वीपी सिंह बहिष्कृत कर्णधार के रूप में शुमार हैं। इसलिए दिवंगत वीपी सिंह की 25 जून को जयंती पर पूर्व प्रधानमंत्री होते हुए भी औपचारिकता तक के लिए सरकारी स्तर पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने की कोशिश नही की गई। हालांकि आज तो माहौल इतना विषाक्त हो गया है कि कई और पूर्व प्रधानमंत्री जिनके जमाने में लोग उन पर जान छिड़कने को तैयार रहते थे देश के गददार के रूप में पेश किये जा रहे हैं। उनके प्रति किसी भी सीमा तक घृणा जाहिर करने में कसर नही छोड़ी जा रही है।
आश्चर्य की बात यह है कि वह नई पीढ़ी उनको देशद्रोही साबित करने में सबसे आगे है जिनके बाप-दादे उनके सबसे बड़े भक्त थे। पर उन्माद ऐसा है कि जाने-अनजाने में ऐसा करके अपने बाप-दादा की प्रतिष्ठा के कलंकित होने की भी फिक्र उन्हें नही है। दूसरे प्रधानमंत्रियों के प्रति घृणा की इस आंधी में वीपी सिंह फिलहाल गौण जरूर हो गये हैं लेकिन इसका मतलब यह नही है कि उन्हें सापेक्षिकता के सिद्धांत का लाभ देकर माफ करने की कोशिश की जाये। अगर ऐसा होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर नही चूकते। जो जानते हैं कि वे पिछड़ा गर्व को उभार कर ही देश के सबसे शीर्ष पद के लिए स्वीकार्य हुए हैं और इस गर्व को तुरुप का पत्ता बनाने का श्रेय किसी को है तो वे वीपी सिंह हैं।
वीपी सिंह ने देश के इतिहास की उस धारा को बदला था जिसे सदियों से कोई नही बदल पाया था। कई महापुरुषों ने अन्याय और मुटठी भर लोगों के वर्चस्व की समाज व्यवस्था की चटटान को तोड़ने की कोशिश की लेकिन उनकी सफलता हल्के-फुल्के सुधारों तक सीमित रही। पर कई महीनों की पृष्ठभूमि रचते हुए वीपी सिंह ने शीर्ष परिणति के रूप में जब मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया तो देश में तूफान आ गया। निश्चित रूप से यह परिवर्तन आसानी से बर्दास्त करने लायक नही हो सकता था। इसलिए कमंडल की राजनीति सामने आई। जिसमें अटल जी का प्रधानमंत्री पद पर पहुंचना संभव हुआ।
वे कमंडल राजनीति के ट्रंप कार्ड के रूप में थे क्योंकि उनके समृद्ध और विराट व्यक्तित्व का कोई सानी नही था। उनके माध्यम से जन्म सिद्ध योग्यता और क्षमता के सिद्धांत को पुर्नस्थापित करने की भाजपा और संघ परिवार की कोशिश अगर क्षणभंगुर सिद्ध होकर रह गयी तो यह वीपी सिंह द्वारा उठाये गये कदम का ही चमत्कार था। जिसे संचारी और तात्कालिक बंवडर मानने की गलत फहमी पाली जा रही थी वह स्थायी क्रांति के रूप में फलित कदम था। इसलिए जब अटल जी जैसे महाकाय व्यक्तित्व विदेशी पृष्ठभूमि के कारण संदिग्ध करार दी गईं सोनिया गांधी के मुकाबले सत्ता गवांने को मजबूर हो गये तो यह विपर्यास संघ परिवार के लिए हतप्रभ करने वाला सिद्ध हुआ। इस पराभव के बाद संघ परिवार समर्पण की मुद्रा में आ गया। उसे जन्म सिद्ध प्रताप के सिद्धांत से मुकरते हुए मंडल तूफान की शरण में जाना पड़ा। वीपी सिंह द्वारा बदली गई इतिहास की धारा को ही उसे प्रासंगिक मानना पड़ा जब मोदी का वरण अपराजेय सत्ता हासिल करने के रूप में उसे फला।
वीपी सिंह के कदम को सत्ता में बनी रहने की कुटिल रणनीति के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसमें उन्हें अपनी महत्वाकांक्षा के लिए सवर्णों की बलि चढ़ाने वाले पापी के रूप में इतिहास में दर्ज कराने की कोशिश निहित थी। लेकिन यह वास्तविकता के अनुरूप नही है। वीपी सिंह के पूरे राजनीतिक सफर पर गौर करें तो न्याय भावना के लिए उनकी प्रतिबद्धता शुरू से ही प्रकट है। इसलिए वे आरंभ में गलत समाज व्यवस्था के कारण भूमिहीन की नियति जी रहे लोगों के लिए विनोबा भावे द्वारा चलाये जा रहे भू-दान आंदोलन से इतने प्रभावित हो गये थे कि उन्होंने अपनी तमाम जमीन भूमिहीनों को वितरण के लिए उन्हें दान कर दी थी। राजीव गांधी सरकार के वित्त मंत्री के रूप में टैक्स चोर उद्योगपतियों के खिलाफ उन्होंने जैसा अभियान चलाया वैसा आज तक कोई नही चला सका।
ईमानदारी और स्वच्छ व्यवस्था की स्थापना का दावा करने वाला कोई राजनेता निहित स्वार्थों के दमन के बिना अपने उददेश्यों के लिए ईमानदार नही हो सकता। यह स्थापित तथ्य है इसलिए वित्त मंत्री के रूप में अपनी भूमिका में भी उन्होंने व्यवस्था को अन्यायपूर्ण बनाने के लिए दोषी प्रभावशाली तत्वों से टकराने की कटिबद्धता दिखाई थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने जो किया वह उनकी इसी न्यायिक तड़प का विस्तार माना जाना चाहिए। मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला उन्होंने अपने राजनैतिक संकट की वजह से नही किया। घटनाएं यह साबित करती हैं कि सामाजिक न्याय उनके एजेंडे में प्रधानमंत्री बनते ही शीर्ष पर था। लालू प्रसाद यादव बाद में उनके सबसे वफादार सहयोगी बने पर शुरू में जब वे मुख्यमंत्री बनाये जा रहे थे तो वीपी सिंह की राय दूसरी थी।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद वे चाहते थे कि सामाजिक परिवर्तन के चक्र को पूरा करने के लिए बिहार में मुख्यमंत्री दलितों के बीच से बनाया जाये। लेकिन बिहार में पर्यवेक्षक बनाकर भेजे गये मुलायम सिंह और शरद यादव की लोहिया के अनुयायी होते हुए भी सामाजिक परिवर्तन को लेकर कोई व्यापक सोच नही थी। उन्होंने शुद्ध जातिगत भावना की वजह से लालू के नाम का अनुमोदन किया। यह दूसरी बात है कि बाद में लालू प्रसाद यादव की भूमिका सामाजिक न्याय के लिए बेहद फलदायी रही और इस मोर्चे पर ईमानदारी से संघर्ष करने के कारण अंततोगत्वा उन्हें अपने गॉडफादर रहे मुलायम और शरद से भी भिड़ जाना पड़ा।
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के पहले बाबा साहब अंबेडकर को उनकी सरकार द्वारा मरणोपरान्त भारत रत्न घोषित करने के फैसले को भी इसी निरंतरता में देखा जाये तो और स्पष्ट हो जाता है कि वीपी सिंह किस तरह समाज व्यवस्था को बदलने के एजेंडे को केंद्र बिंदु में स्थापित करने में सुनियोजित ढंग से लगे थे। बाबा साहब को भारत रत्न दिये जाने की कार्रवाई इस एजेंडे के लिए बहुत बड़े उत्प्रेरण का कारण सिद्ध हुई।
समग्र न्याय पर आधारित उनकी कार्यश्रंखला किसी के साथ अन्याय करने वाली कैसे सिद्ध हो सकती थी। निश्चित रूप से सवर्णों की कुछ ग्रन्थियां हैं जिनके चलते उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने की कार्रवाई को अपने प्रति अन्याय के रूप में संज्ञान में लिया। अन्यथा पिछड़ों और अनुसूचित जाति, जनजाति के आरक्षण को मिलाकर भी नौकरियों का 52 प्रतिशत जनरल मैदान 15 प्रतिशत सवर्णों के लिए शेष बना हुआ है। जिसमें वे अनुपात से बहुत अधिक हिस्सेदारी प्राप्त कर रहे हैं।
उस समय सवर्ण छात्रों और नौजवानों को समझाने और उनमें न्याय भावना जागृत करके वंचितों के प्रति उनको सहानुभूतिशील बनाने के लिए वीपी सिंह ने जनेश्वर मिश्र के नेतृत्व में कैबिनेट की कमेटी बनाई थी जो अगर ईमानदारी से प्रयास करती तो मंडल रिपोर्ट लागू करने का फैसला सर्व स्वीकार्य हो जाता। पर जनेश्वर मिश्र के विश्वासघात के कारण यह कदम विफल हुआ। जनेश्वर मिश्र ने सामाजिक न्याय की धारा को विकृत करने में योगदान दिया। जिससे यह धारा प्रति जातिवादी कटटरता, वंशवाद और फासिस्टशाही में गर्क हो गई। बहरहाल मानवाधिकारों की विश्वव्यापी लहर के इस दौर में देश को आगे बढ़ाना और मजबूत करना है तो व्यवस्था में सभी की भागीदारी के सिद्धांत को अपनाना अपरिहार्य है। प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत के कारण आगे बढ़ने में वे किसी भी जाति के हों कोई बाधा नही है। दूसरी ओर अगर इन मामलों में कोई अभाव ग्रस्त है तो उसे मजदूरी करनी पड़ सकती है। इसके कारण पूरी जाति विलाप करे इसकी कोई तुक नही है। जाति की ठेकेदारी लेना ही आज तमाम कुंठाओं का कारण बनी हुई है।
औरैया के वरिष्ठ पत्रकार केपी सिंह का विश्लेषण. संपर्क- 9415187850