Satyendra PS-
23 दिसम्बर, 2009 की फोटो है। हम लोग वैष्णो देवी गए थे। दिल्ली से सुबह ही राजधानी एक्सप्रेस से जम्मू पहुँचे। वहां से कटरा और फिर फ्रेश होकर मन्दिर के लिए चढ़ाई करने लगे। मुझे पता भी न था कि 12 किलोमीटर पैदल चलना होता है। खैर दोपहर में चले तो साथ मे एक हेल्प ले लिया, जिससे वह महक और थोड़ा बहुत सामान लेकर साथ चल सके।
चलते चलते हालत खराब हो गई। शाम को ऐसे वक्त पहुँचे कि कपाट बंद हो गया। सारा सामान जमा करके हम लोग दर्शन के लिए लाइन में खड़े थे। पानी तक नहीं था। पीछे से लोग भयानक रूप से ठेल रहे थे और हम लोग बैरिकेटिंग में फंसे थे। महक को उठाकर कंधे पर बिठा लिया। लगातार ठेलमठेल में पसीना छूट रहा था और महक का रोते रोते बुरा हाल था।वह लगातार पानी-पानी की रट लगाए थी और पानी मिलने का कोई चांस नहीं था। पीछे और आगे कुछ लोगों ने ताकत लगाकर रोका कि कहीं धक्के से मैं भी न गिर जाऊं।
इसमें पत्नी का कोई दोष नहीं था। लेकिन सारा गुस्सा उन्ही पर आ रहा था। महक पानी पानी करते रो रही थी और हम उस भयानक ठेला ठेली में असहाय खड़े थे। मुझे याद है कि पत्नी से मैने कहा कि अगर यह पानी पानी करते मर गई तो इसके साथ ही तुमको भी छोड़ दूंगा।
खैर … लाइन चालू हुई। हम लोग अंदर गए। ऐसा कुछ भव्य दिव्य अंदर नहीं था, जो देखा जाए। केवल श्रद्धा की बात थी। गुफा में गए और वहां के पुजारियों ने हांक दिया। हम तो देख भी नहीं पाए कि अंदर क्या था।
वापस आये तो भयानक सर्द में ऊपर कमरा या कोई उचित आवास मिलने का चांस नहीं था। मैं अपने स्रोतों से पता करके गया था कि ऊपर भी ठहरने के कमरे मिल जाते हैं, लेकिन लोगों ने बताया कि सब फुल हैं। वहां लोग इधर उधर बिखरे पड़े थे कड़ाके की ठंड में।
हम लोगों ने अपने हेल्प से बात की और पूछा तो उसने बताया कि यहां कमरा नहीं मिलेगा, नीचे ही मिलने के चांस हैं। हम लोग उल्टे पांव लौट पड़े। करीब 12/1 बजे रात नीचे पहुँचे। मेरे मित्र जहां रुके थे, वहीं के क्लॉक रूम में सामान जमा था और पहुँचने पर पता चला कि सभी रूम फुल हैं। रात को करीब 1 घण्टे तक रूम खोजने के बाद 5 घण्टे के लिए 1800 रुपये में 2 कमरे मिले। नेक्स्ट रात पटनीटॉप में कमरा एडवांस बुक था।
वैष्णो देवी में आज हुई भगदड़ के बारे में सुनकर बड़ा अफसोस हुआ। मुझे अपनी यात्रा याद आ गई। 12 साल पहले मैंने जो सीन देखा था, स्वाभाविक है कि उससे कहीं बदतर इस समय की भीड़ की स्थिति होगी। लेकिन उसके बाद भी हम लोग कभी बांके बिहारी कभी मीनाक्षी मन्दिर, कभी रामेश्वरम के शिव मंदिर में फंसे। जबकि भीड़ में भगदड़ आम बात हो चुकी है।
आज शाम आते आते सूचना मिली कि गोरखपुर के जयहिंद हॉस्पिटल पादरी बाजार के डॉ. अरुण कुमार सिंह की वैष्णो देवी में हुई भगदड़ में मौत हो गई है। सरकार ने जिन लोगों के मरने की पुष्टि की है, उनमें उनका भी नाम शामिल है। हाल ही में उनकी शादी डॉ. अर्चना सिंह से हुई थी, वह भी साथ में थीं और उनके बारे में कोई सूचना नहीं है।
क्या कहा जाए ऐसे हादसों पर? कुछ समझ में नहीं आता। इस भगदड़ ने गोरखपुर के एक उभरते होनहार डॉक्टर को लील लिया। विनम्र श्रद्धांजलि…
Sheetal P Singh
एक बार (अंतिम बार)मुझे भी ले ज़ाया गया है और जो नरक ऊपर वर्णित है वहीं मैंने भी भोगा । आस्था के नाम पर सजा भोगने की मूर्खता धर्म के नाम पर संभव है यह स्थापित सत्य है और इसमें जान भी चली जाय तो उसके भी तर्क पहले से ही प्रचलन में हैं!
Siddharth Kalhans
एक बार कश्मीर से लौटते हुए मुझे भी ले गए थे घर वाले. पत्नी और बेटे ने चढ़ाई चढ़ उपर जाकर दर्शन किए और मैं नीचे कटरा में होटल में बैठा व सड़क पर बैठ वापस लौट रहे लोगों से बतियाता टहल करता रहा। लौटते हुए विभिन्न इलाकों के लोगों से श्रद्धा का बखान सुनना, स्थानीय बाजार में फोटो खिंचाते लोगों को देखना, कटरा में घोड़े पालकी वालों का हाल सुनना. कुल मिलाकर मैंने ज्यादा आनंद उठाया. हमने कश्मीर से वापसी ट्रेन से की थी बड़गाम स्टेशन से बानिहाल तक. बेहतरीन सफर था अकेले हम तीन सैलानी और बाकी सब स्थानीय लोग. बातचीत हालचाल जानने में सफर कटा। कश्मीर में लोकल बसों में भी खूब सफर किया।
Ramji Tiwari
मंदिरों में शायद ही कहीं ठीक व्यवस्था है। जैसे कि अव्यवस्था उनकी नियति बन गयी हो। देश भर के मंदिरों में जाने के अनुभवों के आधार पर कह रहा हूँ कि अपवादों को छोड़कर सब जगह यही हासिल है। कामाख्या मंदिर का हालिया अनुभव तो सबसे खराब रहा।
Ujjwal Bhattacharya
मैं कोणार्क गया हुआ था. वहाँ एक दिन ठहरा भी. वहाँ से भुवनेश्वर लौटते वक्त जो बस मिली, वह पुरी होकर जा रही थी. पुरी में दो-तीन घंटे ठहरना था, ताकि यात्री जगन्नाथ मंदिर का दर्शन कर सकें. पुरी में जो मंदिर का जो माहौल देखने को मिला, मैंने कह दिया कि मुझे मंदिर नहीं जाना है. पंडे नहीं, गुंडे थे. साथ में किताब थी, तीन घंटे तक बस में बैठे-बैठे पढ़ता रहा. सब चकित थे कि पुरी आकर मैं जगन्नाथ मंदिर नहीं गया.
Shambhunath Shukla
तीर्थ हिंदुस्तान में सिर्फ़ चार हैं। बद्रीनाथ, द्वारिका, पुरी और रामेश्वरम। बाक़ी तो सब टोटके हैं। अब देखिए, बिना धर्म का मर्म समझे लोग वैष्णोदेवी भागे जा रहे हैं। कोई अमरनाथ, केदारनाथ, कोई महाकाल तो कोई असम। कोई साईं धाम तो कोई शनि धाम। लेकिन एक सच्चा हिंदू इनके अतिरिक्त कहीं नहीं जाता। आठ को मैं पुरी जा रहा हूँ। यह चौथी नीलांचल यात्रा होगी।
Nand Kishore
डॉ साहब भी दर्शन पूजा पर भरोसा कर लिए तो गाँव का गरीब ओझा के चक्कर मे पड़ कर कौन गलत काम करता है। खैर डॉ साहब और वहाँ भगदड़ का बहुत दुःख है
Imran Sayyed
लेकिन कोरोना काल मे, जब हम तीसरी लहर के विषय मे चिंतित है,चुनाव टालने की बात उठ रही है,रैलिया के बिना चुनाव करवाना चाहते है सब तो वहां वैष्णव देवी में इतने लोग कर क्या रहे थे,कैसे इकट्ठा हुए, ??
Ranjana Das
आस्तिक होने के बावजूद न तो मुझे तीर्थ यात्रा करने, मंदिर दर्शन और पुण्य स्नान करने का शौक है। कुंभ नगरी में रहते हुए भी,कुंभ स्नान तो छोड़िए ,गिने चुने अवसरों पर मोक्ष की डुबकी लगाई है वह भी मित्रों और रिश्तेदारों के चक्कर में। हरिद्वार,काशी, गंगोत्री आदि आदि आना जाना होता है, लेकिन बस अंजुली भर से ही सब चंगा सी.
Narendra Tomar
देवी-देवता के दरबार में हर भक्त सबसे पहले पहुंचना चाहता है कि ‘उसकी कृपा’ का भंडार कहीं पहले ही चुक न जाये । सोचने की बात तो यह है कि कण कण में बसने वाले भगवान के लिए ऐसी मारामारी क्यों? साफ है कि यह “धर्मिक ब्रांड मार्केटिंग”है। और मजे की बात तो यह है इसके शिकार बड़े बड़े बुद्धिजीवी भी खूब बनते हैं।
Anil Yadav
इतनी चर्चाएं सुनी थी कि एक बार हो आया। वहां सब कुछ देखकर कल जैसी किसी अनहोनी घटना की आशंका स्वाभाविक तौर पर हुई।
कल की ख़बर सुनकर अचानक सब कुछ तैर सा गया !
Ajay Kumar Khunte
तीर्थ स्थान या किसी भी टूरिस्ट प्लेस में एक्सीडेंट रेट हाई होता है…ऐसे मामलों को हरी इच्छा और पीड़ित के लिए मोक्ष प्राप्ति कहकर तसल्ली कर लेनी चाहिए…
राहुल इलाहाबादी
अरे…मुझे लगा बिल्कुल मेरी बीती सुना रहे है…मेरे सीन में लाइट आउट हो गया था, बर्फ बारिश भी खूब होने लगी थी। हमने इस दशा रात के चार घंटे होटल की सीढ़ी पर बैठ के बिताए थे। बहुत बुरे हाल थे…तब से कान पकड़ा।
Yogesh Mishra
जब लोग न समझी की हदे पार कर जाए और अनपढ़ जैसा बर्ताव करे तो ऐसा ही होता है।नई जगह पहली बार जाने पर ऐसा स्वाभाविक भी है,किन्तु अगर जानकारी हो तो कभी परेशानी नही होती दरबार मे हर तरह की सुविधा फ्री मिलती है।मैं विगत कई वर्षो से जा रहा हूँ,और आज भी निकल लिया हूँ।
Dinesh Kumar
शिक्षा और तकनीक के इस युग में भी इतनी जानकारी होने पर भी लोग अगर ऐसी मूर्खतापूर्ण हरकते करे तो कोई क्या कर सकता है।
Ashok Shukla
हादसा मंदिर की कतार में हो गया तो इतना ज्ञान बांटा गया की आंखें भर आई. यह हादसे देश / विदेश में ट्रेन में चढ़ने से लेकर अस्पताल के ओपीडी में होते रहते हैं वहां भी अल्लाह मियां बचाने नहीं आते है, श्रद्धा को इतना भी लपेटने की जरूरत नहीं होती है.