आतंकवाद विरोधी कानून से भी कठोर है यूपीकोका… हाल में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा यूपीकोका अर्थात उत्तर प्रदेश संगठित अपराध नियंत्रण विधेयक- 2017 लाया गया है जो कि आतंकवाद विरोधी कानून (विधि विरुद्ध क्रिया-कलाप निवारण अधिनियम-1967) से भी कठोर है. इसमें पुलिस को इस प्रकार की शक्तियां दी गयी हैं जो कि आज तक किसी भी कानून में नहीं दी गयी हैं. योगी सरकार ने इसे बड़ी चालाकी से विधान सभा के पटल पर रखा और अगले दिन ही इसे ध्वनिमत से पारित भी करा दिया.
अधिकतर विधायकों तथा विरोधी पक्ष के सदस्यों तक को इसे उपलब्ध नहीं कराया गया. इस कारण अधिकतर विधायक इसके लोकतंत्र तथा मानवाधिकार विरोधी प्राविधानों के बारे में जान तक नहीं सके और वे उस पर कोई चर्चा तथा आपत्ति भी नहीं उठा पाए. इसके अभाव में विपक्ष केवल इसके विपक्षगण तथा दलितों एवं मुसलामानों के विरुद्ध दुरूपयोग की बात करता रहा और इसके कठोर प्रावधानों और पुलिस को बहुत शक्तियां दिए जाने की बात नहीं उठा सका. यही स्थिति प्रेस की भी रही. वह केवल सरकार के संगठित अपराध पर नियंत्रण पाने के दावे तथा विपक्ष द्वारा अपने विरुद्ध दुरूपयोग के आरोप की ही बात करता रहा. किसी ने भी इस कानून के कठोर प्राविधानों तथा पुलिस को दी जा रही असीमित शक्तियों पर कोई चर्चा नहीं की तथा आपत्ति नहीं उठाई.
फिलहाल यह बिल विधानसभा से पास हो कर विधान परिषद् को भेजा गया है जिसे सलेक्ट कमेटी को संदर्भित कर दिया गया है. यदि यह किसी तरह वहां से भी पास हो जाता है तो फिर यह राष्ट्रपति को स्वीकृति के लिए भेजा जायेगा जहाँ पर इसे स्वीकृति मिल जाने की पूरी सम्भावना है. यह ज्ञातव्य है कि जो मायावती इस समय इसका विरोध कर रही है उसी मायावती ने अपने शासनकाल में 2008 में इसे विधान सभा और विधान परिषद् से पास कराकर कर राष्ट्रपति के पास भेजा था परन्तु वहां पर इसे स्वीकृति नहीं मिल पायी थी. वर्तमान में विपक्ष द्वारा इस बिल का सही और जोरदार ढंग से विरोध नहीं किया गया जिस कारण यह विधान सभा में बड़ी आसानी से पास हो गया. विपक्ष केवल इसके विपक्षीगण, दलितों और मुसलामानों के विरुद्ध दुरूपयोग की बात करता रहा परन्तु बिल के अति कठोर प्राविधानों और पुलिस को दी जा रही असीमित शक्तियों की बात नहीं उठा सका जिस कारण भाजपा के लिए उनका प्रतिकार करना बहुत आसान रहा.
वास्तव में इस कानून के कठोर प्राविधान जिनका दुरूपयोग होने की पूरी सम्भावना है हमारी चिंता का मुख्य विषय होना चाहिए. इस कानून के अंतर्गत सबसे कड़ा प्रावधान यह है कि इसकी धारा 28(2) में सीआरपीसी की धारा 167 जिसमें न्यायालय को गिरफ्तार व्यक्ति को अपराध की प्रकृति के अनुसार 15 दिन, 60 दिन तथा 90 दिन तक जेल (न्यायिक हिरासत) में रखने के अधिकार को बढ़ा कर 60, 180 तथा 365 दिन कर दिया गया है. इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति इस कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया जाता है तो उसे एक वर्ष तक अदालत में मुकदमा शुरू होने से पहले जेल में रहना पड़ सकता है जब कि सामान्य कानून के अंतर्गत यह अवधि अधिकतम 90 दिन ही थी. इसके मुकाबले में आतंकवाद विरोधी कानून के अंतर्गत यह अवधि क्रमशः 30, 60 तथा 90 दिन ही है. इस प्रकार गिरफ्तार व्यक्ति को जेल में रखने के मामले में यूपीकोका के प्रावधान अधिक कठोर हैं. अब अगर यूपीकोका के अंतर्गत आरोपी व्यक्ति मुकदमे में छूट भी जाता है तो उसे विवेचना के दौरान 365 दिन तक जेल में रहना पड़ सकता है. यह सर्वविदित है कि पुलिस बहुत से मामलों में निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तार करके जेल में डाल देती है जहाँ उन्हें इस कानून के अंतर्गत लम्बे समय तक जेल में रहना पड़ सकता है.
इस कानून का ऐसा ही दूसरा कड़ा प्राविधान पुलिस रिमांड को लेकर है. वर्तमान में सामान्य अपराधों में पुलिस को अधिकतम रिमांड 15 दिन तक ही मिल सकता है जबकि इस कानून की धारा 28(3)(क) में इसे बढ़ा कर 60 दिन कर दिया गया है. इसके विपरीत आतंकवाद विरोधी कानून में पुलिस रिमांड की अधिकतम अवधि 15 दिन की ही है. यह सर्वविदित है कि पुलिस रिमांड के दौरान पुलिस हिरासत में गिरफ्तारशुदा व्यक्तियों का उत्पीड़न (टार्चर) किया जाता है जिस कारण कई बार उस व्यक्ति की मौत तक हो जाती है. हमारे देश में पुलिस हिरासत में टार्चर की शिकायतें बहुत अधिक होती हैं तथा पुलिस कस्टडी में मौतों की संख्या भी बहुत अधिक है. वैसे भी उत्तर प्रदेश पुलिस मानवाधिकार हनन के मामलों में देश में अव्वल है जैसा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों से स्पष्ट है. इसके अनुसार 2013-14 से 2015-16 के दौरान पूरे देश में से 44% शिकायतें अकेले उत्तरप्रदेश से थीं. इसी माह 10 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस के अवसर पर उत्तर प्रदेश मानवाधिकार आयोग ने भी कहा है कि मानवाधिकार हनन की 67% शिकायतें पुलिस के विरुद्ध हैं. अब यूपीकोका के अंतर्गत पुलिस रिमांड की अवधि को 15 दिन से बढ़ा कर 60 दिन करना पुलिस को टार्चर के लिए खुली छूट देना है.
इतना ही नहीं, इस कानून की धारा 33 (तीन) में जेल में निरुद्ध व्यक्ति से मुलाकात की प्रक्रिया को भी कठिन कर दिया गया है. इसके अनुसार जेल बंदी से मुलाकात जिलाधिकारी की पूर्वानुमति से ही हो सकेगी और वह भी हफ्ते में अधिकतम दो बार ही. इसी प्रकार इस कानून की धारा 28(4) के अंतर्गत आरोपी को किसी भी न्यायालय से अग्रिम जमानत नहीं मिल सकेगी. इस कानून की धारा 3 (ख) और 5 में यह प्रावधान किया गया है कि न्यायालय इस कानून के अंतर्गत किसी मामले में अदालती कार्रवाही प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा सकता है जिसका उलंघन करने पर सम्बंधित व्यक्ति को 1 माह की सजा तथा 1 हज़ार रूपये का जुर्माना तक हो सकता है. इस प्रकार यह कानून प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को भी प्रतिबंधित करता है. इसी प्रकार इस कानून में किसी व्यक्ति के एक मामले में दण्डित होने के बाद दूसरे मामले में बढ़ी हुयी सजा दिए जाने का भी प्राविधान है.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि यद्यपि यूपीकोका संगठित अपराध को कम करने में कुछ हद तक उपयोगी हो सकता है परन्तु इसमें विवेचना के दौरान आरोपी को सामान्य अपराध में अधिकतम 90 दिन की बजाये एक साल तक जेल में रखने तथा पुलिस रिमांड की अवधि 15 दिन से बढ़ा कर 60 दिन किया जाना मानवाधिकारों के हनन और टार्चर को बढ़ावा देना है. इस कानून के कई प्रावधान आतंकवाद विरोधी कानून से भी कड़े हैं जिनके दुरूपयोग की पूरी सम्भावना है.
लेखक एस.आर. दारापुरी यूपी में पुलिस महानिरीक्षक के पद पर कार्य कर चुके हैं और रिटायरमेंट के बाद फिलवक्त जन मंच उत्तर प्रदेश के संयोजक के रूप में समाज के शोषित तबके की लड़ाई लड़ रहे हैं.