं होगा। विरोधियों ने तो अभी से घोषणा तक कर दी है कि भाजपा की हार का मतलब मोदी सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ गिरना माना जायेगा। सब जीत के लिये लड़ रहे हैं, यह तो स्वभाविक है, लेकिन इसके चलते तमाम दलों के नेताओं ने दागी-दबंग प्रत्याशियों को भी टिकट थमा दिया है जो उचित नहीं कहा जा सकता है।

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भाजपा के लिये राहत की बात यह है कि 30 महीने की अखिलेश सरकार जनता की कसौटी पर पूरी तरह से नाकाम साबित हुई है, वहीं तीन-साढ़े तीन महीने पुरानी मोदी सरकार के कामकाज से जनता संतुष्ट ही नहीं खुश नजर आ रही है। अगर दिल्ली का मुंह देखकर मतदाताओं ने वोटिंग की तो भाजपा का चुनाव में पलड़ा भारी हो सकता है। मोदी सरकार के कामकाज से जनता संतुष्ट है तो पिछले तीन महीनों में भारतीय जनता पार्टी ने अपना वोट बैंक और भी मजबूत किया है। दलितों को भाजपा के साथ लाने में वह काफी हद तक कामयाब दिखाई दे रही है। उप-चुनाव में दलित वोटरों को लेकर भाजपा काफी संतुष्ट लग रही है। वहीं समाजवादी पार्टी उम्मीद लगाये बैठी है कि अबकी से मुस्लिम वोट बंटेगा नहीं। अगर ऐसा हुआ तो सपा की लॉटरी खुल सकती है।

सपा की उम्मीद व्यर्थ नहीं है। बसपा चुनाव मैदान में है नहीं। कांग्रेस है भी तो अधूरे मन से चुनाव लड़ रही है। मैनपुरी लोकसभा सीट पर कांगे्रस ने अपना प्रत्याशी नहीं उतार कर मुलायम को वाकओवर दे दिया है, तो विधान सभा सीटों पर भी कांग्रेस के उम्मीदवार इस लिये दुखी हैं क्योंकि कांगे्रस आलाकमान ही नहीं उत्तर प्रदेश कांगे्रस के बड़े नेता भी चुनाव को लेकर ज्यादा रूचि नहीं दिखा रहे हैं। इसका कारण है कांग्रेस का चुनाव से पहले ही हार मान लेना। सोनिया और राहुल गांधी पहले ही प्रचार अभियान से तौबा कर ली है। इसी के चलते वह नैतिक रूप से इस स्थिति में भी नहीं है कि पार्टी के अन्य बड़े नेताओं को प्रचार अभियान में लगा सकें। कांगे्रस का कोई भी बड़ा नेता अपने सिर हाथ का ठीकरा नहीं फोड़ना चाहता है।

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कांग्रेसी उम्मीदवारों को उनके रहमो-करम पर छोड़ दिया गया है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कांग्रेस आलाकमान ही नहीं चाहता है कि उसके प्रत्याशी मजबूती के साथ मैदान में खड़े दिखाई दें। कांग्रेस एक तरफ चुनाव लड़कर यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि उसके हौसले पस्त नहीं पड़े हैं। दूसरी ओर वह सपा प्रत्याशी को जीतता हुआ देखना चाहती है ताकि भारतीय जनता पार्टी को सबक सिखाया जा सके। कांग्रेस प्रत्याशी जहां अपने दम-खम पर चुनाव जीतने की कोशिश कर रहे हैं वहां तो मुकाबला तिकोना दिखाई दे रहा है। अन्यथा सभी सीटों पर सपा-भाजपा ही आमने-सामने है। कहीं-कहीं पीस पार्टी जैसे छोटे-छोटे दल भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं।

बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश चार सीटों की की जाये तो सहारनपुर नगर जहां सबसे अधिक साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ा, वहां भाजपा-सपा और कांगे्रस तीनों को ही वोटों के धु्रवीकरण की उम्मीद है। भाजपा हिन्दू तो सपा मुस्लिम वोटरों के लामबंद होने की उम्मीद लगाये हुए है ।यहां भाजपा के राजीव गुंबर, सपा के संजय गर्ग और कांग्रेस के मुकेश कुमार के बीच त्रिकोणीय मुकाबला होते हुए दिख रहा है। तीनों ही ने पूरी ताकत लगा रखी है। बसपा किस निर्दल प्रत्याशी का समर्थन करेगी, इसके पत्ते उसने नहीं खोले हैं। पश्चिमी यूपी की बिजनौर विधान सभा सीट पर लड़ाई सपा-भाजपा के बीच सिमटती जा रही है। सपा ने रूचिवीरा को और भाजपा ने हेमेंद्र पाल सिंह को मैदान में उतारा है। कांगे्रस ने मुस्लिम प्रत्याशी हुमायूं को अपना उम्मीदवार बनाया है। हुमायूं समाजवादी पार्टी के लिये वोट नुचवा साबित हो सकते हैं।

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नोयडा विधान सभा क्षेत्र में टक्कर दो महिलाओं के बीच हैं। सपा ने यहां से अपने बाहुबली विधायक श्रीभगवान शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित की पत्नी काजल शर्मा को तो भाजपा ने विमला बॉथम को मैदान में उतारा है। काजल शर्मा को उम्मीद है कि उनके पति उनका बेड़ा पार लगा देंगे। जमीनी हकीकत देखकर कांग्रेस प्रत्याशी राजेन्द्र अवाना के सपने बिखर रहे हैं। उनके समर्थकों की सबसे अधिक नाराजगी यही है कि उन्हें चुनाव मैदान में अकेला छोड़ दिया गया है। मुरादाबाद जिले की ठाकुरद्वारा सीट को पाने के लिये भाजपा लम्बे समय से जतन कर रही है। यहां के दलितों को अपने पाले में खींचने के लिये ही भाजपा नेताओं ने मंदिर से लाउडस्पीकर उतारने के विवाद को खूब हवा दी थी। यहां वोटों का धुव्रीकरण साथ-साफ होते दिख रहा है, भाजपा की स्थिति यहां मजबूत नजर आ रही है तो इसका कारण है सपा और कांगे्रस दोनों ही के द्वारा मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट देना। यहां वोट भाजपा और सपा के बीच पूरी तरह से बंटते नजर आ रहे हैं।

बात पूर्वी उत्तर प्रदेश की बहराइच की बलहा और वाराणसी की रोहनियां सीट की की जाये तो इसमें से एक सीट पर भाजपा का और एक पर अपना दल का कब्जा था। जिन 11 सीटों पर मुकाबला हो रहा है, उसमें से उक्त दोनों सीटों पर सबसे अधिक और सबसे कम प्रत्याशी खड़े हैं। बलहा से मात्र पांच प्रत्याशी मैदान में हैं वहीं रोहनिया से सबसे अधिक 16 प्रत्याशी ताल ठोंक रहे हैं। बलहा सीट पर भाजपा का कब्जा था, यहां की विधायक सावित्री बाई के सांसद चुने जाने के बाद भाजपा ने चार बार के विधायक अक्षयवर लाल पर दांव लगाया है। सपा ने नामांकन से कुछ समय पूर्व बसपा छोड़कर आये वंशीधर बौद्ध को टिकट थमा दिया, जिससे सपा की जिला इकाई में आक्रोश दिखाई दे रहा है। फिर भी यहां मुकाबला सपा और भाजपा के बीच ही होता नजर आ रहा है।

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कांग्रेस ने पूर्व जिलाध्यक्ष श्यामता प्रसाद को प्रत्याशी बनाया है। रोहनिया सीट पर अपना दल का कब्जा था। अनुप्रिया विधायक थीं। उनके सांसद बनने के बाद इस सीट को अपने कब्जे में बनाये रखना अनुप्रिया के लिये बड़ी चुनौती बन गई है।भाजपा ने यह सीट अपना दल के लिये छोड़ दी है।अपना दल ने सोनेलाल पटेल की बेवा कृष्णा पटेल को, सपा ने राज्यमंत्री सुरेंद्र सिंह पटेल के महेन्द्र सिंह पटेल और कांग्रेस ने कुछ समय पूर्व बसपा छोड़कर आई डॉ भावना पटेल को टिकट देकर पटेल वोटरों की लड़ाई दिलचस्प बना दी है। वैसे तो यहां मोदी का प्रभाव होने के कारण  अपना दल का पलड़ा भारी लग रहा है, लेकिन भावना और महेन्द्र पटेल भी कोई कोरकसर नहीं छोड़ रहे हैं।

मध्य उत्तर प्रदेश की तीन सीटों कौशाम्बी जिले की सिराथू, लखीमपुर खीरी की निघासन और लखनऊ पूर्वी की सीट पर सबकी नजरें लगी हैं। सिराथू सीट पर भी सपा ने पुराने बसपाई पर भरोसा किया है। 2007 में यहां से बसपा के टिकट पर चुनाव जीतने वाले वाचस्पति पासी साइकिल पर चढ़कर अपना उद्धार करना चाहते हैं, लेकिन उनकी राह का रोड़ा बनने के लिये भाजपा के संतोष सिंह पटेल जाल बिछाये हुए हैं। भाजपा के जिलाध्यक्ष और पूर्व ब्लाक प्रमुख संतोष की अपने वोटरों पर अच्छी पकड़ है। निघासन सीट पर केवल सात उम्मीदवार हैं। भाजपा ने यहां पूर्व मंत्री रामकुमार वर्मा ओर सपा ने पूर्व विधायक कृष्ण गोपाल पटेल को प्रत्याशी बनाया है।

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पटेल पिछला चुनाव भी सपा के टिकट से लड़े थे। यहां पटेल और वर्मा के बीच मुकाबला होता दिख रहा है। सबसे अधिक रोचक मुकाबला लखनऊ पूर्व में हो रहा है। यहां भाजपा के बुजुर्ग नेता लालजी टंडन के पुत्र गोपाल टंडन और पूर्व आईएएस अखंड प्रताप सिंह की पुत्री जूही सिंह जो सपा के टिकट से मैदान में हैं के बीच मुकाबला लग रहा है। भाजपा ने पूरी ताकत लगा रखी है। लालजी टंडन के अलावा लखनऊ के सांसद और गृह मंत्री राजनाथ सिंह और यहां से विधायक रहे कलराज मिश्र जो अब देवरिया से सांसदी का चुनाव जीतकर मोदी सरकार में मंत्री हैं कि भी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। यहां भाजपा के बड़े नेताओं के बीच की गुटबंदी से जूही अपनी जीत को लेकर काफी उम्मीदें जगाये बैठी हैं जूही 2012 में यहां से कलराज मिश्र से हार गई थीं।

बुंदेलखंड की दो सीटों हमीरपुर और झांसी की चरखारी सीट पर भी 13 सितंबर को मतदान होना है। यह दोनों ही सीटें भाजपा के पास हैं। इसके अलावा इन सीटों की खास विशेषता यह है कि 2012 में दोनों ही जगह भाजपा की साघ्वी चुनाव जीती थीं। हमीरपुर से साध्वी निरंजन ज्योति और चरखारी से साध्वी उमा भारती विधायक थीं, अब दोनों ही सांसद हो गई हैं। हमीरपुर में मुकाबला त्रिकोणीय होता नजर आ रहा है। सपा के शिवचरन प्रजापति को जिताने के लिये सपा ने मंत्रियों की पूरी टीम उतार रखी है। प्रजापति यहां से तीन बार चुनाव जीत भी चुके हैं।

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भाजपा ने जगदीश प्रसाद और कांग्रेस ने केशव बाबू शिवहरे को अपना प्रत्याशी बनाया है। जगदीश अपना पहला चुनाव लड़ रहे हैं, वहीं शिवहरे पिछला चुनाव भी  कांग्रेस से ही लड़े थे। उमा के सांसद चुनने के बाद खाली हुई चरखारी सीट पर साध्वी उमा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। भाजपा ने यहां से गीता सिंह को तो सपा ने कप्तान सिंह राजपूत पर अपना भरोसा जताया है। कांग्रेस के रामजीवन मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने में लगे हुए हैं। भाजपा को लगता है कि लोध वोट उसक नैया पार लगा देंगे। यहां कुल छह प्रत्याशी मैदान में हैं।

 

लेखक अजय कुमार लखनऊ में पदस्थ हैं और यूपी के वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई अखबारों और पत्रिकाओं में वरिष्ठ पदों पर रह चुके हैं। अजय कुमार वर्तमान में ‘चौथी दुनिया’ और ‘प्रभा साक्षी’ से संबद्ध हैं।

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