Abhishek Srivastava : अब थोड़ा काम की बात। सीरियस बात। बनारस पूर्वांचल की सबसे बड़ी मंडी है और देश का सबसे व्यस्त तीर्थ। लोकसभा क्षेत्र तो वीवीआईपी है ही। वहां घाट किनारे डेरा डाल कर दस दिन से झख मार रहा था मैं। थोड़ा लिखा भी, जितना परता पड़ा। समझा क्या? ये बताना ज़्यादा ज़रूरी है। इसे स्टोरी लिख कर बताने के अपने खतरे हैं। सब्जेक्टिव हो सकता है।
आज की तारीख में अगर बनारस को केंद्र मानकर और वहां देश भर से आने वाले मतदाताओं को हाज़िर नाजिर मानकर सच बोलना हो, तो मैं कहना चाहूंगा कि भाजपा एक बार फिर बहुमत से आ रही है। मोदीजी का बाल भी बांका नहीं होने वाला है। इसमें एक शर्त है और एक विश्लेषण। शर्त ये, कि अगले एक महीने में भाजपा किसी कुल्हाड़ी पर उचक के कूद न पड़े। विश्लेषण ये है कि भाजपा की जीत उसकी अपनी उपलब्धि नहीं, विपक्ष की मूर्खता, आलस्य, आपसी सिर फुटौवल और दृष्टिहीनता का परिणाम होगी।
पांच साल हम लोग कहते रहे कि मीडिया आखिर विपक्ष से सवाल क्यों कर रहा है। पहली बार ऐसा लगा कि सवाल कायदे से कांग्रेस से, अखिलेश से, मायावती से ही किया जाना चाहिए कि बताओ नेता, तुम्हारी राजनीति क्या है। न ग्राउंड पर काम, न लोगों का भरोसा, आखिर कैसे आप मोदी एंड कंपनी को पछाड़ेंगे? लोग वाकई परेशान हैं, घुट रहे हैं, लेकिन बोल नहीं पा रहे हैं क्योंकि सुनने वाला कोई नहीं। इस वैक्युम को वामपंथी शायद भर पाते, लेकिन वे तो सिरे से नदारद हैं।
दिल्ली में बैठ कर सीटों के गणित से भाजपा को हराने का सपना देखने वालों को थोड़ा घूम आना चाहिए। ज़मीन खाली पड़ी है और हर जगह मोदी ही है। रसायन मिसिंग है। दस दिन पहले लग रहा था कि इस चुनाव में बहुत मज़ा आएगा। मुझे आशंका है कि पहला चरण बीतते बीतते कहीं यह चुनाव स्वतंत्र भारत का सबसे बेमजा चुनाव न बन जाए। फिर लोग उकता कर कहें कि भाड़ में जाए चुनाव सुनाव, जो करना है सो करो मोदीजी, तोहफा कुबूल करो। और २३ मई के बाद जनता की भारी मांग पर अचानक चुनाव आयोग ही न भंग हो जाए, जो मैं डेढ़ दर्जन बार लिख चुका हूं।
ये सब न हो तो बेहतर। हो ही गया तो मान लेंगे कि इस देश के लोग वही पाते हैं जो डिजर्व करते हैं। और किसी का टिकट बाकी है भाई???
Sheetal P Singh : उत्तर भारत में विपक्ष ने मोदी जी के समक्ष हथियार डाल दिये हैं । अब निहत्थे अवाम को अपनी लाज खुद सिर्फ हाथों से बचानी है क्योंकि उसके वस्त्र लेकर मीडिया पहले ही पेड़ पर चढ़ गया है।
पहले चरण के मतदान का नामांकन अठारह मार्च से शुरू है पर उत्तर प्रदेश में कुँवर अखिलेश अभी छठवें दौर की सीटों के कुनबी उम्मीदवार तय करने में व्यस्त हैं । बहन जी की हर सीट के बारे में चंडूखाने से बारह करोड़ से बाइस करोड़ रुपये तक की बोली की चर्चा प्रदेश की हर पान की दुकान चाय की दुकान और कटिंग सैलून से होकर प्रत्येक ड्राइंग रूम में जा पहुँची है ।खबर है कि सतीश मिश्रा इस के बारे में स्पष्टीकरण के कई ड्राफ़्ट लिख चुके हैं जिसमें से किसी एक को फ़ाइनल करने का बहनजी को अभी समय नहीं मिला है क्योंकि वे अभी कांग्रेस को सबक सिखाने की योजना बनाने में व्यस्त हैं !
बिहार में एन डी ए का हफ़्तों पहले सब फ़ाइनल हो चुका है जो 2014 में 90% सीट जीता था पर यूपीए वाले उस दूरबीन की खोज से लौट नहीं पाये हैं जिससे पैमाने तय हों क्योंकि ये पिछली बार 90% सीट हारे थे!
दिल्ली में केजरीवाल ने सिद्धान्त की राजनीति को खूँटी पर टाँग कांगरेस से समझौते की हर कोशिश कर ली पर कांग्रेस अभी Epoll करके कार्यकर्ताओं की राय ले रही है । हालत यह है कि अमेठी तक में बीजेपी हर बूथ पर जी जान लड़ा रही है पर 2014 में कुल 44 सीट पर सिमट गई पार्टी ग़लतफ़हमी के सबसे ऊँचे पहाड़ पर जा बैठी है और प्रियंका गॉधी को भी दॉव पर लगा चुकी है । बड़ी मुश्किल से राजस्थान और मध्य प्रदेश में एकदम बार्डर पर मिली जीत से बौराये कांग्रेसी मनेजर सिर के बल भी पूरे चुनाव भर खड़े रहें तो तीन अंक छूने लायक नहीं हो पायेंगे!
बीजेपी ने बीते चार साल में देश के लगभग हर जनपद में जमीन ख़रीदकर अपना अत्याधुनिक दफ़्तर बना डाला है । ये दफ़्तर वीडियो कान्फ्रेंसिंग समेत तमाम नई तकनीक से लैस हैं । करीब चार सौ लोकसभा सीटों से उनकी बूथ लेवल की मानीटरिंग और एनालिसिस दो साल से चल रही है।
विपक्ष को जो साँस मिल रही है वह दिल्ली को छोड़ दें तो मरहूम रोहित वेमुला हार्दिक पटेल जिग्नेश मेवानी कन्हैया कुमार चन्द्रशेखर आजाद जैसे युवा आंदोलनकर्मियों और दिलीप सी मंडल जैसे सोशल मीडिया के हस्तक्षेपकारियों के अनवरत प्रयास से मिल रही है । राहुल गांधी 2014-2017 तक छुट्टियाँ ही मना रहे थे , अखिलेश यादव खैर मना रहे थे और बहनजी ख़ामोश मोड में थीं । सिर्फ तेजस्वी सड़क पर थे क्योंकि उन्हे सड़क पर कर दिया गया था!
उत्तर भारत के सबसे बड़े सूबे में मुसलमान बड़ी पशोपेश में हैं। पहले मोदी के केंद्र में आ जाने और फिर योगी के लखनऊ में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आ जाने के बाद से उनकी सुरक्षा रोजगार और अस्तित्व पर अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। वे पुलिस और किस्म किस्म के धार्मिक नामों वाले अपराधी गिरोहों के निशाने पर हैं और उनके सामने ऐसी हालत में बच्चों को विश्वव्यापी वहाबी आंदोलन से प्रभावित होकर गलत राह पर चले जाने से बचाये रखने की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी आ पड़ी है। उनकी देशभक्ति पर हर आंख शक का सवाल लिए घूरती मिलती ही है।
किसी भी दूसरी समाजी संगत से कहीं ज्यादा मुसलमान इस सरकार का विकल्प चाहते हैं। वे लंबे समय से गैर संघी दलों को विभिन्न सूबों में थोक में वोट देते आ रहे हैं। उनके समाज के उम्मीदवारों को बहुमत हिन्दू समाज के ज्यादातर तबके वोट नहीं देते पर मुसलमान ओवैसी की जगह हिन्दू नेताओं की “सेक्युलर” कहलाने वाली पार्टियों को लगातार वोट दे रहे हैं।
इस बार वे राष्ट्रीय पैमाने पर कांग्रेस की तरफ देख रहे हैं पर स्थानीय कारक उन्हें भटकाते भी हैं, क्योंकि वे पा रहे हैं कि कांग्रेस को और कोई दूसरा समर्थक वर्ग मिल ही नहीं रहा। सवर्णो ने पुलवामा के पहले अपनी राय छिपा रक्खी थी, वे मुस्लिमों और पिछड़े व SC/ST में भ्रम फैला रहे थे कि वे कांग्रेस की ओर भी देख रहे हैं, जिससे मुस्लिम मतदाता उत्तर प्रदेश में गठबंधन और कांग्रेस में विभाजित हो रहे थे पर पुलवामा ने वह भरम तोड़ दिया। अब सवर्ण वृहत्तर हिन्दू समाज को देशभक्ति के नाम पर मोदी के पक्ष में खुलेआम बटोर रहे हैं और मुस्लिम समाज सकते में है।
दुनिया भर में वहाबी आंदोलन के प्रचार प्रसार ने मुस्लिम समाज को बाकी लोगों से अलग थलग करने में सफलता पाई है। भारत में RSS पहले से ही यह काम कर रहा था, नतीजतन मुसलमान अपने धार्मिक नेताओं के कब्जे में चले गए और हिन्दू संघियों के। सिर्फ रोजगार में आरक्षण का सवाल ऐसा है जो संघ के मंसूबे में रोड़ा बन जाता है, उसके इर्द गिर्द की पार्टियों का विपक्ष बन जाता है और मुसलमानों के पास किसी लालू या मुलायम के सिवा विकल्प ही नहीं बचता। देश में आर्थिक सवालों और नीतियों पर सवाल उठाने वालों की दिक्कत ये है कि न उनके साथ मुसलमान आता है न हिन्दू सो वे गायब होते जा रहे हैं (कम से कम चुनावी नतीजों में तो यह साफ ही है)!
जैसा कि लग रहा है विपक्ष बंटा ही रहने वाला है। यह स्थिति मुस्लिम मतदाता को भ्रमित रक्खेगी और ज्यादा संभावना यही है कि इससे उन्हीं को लाभ होगा जिनको लाभ पहुंचाना कम से कम मुसलमान तो नहीं चाहते!
चर्चित पत्रकार द्वय अभिषेक श्रीवास्तव और शीतल पी सिंह की एफबी वॉल से.