Om Thanvi : प्रतिबंध लगाना, थोपना भाजपा सरकारों की फितरत बनने लगा है। कोई किस वक्त कौनसी फिल्म देखे, राज्य तय कर रहा है। क्या खाएं, यह भी। अभी सिर्फ शुरुआत है, आगे देखिए। गौमांस के निर्यात में हम, अमेरिका को भी पीछे छोड़, भारी विदेशी मुद्रा कमा रहे हैं; मगर देश में राज्य गौमांस पर प्रतिबंध लगा रहे हैं। वह भी सभी राज्य नहीं लगा रहे। महाराष्ट्र और गोवा दोनों जगह भाजपा का राज है, पर गोवा – जिसका हाईकोर्ट मुंबई में है – प्रतिबंध से बरी है। वजह महज इतनी है कि महाराष्ट्र में प्रतिबंध से वोट बैंक मजबूत होगा, गोवा में कमजोर!
दरअसल गौहत्या – और कतिपय अन्य पशुहत्या – पर प्रतिबंध की गली संविधान ही छोड़ गया है, हालांकि उसका मकसद संभवतः धार्मिक नहीं बल्कि खेती और पशुपालन को बढ़ावा देना था। अब जब शासन धार्मिक आस्थाओं का ही लिहाज कर चल रहे हैं, तो मैं कहता हूँ गाय-सूअर की हत्या के साथ तमाम पशुओं को मारने, दुख देने पर प्रतिबंध लगा दो क्योंकि जैन धर्म में इसकी अपेक्षा की गई है; पशुओं से तैयार खाद्य-पदार्थों की बिक्री के साथ आलू-कंदमूल और प्याज-लहसुन उगाने-बेचने तक पर भी प्रतिबंध लगाओ, धर्म में उनकी की भी मुमानियत है। … जब हम दो धर्मों का खयाल रख सकते हैं तो चार का क्यों नहीं? (मैं जैन नहीं, पर ऐसे प्रतिबंध से मेरा भी निजी भला होगा, आप जानते हैं!)
Om Thanvi : साहित्यकार कैलाश वाजपेयी के निधन पर हिंदी ही नहीं, अंगरेजी के बड़े अखबारों ने अप्रत्याशित रूप से बड़ी खबरें और स्मृतिलेख छापे। यह सुखद था। लेकिन कल शाम जब कैलाश कैलाशजी की स्मृति में आयोजित सभा (अरदास) में गया तो देखा कि वहाँ हिंदी के सिर्फ दो साहित्यकार थे – अशोक वाजपेयी और मृदुला गर्ग। मित्रों की ओर से बोलने वाले राजनारायण बिसारिया। बाकी सब दिवंगत कवि के घर-परिवार के लोग थे, मित्र-बांधव, पत्नी रूपा वाजपेयी और बेटी अनन्या के परिचित। बात चली तो पता चला कि कैलाशजी के अंतिम संस्कार में भी साहित्यकारों की उपस्थिति बड़ी दयनीय थी। … इतनी बड़ी दिल्ली और साहित्यकारों का इतना छोटा दिल?
वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता अखबार के संपादक ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.