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आयोजन

पिता सज्जाद ज़हीर के सत्र की अध्यक्षता विभूति नारायण राय से कराने पर पुत्री नूर ज़हीर ने किया एतराज

Sushila Puri : साथियों! दो दिन बाद प्रेमचंद का जन्मदिन मनाया जाएगा। प्रेमचंद और सज्जाद ज़हीर जैसे महान पुरखों ने जिस प्रगतिशीलता की आधारशिला रखी, जिस समतावादी समाज की संकल्पना की, जिस आधुनिक, लोकतांत्रिक समाज का सपना देखा, वह सपना इतना महान था कि बराबरी के उस सपने की संकल्पना भी रोमांचित करती है आज भी। बराबरी के सवाल पर अपने इन पुरखों के उस सपने की डोर थामे हम स्त्रियां आज भी इंतजार में ही हैं, स्त्री अस्मिता के सवाल आज भी प्रतीक्षारत हैं।

हमारी भाषा में एक सवर्ण पुरुष दंभ, एक मर्दवादी सत्ता आज भी कब्जा जमाए है। इसी भाषा में स्त्री को छिनाल कह देना, तमाम अन्य गालियां रच देना पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने ही संभव किया है। प्रगतिशील समाज से स्त्री, दलित या अन्य पिछड़े समुदायों, हाशिए पर गए लोगों को उम्मीद होती है कि वे उनकी बात सुनेंगे और ध्यान देंगे।

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सज्जाद ज़हीर की बेटी नूर ज़हीर यदि कोई सवाल उठाती हैं तो संगठन के लोगों को उस पर ध्यान देना चाहिए था, किन्तु बहुत अफ़सोस के साथ बता रही हूं कि नूर ज़हीर के ऐतराज़ को नजरंदाज किया गया, फिर नूर ज़हीर ने उस संगोष्ठी में जाना स्थगित किया जबकि पूरा एक सत्र रजिया सज्जाद ज़हीर पर केन्द्रित था। एक स्त्री का ऐतराज़ क्या इतना बेमानी था?

सुशीला पुरी के उपरोक्त पोस्ट पर आए ढेरों कमेंट्स में से कुछ प्रमुख यूं हैं-

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Jaya Nigam साहित्यिक संगठनों पर मेरी जानकारी सीमित है. इसके बावजूद प्रगतिशील लेखक संघ का स्त्री मसलों पर ज्यादातर दोहरा स्टैंड ही रहता है, मेरी यही जानकारी है. नूर ज़हीर का विभूति नारायण की वजह से खुद को अलग करना सराहनीय कदम है. मुझे समांतर साहित्य उत्सव भी याद आ रहा है जिसके आयोजन की शुरुआत प्रलेस ने ही की थी. जो लगातार ऐसे लोगों को बुलाने और एक मंच पर इकट्ठा करने के लिये ही जाना गया जो स्त्री मुद्दों पर परस्पर विरोधी विचार ही रखते हैं. मतलब प्रलेस की बुनियाद ही इसी तरह से विकसित लगती है.

Sanjeev Chandan मैं Noor Zaheer को जानता हूँ वे बेबाकी से स्टैंड लेती हैं। उन्हें कतई मंजूर नहीं ही होना था कि रजिया सज्जाद ज़हीर के नाम का सत्र हो और उसकी अध्यक्षता विभूति नारायण राय जैसा आदमी करे। धिक्कार है इस संगठन के मर्दवादी लोगों का कि उन्होंने दुनिया भर में लेखिका के रूप में एक जगह रखने वाली अपनी स्त्री सदस्य की आपत्तियों पर तबज्जो न देकर ऐसे व्यक्ति को वरीयता दी। ऐसा तभी होता है जब संगठन पर ब्राह्मणवादी मर्दवाद हावी हो। उस कार्यक्रम का उद्घाटन सत्र ही देखिये कितना फेलससेंट्रिक है

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Naish Hasan ये बात क़ाबिलेग़ौर है, ये बड़ी बात है कि Noor Zaheer जी ने वहाँ जाने से इनकार किया। उन्हें न मंच की लालसा थी न अपनी अम्मी पर चलाये जाने वाले सत्र को छोड़ देने की परवाह। उन्होंने बड़ा फैसला लिया है जिसे दूसरी महिलाएं जो उसी संगठन की हैं, नही ले पाईं। ये साहस अंदर से आता है जो सिर्फ सच के साथ खड़ा रहता है किसी खेमे में नहीं। पित्रसत्ता के इज़्ज़तदार ये चेहरे अपनी खोल में छुपे रहे, और एक एब्यूज़र के साथ खड़े रहे / रही। Love you noor, ऐसे लोगों की ज़रूरत है।

Sushila Puri प्रगतिशीलता प्रेमचंद की दृष्टि में बौद्धिक व्यायाम से जन्म नहीं लेती। मार्क्स के दार्शनिक सिद्धांतों की जानकारी यदि अंतस में प्रवेश न करे और आत्मा के साथ अंतरंग होकर संस्कारों में न घुल-मिल जाय, तो प्रगतिशीलता का बाह्य धरातल अर्थहीन होगा. यहाँ जानकारी से आगे बढ़कर उस समझ की आवश्यकता है जो प्रतिबद्धता को जन्म देती है। प्रगतिशीलता किसी पादरी का चोगा नहीं है जिसे पहनकर उपदेश दिये जाएँ। प्रगतिशीलता पूरी ट्रेनिंग है जो संस्कारों के भीतर से फूटती है।

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Sandhya Singh : वह दौर कब था जब स्त्री स्वर सुने जाते थे! यहाँ तो स्त्री की चुप्पी को सुनने की बात है. वामांगिनी कहा गया और कमज़ोर माना गया पर कमज़ोरियों में बला की ताकत होती है, जब वे सो जाती हैं तो उन्हें जगाना मुश्किल हो जाता है। नूर ज़हीर को सलाम, हम साथ हैं।

DrAlka Singh इसीलिए मैं कहती हूँ, संगठनों का स्वरूप Noor Zaheer जैसी महिलाएं ही बदलेंगी, और उन्हें बदलना भी होगा/चाहिए। अगर उन्होंने पहल की है एक छोर से तो दूसरे छोर से अन्य को उनके पक्ष में खड़ा भी होना होगा

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Sushila Puri यह वृहद स्त्री अस्मिता से जुड़ा ऐतराज़ है जिसे इग्नोर करना साफ साफ समूचे स्त्री समुदाय को इग्नोर करना है। कोई भी संगठन हो, यदि स्त्री की आवाज नहीं सुनी जा रही है, सुविधा जनक चुप्पियों की खोल में यदि इक्कीसवीं सदी का समाज दुबका है तो यह सोचनीय है । आत्मलोचना का विकल्प और आंतरिक बदलाव की गुंजाइश हमेशा खुली होनी चाहिए।

DrAlka Singh आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ और मानती हूँ कि स्त्रियों के सवाल हाशिये की चीज़ नहीं हैं और अगर सही और सटीक मौकों पर मुखर ऐतराज नहीं हुआ तो संगठन पितृसत्तात्मक बने रहेंगे इसलिए आगे आकर सवाल भी उठाना होगा और विरोध भी करना होगा

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Mamta Kalia दोस्तो यूरोप में हिंदी शिविर की व्यस्तता के चलते प्रसंग पूरी तरह ग्रहण नहीं कर पा रही। 10 अगस्त को लौट कर ही कुछ कह सकती हूँ

Chandrakala Tripathi सुशीला पुरी, सहमत हूं और साथ हूं

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Sushil Manav Allahabadi नूर जहीर के प्रतिरोधी स्टैंड को सलाम

संध्या सिंह : स्त्री की दशा अब समझ में आ रही है जब वो घर में पुरुष सत्ता से जूझ बाहर आती है तो वहाँ भी पुरुष वर्चस्व की नई जंग है …. सच कहूँ तो स्त्री को बराबर का दर्जा नही महसूस होता ,….या तो दमन है या फिर खैरात में दी गयी सीमित आज़ादी सीमित पहचान …

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Chauthi Ram Yadav नूर ज़हीर का एतराज़ बिल्कुल वाज़िब है।

Sandeep Meel नूर ज़हीर के प्रतिरोध को सलाम और जरूरी सवाल उठाने के लिए आपको भी।

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Sanjeev Chandan सबसे बड़ी बात है कि नूर ज़हीर की आपत्ति के बाद भी चिढ़ाने के लिए साहब से उसी सत्र की अध्यक्षता करवा दी गयी

DrAlka Singh यह महज चिढाना नहीं है यह एक संगठन का इतिहास लिपिबद्ध ह्यो रहा है जो आगे संगठन की प्रगतिशीलता और स्त्रीपक्षधरता पर सवाल खड़े करेगा। इसलिए इसे इत्ती सी बात समझकर टेंट में नहीं बांध सकता कोई संगठन

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Sanjeev Chandan जी यही है इससे यह भी तय होता है कि लेखकों का एक बड़ा हिस्सा कैसे पुरस्कार और पद के लिए भ्रष्टतम्बसमझौते करता है।

Sushila Puri ऐसे स्त्री विरोधी चेहरों को संगठन में जगह और मंच मिलना दुखद है। ऐसी कौन सी विवशता हो सकती है कि एक स्त्री के विरोध के बाद भी सब यथावत चलता रहा ।

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Sushila Puri प्रेमचंद को तत्कालीन हिंदी साहित्य की दुनिया का ब्राह्मणवाद पचा नहीं पा रहा था। शीन-काफ़ दुरुस्त होने की वज़ह से वैसे भी कायस्थों को ब्राह्मणवाद विधर्मी मानता रहा है। इससे त्रस्त होकर 8 जनवरी 1934 के ‘जागरण’ में प्रेमचंद लिखते हैं- ‘……शिकायत है कि हमने अपनी तीन-चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है, जो हमारी रचनाओं पर अमिट कलंक है। हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिन्दू-जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते। हिन्दू-जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल है, जो एक विशाल जोंक की भाँति उसका ख़ून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है।’

Mohan Shrotriya मैं नूर ज़हीर के साथ हूं, और उस स्त्री-द्वेषी के ख़िलाफ़!

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Chandrakala Tripathi बहुत सही एतराज है।

Aparnaa Aparnaa नूर ज़हीर का कदम वाज़िब है.

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