2008 के आस -पास पहली बार सोशल साइट्स पर कदम रखा था। एक आईटी कंपनी में बतौर एसोसिएट कंटेन्ट क्रिएटर लैपटॉप ऑन करने के बटन को दबाने से मैंने आईटी के इस मकड़जाल को धीरे –धीरे सीखा था। सबसे पहले ऑर्कुट फिर ब्लॉग फिर फेसबुक। तीन साल तक फेसबुक पर अपडेट रहने के कई फायदे हुए। लोगों से जान पहचान हुई और पत्रकारिता जगत में इंट्री भी इसी के माध्यम से हुई। इसलिए आज के व्हाट्सअप तुरत फुरत के जमाने में भी फेसबुक को दिल से जुदा करने का मन नहीं होता लेकिन अब व्हाट्सअप पर क्रांति दौड़ रही है।
हैं तो ये सब सूचना के माध्यम ही। और क्रांति का भी अनुभव कराते रहे हैं। हाथ में मोबाइल हो और मास्को में रह रही मौसी से हाय हेलो हो रहा हो तो यह क्रांति ही हैं न, लेकिन सूचना क्रांति के इन तमाम माध्यमों में सबसे आगे बढ़कर व्हाट्सअप ने रांची के पत्रकारिता जगत में इनदिनो नई क्रांति ला दी है। जैसा की यह कहने का चलन बन चुका था कि सोशल मीडिया देश से भले ही जोड़ता हो लेकिन पड़ोस को तोड़ने का काम करता है लेकिन व्हाट्सअप ने इस मिथक को भी तोड़ा है। इसके दो –दो बड़े उदाहरण रांची में पत्रकारों ने पेश किए हैं।
कुछ महीने पहले की बात है। राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में एक महिला पत्रकार से छेड़खानी की गई तो एक और पत्रकार की बुरी तरह पिटाई कर दी गई। संयोग से दोनों अंग्रेजी दैनिक अखबार के पत्रकार थे जिसका हिन्दी अखबार और क्षेत्रीय न्यूज़ चैनल के पत्रकार से ज्यादा वास्ता नहीं होता क्योंकि सबके टेस्ट में बड़ा फर्क है। फिर भी ये खबर सभी रांची के पत्रकारों तक पहुंची। व्हाट्सअप पर बने ब्रेकिंग न्यूज़ नामक एक ग्रुप में इस मामले को गंभीरता से लेने की बात की गई। धीरे – धीरे सभी एक्टिव हुए खासकर युवा पत्रकार। एक एक कर सबका रिसपोन्स आने लगा। रात के 2 बजे 30 से 40 पत्रकार रिम्स पहुंचे और वो हुआ जो कभी नहीं हुआ था।
फिर आंदोलन की रणनीति आगे बनने लगी। पत्रकारों की एक जुटता से पुलिस पर दबाव बनाने में सफलता मिली। अंततः वही हुआ जो सभी मांग करते थे।
फिर अभी दो दिन पहले दैनिक समाचार पत्र के फोटोग्राफर पर ठेकेदारों और सरकारी चमचों ने जानलेवा हमला कर दिया और बेहोशी की हालत में उसे बंधक बना लिया। किसी साथी का मुझे कॉल आया कि मनोरंजन को बंधक बना लिया गया है। मैंने व्हाट्सअप के ग्रुप में इसकी सूचना दी। सभी ग्रुप में सूचना जाते ही पत्रकार साथी जगह पर उसको ढूँढने पहुँच गए। देखते ही देखते ये संख्या सैकड़ों में हो गई। आश्चर्य की बात यह थी कि किसी ने किसी को कॉल नहीं किया बल्कि व्हाट्सअप पर पढ़कर जो जहां था वहीं से उस जगह पर पहुंचा, जहां मनोरंजन को रखा गया था। मनोरंजन को छुड़ाया गया। फिर व्हाट्सअप पर सीएम से मिलने की बात तय हुई।
देखते ही देखते ये संख्या दुगुनी हो गई। सीएम हाउस के बाहर खड़ी गाड़ी देखकर ये स्वीकारना मुश्किल था कि अख़बार के पेज छोड़ने के समय में एक साथ इतने पत्रकार एकसाथ कहीं हो सकते हैं लेकिन ये हकीकत थी। हकीकत थी कि 200 पत्रकार मुख्यमंत्री आवास को घेरे हुए थे। सीएम ने आश्वासन दिया। फिर प्लान बना उस एसएसपी से हिसाब करने का, जो फोन नहीं उठाता। दो दिन लगातार उनके प्रेस कॉन्फ्रेंस के बहिष्कार ने आंदोलन को और बल दे दिया। पुलिस प्रशासन के बीच यह चर्चा का विषय बन गया कि क्या पत्रकारों में इतनी एक जुटता है। आपको जानकार हैरानी होगी कि यह ऐसा आंदोलन था जिसमें कोई नेता नहीं था। ऑनलाइन ही छोटे बड़े सभी की बातों में डिस्कस हुआ, रणनीति बनी, फैसला हुआ । कहीं संस्थान द्वारा दी गई बैरियर की फलां स्ट्रिंगर है, फलां रिपोर्टर है, तो फलां बड़ा रिपोर्टर है और फ़ोटो ग्राफर है। लेकिन इसी आंदोलन के दौरान ही पता चला कि कई संस्थाओं ने सोशल साइट्स पर लिखने के साथ साथ अपनी लड़ाई लड़ने पर रोक लगा रखी है। मतलब उन्हें बंधुआ मजदूर बना लिया गया है।
कल जब मनोरंजन के मामले में ही एक दैनिक अख़बार के संपादक का साक्षात्कार कर रहा था तो उन्होंने बताया मीडिया में आंदोलन युवा वर्ग से ही संभव है। क्योंकि बढ़ती उम्र के साथ सब व्यवस्था में ढल जाते हैं। मतलब साफ़ था कि आप अपनी लड़ाई खुद लड़िये। अगर ऐसी ही सोच रही तो सामने वाला पत्रकार/फ़ोटो पत्रकार हमेशा पिटता रहेगा और हम कुछ लोग तख्तियां और काली पट्टी लगाकर विरोध करते रहेंगे। लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता और व्यवस्था जब आपका विरोधी हो जाये तो समझिये आपमें अभी जान बाकी है। शायद इसी सोच के रांची के सैकड़ों युवा पत्रकार आंदोलन पर हैं और यह आंदोलन व्हाट्सअप के जरिये उनके दिमाग से होकर मोबाइल में दौड़ रहा है।
सन्नी शरद संपर्क : [email protected]