अनिल सिंह-
उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय मान्यता समिति का चुनाव इस बार ऐतिहासिक रहा है। दो चुनाव कराने को आतुर तथाकथित वरिष्ठों के प्रयास को युवाओं ने दरकिनार कर दिया। वरिष्ठों की साजिशों को नकारते हुए उन्हें एक मंच पर आने को मजबूर किया, फिर अपनी भागीदारी सुनिश्चत की। नहीं तो आलम यह था कि विधानसभा प्रेस रूम में दो दुकानें खुली हुई थीं, और दोनों गल्लों पर यही तथाकथित वरिष्ठ बैठकर दुकानदारी चला रहे थे। इनमें कई ऐसे वरिष्ठ थे, जिनका मूल पेशा लाइजनिंग का है, और पत्रकारिता इसको ढंकने का आवरण। ऐसे वरिष्ठों को खिलाड़ी पत्रकारों की दरकार हमेशा से रही है, जो इनकी लाइजनिंग में सहायक बन सकें। और इसी योजना के ईदगिर्द यह चुनाव कराये जाते हैं।
एक तरफ वरिष्ठ पत्रकार अन्ना स्वामी तो दूसरी तरफ गन्ना स्वामी खड़े होकर पन्ना स्वामी के सहयोग से चुनाव विवादित करा देते हैं ताकि नये लोग दूर रहें। पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। इस बार युवाओं ने जमकर भागीदारी की। ज्यादातर बुढ़वों को युवाओं से इसलिये एलर्जी रही, क्योंकि युवा इनके दारू का खर्च और दूसरे कामों में सहयोगी बनने में सक्षम नहीं लगते हैं। बुजुर्गों की टोली उन मदारियों के पीछे जाकर खड़ी हुई जो शाम को करिया कुक्कुर की बोतल दे सके और कुछ इधर उधर का खर्च वहन कर सकते हों। इस बारी इक्का-दुक्का मदारियों को छोड़कर जो भी पत्रकार जीते हैं वो पेशे से पत्रकार ही हैं। कार्डधारक या लाइजनर नहीं। मदारी भी इसलिये जीत पाये कि आखिरी दौर में इन वरिष्ठ मठाधीश अन्ना स्वामी, गन्ना स्वामी, पन्ना स्वामी और गैंडा स्वामी भी हर बार की तरह एक हो गये, क्योंकि उन्हें अपनी दुकानों के शटर गिरते हुए दिखने लगे थे।
इस बार के चुनाव में जो सबसे सुखद अनुभूति हुई है कि कई बुजुर्गों को पटखनी देकर युवा पत्रकारों ने अपना परचम लहराया है। उपाध्यक्ष पद पर जीते आशीष कुमार सिंह हों, जफर इरशाद हों या फिर आकाश शर्मा तीनों ही पत्रकार हैं, कार्डधारक या हृदयविदारक नहीं। इसी तरह संयुक्त सचिव पद पर जीते अभिषेक रंजन और विजय त्रिपाठी लिखने-पढ़ने वाले पत्रकार हैं, कार्डधारक या कमीशनमारक नहीं। कोषाध्यक्ष चुने गये आलोक त्रिपाठी भी लिखने-पढ़ने वाले पत्रकार हैं। अध्यक्ष पद पर ज्ञानेंद्र शुक्ला के आने से समीकरण पूरी तरह बदल गये थे। मात्र आठ दिन की तैयारी में ज्ञानेंद्र को जिस तरीके से युवा पत्रकारों का समर्थन मिला है, वह भविष्य के लिये सुखद संकेत है। बिना मठाधीशों के केवल पत्रकारों के दम पर यह रिजल्ट आना सुखद है।
यह चुनाव बदलाव की नींव साबित होने वाला है। इस बार जितने युवा जीते हैं, बीते कई चुनावों में उतने नहीं जीत पाये थे। कई युवा इसलिये जीतते जीतते रह गये क्योंकि उन्हें चुनाव जीतेने के हथकंडों और सियासी हरामखोरी का संपूर्ण ज्ञान अभी नहीं मिल पाया है। बिना मठाधीशों और तथाकथित पुरोधाओं के लगे बिना ज्ञानेंद्र शुक्ला राघवेंद्र सिंह, भारत सिंह, शबी हैदर, अजय श्रीवास्तव जैसे युवाओं ने जोरदार चुनाव लड़ा है, वह भविष्य के मस्त संकेत हैं। पत्रकारिता के लिहाज से कुछ बदले या ना बदले, लेकिन युवाओं का कीचड़ में उतरने का फैसला उम्मीद जगाता है कि देर सबेर कीचड़ भी साफ ही होगा। अन्ना, गन्ना, पन्ना और गैंडा स्वामी जैसे मठाधीश भी अपनी गति को प्राप्त होंगे।