बचपन में कई हिन्दी फिल्मों में मजबूर आम आदमी, सच के पहरेदारों और ईमानदार चरित्रों को जालिम नौकरशाह, हैवान नेता और बिकी हुई पुलिस के हाथों मरते देखा है। तब केवल फिल्मों की कहानी समझकर 3 घंटे बाद भूल जाते थे । लेकिन आज हालात दूसरे हैं। फिल्में देखने की जरूरत ही नहीं है । रोजाना अखबारों के पन्ने, टी.वी, मोबायल की स्क्रीन पर नयी फिल्मों के चित्र और पहले से ज्यादा हिला देने वाली स्टोरी दिखायी देती है।
बस अन्तर इतना आया है कि फिल्मों में एक हीरो होता था जो अन्त में सब कुछ ठीक कर देता था । गुण्डे, भ्रष्ट नेता मारे जाते थे, पुलिस की वर्दी को दागदार करने वाले लोगों को आम जनता की भीड़ सड़क पर दौड़ा-दौड़ाकर नोच लेती थी । तब फिल्म देखकर लगता था अगर ये शैतान हकीकत में होंगे तो इनको मात देने वाली जनता भी अपनी आवाज बुलन्द करेगी । कुछ ईमानदार अफसर भी अपनी ड्यूटी निभाकर हैवान दोषियों को सलाखों के पीछे बन्द कर देगें । कुछ जिन्दा जमीर के नेता अपने होने का मतलब समझेंगे और मजबूर जनता के बीच सच के लिये आवाज उठाने वाले लोगों के साथ खड़े होकर राजनीति के गन्दे कीड़ों को दूर कर देगें । कुछ न्यायाधिकारी ऐसे भी होगें जो अंधे कानून की पट्टियों को हटाकर खुली आंखों से दिख रहे सबूतों से न्याय की जीत करेगें । और अगर ये भी ना हुये तो मीडिया नाम की एक चिडि़या होगी जो दूध को दूध और पानी को पानी बतायेगी । जनता की आवाज दबेगी नहीं, नोटो के बण्डलों पर भी चढ़कर कैमरा चलेगा और सच्चाई सामने आयेगी।
मगर अफसोस, ये सब उन पुरानी हिन्दी फिल्मों की कहानियों में ही होता था । हकीकत की फिल्म उनसे बहुत अलग है । यहाँ वो खून पीते, अत्याचार करते खूंखार विलेन तो हैं लेकिन उनसे लड़ने वाले हीरो नहीं हैं। भ्रष्ट, बदमाशों, अत्याचारियों से आक्रोशित होने वाली निडर जनता नहीं है। निर्दोष की गर्दन कुचलकर मंत्री जी को खुश करने वालों से लेकर अपराधियों से भी बड़े अपराध करने वाले पुलिस अफसर तो हैं लेकिन खून देकर वर्दी की लाज रखने वाले नही हैं । कमजोर कानून और पैसे की पैरवी से छूटते बड़े नेता-अभिनेताओं के चरित्र तो आज भी हैं लेकिन न्याय के लिये आखें बन्द करने वाले वो लोग नहीं है जिन्हें विद्वान कहते हुये गर्व से मस्तक ऊपर हो जाये ।
अफसोस इस पर भी ज्यादा है कि सच्चाई की पहरूआ वो आखें भी बन्द सी हैं जो जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाले बेकसूरों पर हुई यातनाओं और दौलत के चश्में बांटते नेताओं, अफसरों की कारस्तानी पर दो शब्द लिख-बोल सकें। रोज बिगड़ते हालातों से टूटती उम्मीद बस इत्ता सा सवाल पूछती है कि जिन कन्धों पर आवाज उठाने की जिम्मेदारी है वो अपने एक साथी की मौत पर भी खामोशी कैसे ओढ़ लेते हैं ।
उ.प्र. में हिन्दी फिल्में सच साबित हो रही हैं । अमरीश पुरी जैसे खलनायक, डॉन, मक्कार मंत्री, भष्ट पुलिस, आतंक, हत्या, मारकाट, षड़यंत्र, सबकुछ तो है । जनता में शरीफ और पर्दे के पीछे क्रूर पशु सरीखे समाजसेवकों की हरकतों ने फिल्मों के विलेनों को भी पीछे छोड़ दिया है । मुख्यमंत्री सही कहते हैं उ. प्र. में फिल्म उद्योग के लिये भारी संभावनायें हैं । कहानी की तो टेंशन ही नहीं है । समाज में यहां-वहां बिखरी पड़ी हैं । बदायूं रेप काण्ड से लेकर मोहनलालगंज की निर्वस्त्र महिला की लाश की कहानी चीख-चीखकर बड़े पर्दे पर छाने को हाजिर हैं ।
रोज हो रहीं घटनाओं से लगता है कि अब इंतहा हो गयी, अब कुछ सख्त कदम उठाये जायेंगे और कसूरवारों को सजा मिलेगी, जुल्मों की कहानी फिल्मों की कहानी जैसी नहीं होगी, लेकिन हर सुबह लगता है कि हकीकत की पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त !
जगदीश वर्मा ‘समन्दर’ से संपर्क : [email protected]