पत्रकारिता जगत का संघर्ष सूना कर गये छायाकार जगत… लखनऊ के युवा छायाकार जगत नहीं रहे। काफी दिनों से किडनी के मर्ज से परेशान 35 वर्षीय जगत का शुक्रवार की रात बलरामपुर अस्पताल में निधन हो गया।
आज शनिवार लखनऊ के गोमतीनगर स्थित बैकुंठधाम में इनका अंतिम संस्कार किया गया। राज्य मुख्यालय मान्यता प्राप्त छायाकार जगत इन दिनों वारिस-ए-अवध से जुड़े थे। करीब बारह वर्ष तक वो निरंतर विभिन्न दैनिक समाचारपत्रों में बतौर छायाकार अपनी सेवाएं देते रहे।
इस युवा फोटो जर्नलिस्ट की ख़ास बात ये थी कि ये पत्रकारिता जगत के संघर्षों की मिसाल था। करीब दस वर्ष पहले एक दैनिक अखबार में जगत मेरी लोकल टीम का एक सदस्य था। स्थानीय समस्याओं की पड़ताल के लिए जमीनी हक़ीकत शीर्षक से हम वार्ड दर वार्ड रोजाना एक पेज की एक रिपोर्ट तैयार करते थे। उस टीम में चार रिपोर्टर और दो छायाकार होते थे। जगत इस टीम का हीरा था।
एक दशक पहले तब पहली बार मैंने इस नवोदित, उत्साही, समर्पित और कर्मठ युवा छायाकार की योग्यता पहचानी। प्रतिभा के धनी होने के बाद भी कमजोर माली हालत और तमाम संघर्षों में घिरे जगत को करीब से देखकर मैंने एक छायाकार की जिन्दगी की ज़मीनी हक़ीकत को जाना।
ये बातें बहुत सामान्य है, किंतु अब स्मरण बन चुकी जिस सच्चाई को बयां करने जा रहा हूं ये सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे।
करीब डेढ़ वर्ष सिविल अस्पताल चौराहे पर मैं अपने मित्र संजय के साथ चाय पी रहा हूं। जगत कैमरे वाला झोला टांगे हुए बाइक से गुजरते हुए मुझे देखकर रुक जाता है।
मैंने पूछा- कैसे हो जगत, बहुत दिनों बाद दिखे।
ठीक नहीं हूं। किडनी खराब हो गयी है। मंहगा इलाज और घर की जिम्मेदारियां झेल पाना बहुत कठिन हो गया है।
मित्र संजय ने जगत से पूछा : क्रिटीनाइन रिपोर्ट कितनी है
जगत : नौ
संजय : भक झूठे.. नौ होती तो जिन्दा कैसे होते ! मर गये होते या डाइलिसिस पर होते।
जगत : जिन्दगी की जरूरतें मरने नहीं देतीं। हां ये सच है कि जिसकी किडनी बहुत ज्यादा खराब हो चुकी होती है उनकी ही क्रिटीनाइन रिपोर्ट नौ तक पंहुच जाती है। ऐसे पेशेंट डाइलिसिस पर होते हैं। पर पेट की जरूरत इतनी ताकतवर होती है कि हम डाइलिसिस से उठकर कैमरा टांग कर दिनभर फील्ड में रहते हैं। तकलीफ बढ़ जाती है तो फिर अस्पताल पंहुच जाते है। बस नेगी जी यही संघर्ष चल रहा है।
(जगत मुझे नेगी जी कहता था।)
ख़ैर, आज सुबह पत्रकारिता जगत के संघर्ष की मिसाल जगत के चले जाने की खबर सुन कर ये सब बातें याद आ गयीं।
लालकुआं स्थित उसके घर पंहुचा और फिर बैकुंठधाम गया।
अफसोस के साथ ताज्जुब भी हुआ। पत्रकारो, पत्रकार संगठनों और पत्रकार नेताओं की भीड़ वाले इस शहरे लखनऊ के इस कर्मठ मीडिया कर्मी की अंतिम यात्रा में बमुश्किल आठ-दस पत्रकार-छायाकार मौजूद थे। जन्मदिन और शोकसभा वाले दो सिरों के शून्य में एक बार फिर मरघट पर शून्य सा सन्नाटा था।
मैं मरघट से बाहर निकला तो सन्नाटा टूट गया। पत्रकारों के वाट्सएप ग्रुप में धनाधन मैसेज आना शुरु हो गये थे। पहले आओ-पहले पाओ की तर्ज पर शोकसभाओं और शोकसंदेशों का राजनीतिकरण शुरू हो चुका था। वाट्सएप पर एक पत्रकार संगठन का एक पदाधिकारी इरशाद फरमा रहा था कि सब पत्रकार पैसा इकट्ठा करके मृतक छायाकार के परिजनों की आर्थिक मदद करें।
जिस मीडिया कर्मी की मौत पर उसके पेशे के बीस लोग भी इकट्ठा नहीं हुए थे उसी पेशे के वाट्सएप ग्रुपस पर दनादन शोकसंदेशों की तादाद दो सौ से भी अधिक पंहुच गयी थी- RIP, RIP, RIP, दुखद.. दुखद..दुखद..RIP, RIP, RIP, दुखद, दुखद, दुखद..नमन..नमन नमन..अफसोस.. अफसोस..श्रद्धांजलि
वरिष्ठ पत्रकार नवेद शिकोह की रिपोर्ट। सम्पर्क- 9918223245