मैं पिछले दो दिन से ओला वृष्टि प्रभावित फैजाबाद व अम्बेडकरनगर में आत्महत्या करने वाले अथवा सदमे से मरे किसानों के परिवारों से मिलने व जनपद में हुए नुकसान का जायजा लेने आया हुआ हूं। इन जनपदों का मैं ‘नोडल अधिकारी’ भी हूँ। किसान के साथ प्रदेश में जो छलावा हो रहा है, इसके बारे में अलग से फोटो के साथ लिखूंगा। जब मैं ऐसी गर्मी में गाँव-गाँव व खेत-खेत घूम रहा था, तो मेरे पास एक फोन आया कि आप उधर किसानों के दुःख दर्द बाँट रहे हैं, इधर लखनऊ में कल रात सत्ता की एक बड़ी हवेली में आपके खिलाफ षडयंत्र रचा गया है। उन्होंने बताया कि “आप के खिलाफ भ्रष्ट इंजीनियर विभाग के कुछ अधिकारियों को एक बड़ी हवेली में बुलाकर आपको बदनाम करने के लिए साजिश रची गयी। उनमें से कई भ्रष्ट इंजीनियर, जो आपकी सख्ती से कुपित थे व ‘आका’ के बुरे दिनों के साथी भी रहे हैं, ने आपके खिलाफ ‘आका’ की उपस्थिति व निर्देश पर एक शिकायती रिपोर्ट बनाई ताकि आप की छवि को ख़राब करते हुए प्रताड़ित किया सके, सबक सिखाया जा सके। उन्ही इंजीनियरों ने आपका ट्रान्सफर भी कराया गया था। उन्होंने ये भी बताया कि इन विभागों के राजनैतिक मुखिया भी बहुत ख़राब छवि के हैं, पता नहीं क्यों ‘आका’ उन्हें इतना मुंह लगाते हैं?”
मैंने कहा -ये क्या हो रहा है? आज ही मुझे अखबार से सूचना मिल रही है कि फेस बुक पर कुछ लिखने के लिए मेरा जवाब तलब हुआ है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी आईएएस अधिकारी को नोटिस देने से पूर्व ही अखबार में खबर दे दी जाये तथा यह भी लिखाया जाये कि माननीय मुख्यमंत्री मुझसे बहुत नाराज हैं। ये मुझे नोटिस नहीं अपितु बदनाम करने की साजिश या डराने के लिए किया गया कृत्य तो नहीं है? मेरा हाल ही में विगत दस अप्रैल को मीटिंग के बहाने बुलाकर भी एक हवेली के गेट पर खड़ा रख कर घोर अपमान किया गया था। यह मेरा अपमान नहीं अपितु पूरे आईएएस कैडर का अपमान था।
ऐसा मैंने क्या कर दिया, क्या मेरे जैसा अदना सा अधिकारी किसी के लिए चुनौती बन सकता है ? मेरी कोई राजनैतिक ख्वाहिश भी नहीं है। मैंने इतना परिश्रम कर देश-विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की है, मुझे कोई कुर्सी या पद का लालच भी नहीं है, नहीं तो मैं कदमों पर गिरकर, ये सब पद मांग लेता; जो आज कल बड़ी आसान सी बात है। मुझे रोजी रोटी भी ऊपर वाले की कृपा से मिल ही जाएगी। मैं कई अन्य की भांति रिटायरमेंट पाकर घर बैठ जाता, जो सभी करते हैं या फिर रिटायरमेंट के बाद बोलता/किताब लिख देता। मैंने पहले भी सर्विस में रहते हुए जन उत्पीड़न के खिलाफ हमेशा छोटी मोटी आवाज उठाई थी और आज भी यही कर रहा हूँ। हाँ, पहले राजनैतिक-शक्ति का इतना अहंकार व विकृत स्वरुप नहीं था।
यह भी सत्य है कि पहले मीडिया का इतना व्यापक स्वरुप भी नहीं था, न ही फेस बुक आदि था, इस लिए इतनी अभिव्यक्ति की न तो स्वतंत्रता थी और न ही ये सब कुछ दिखाई देता था। मुझे पता चला है कि हमारे एक ख्यातिप्राप्त आईपीएस साथी पर बलात्कार जैसे झूठे आरोप इसी समय में उनको सबक सिखाने व डराने के लिए एक विभाग के राजनैतिक मुखिया द्वारा लगवाए गए। अब शायद इस समय में यह सामान्य सी आदत हो गयी है। मैं फील्ड में घूमता रहता हूँ। अभी नक़ल रोको अभियान में काफी जनपदों का भ्रमण किया था। बड़ा डर व असुरक्षा का वातावरण था। मैं जब भी फील्ड में निकलता हूँ, जान हथेली पर रखकर निकलता हूँ। बहुत डराते हैं लोग मुझे। क्या मुझे 10 अप्रैल को मीटिंग के बहाने बुलाकर अपमानित करने की ही या फिर और कुछ बुरा करने की योजना थी, भय होता है सोचकर?
कई बार मुझे शंका होती है -क्या ये लोकतंत्र है या षड्यंत्र तंत्र या भय-तंत्र ? सत्ता की बड़ी हवेलियां ‘कल्याणकारी’ राज्य का प्रतीक होनी चाहिए, जहाँ गुहार लगाने वाले गरीब पीड़ितों को न्याय मिले; न कि किसी को कुचलने का षड्यंत्र रचने की काली कोठरियां। अब को कई वरिष्ठ नौकरशाह भी अपने कनिष्ठ निर्दोष अधिकारी को बचाने सामने नहीं आता अपितु ऊपर की हां-में-हां मिला कर अपनी वफादारी सिद्ध करने को आसानी से तैयार हो जाता है।
मैंने कोई पाप नहीं किया, कुछ ज्वलंत सामाजिक मुद्दे जन सामान्य के हित में ही तो उठाये हैं जैसे- नक़ल रोको अभियान चलाया, किसान का बेटा होने के नाते आत्महत्या कर रहे किसानों के मुआवजे का मुद्दा उठाया, इलाहाबाद में दिन रात पिट रहे छात्रों की भावनाओं की कद्र की, बालिका कुपोषण के विरुद्ध प्रोग्राम चला रहा हूँ, अपनी ही व्यवस्था पर कुछ विवशता पूर्ण हास्य-व्यंग करने की जुर्रत की, आदि आदि। क्या ये सब एक लोक सेवक द्वारा किया गया अपराध है? सूचना के मैनेजरों द्वारा मीडिया को यह सन्देश देना कि मेरे जैसे अदने से व्यक्ति की बातों को ज्यादा तवज्जो न दी जाये आदि आदि। ये सब भी क्यों, आखिर क्यों?
पहले इन बड़ी हवेलियों में इंजीनियरों, ठेकेदारों, बिल्डर्स, धनाड्यों, गंदे काम व गन्दी बात करने के लिए बदनाम लोगों का इतना खुल्लखुल्ला आना जाना कभी नहीं होता था। उच्च अधिकारी बिना रोक टोक के जरूरी पत्रावली फाइनल कराने या वार्ता करने कभी भी आ जा सकते थे। नियत मीटिंग के बाद भी गेट पर खड़ा रख कर अपमान जैसी घटनाएँ कभी नहीं होती थीं। शायद अब परदे के पीछे या मुत्फरिक कामों की व्यस्ताएं ज्यादा बढ़ गयी होंगी; या फिर मेरी समझ का फेर होगा? पता नहीं। काश कि ये सब कुछ सत्य न हो और कही-सुनी बातें भर हों !
वरिष्ठ आईआईएस सूर्य प्रताप सिंह के एफबी वॉल से