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कल के हॉकर ही आज के टीवी ऐंकर हैं!

खबरिया चैनलों के ऐंकरों को मामूली से मामूली खबर पर गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते देखता-सुनता हूँ, तो बरबस चालीस साल पहले के एक न्यूजपेपर हॉकर की याद ताजा हो जाती है। वह अखबार लेकर गोरखपुर शहर की गलियों-मुहल्लों में साइकिल पर सवार होकर घूमता रहता था। ठीक आजकल के टीवी ऐंकरों की तरह किसी खबर का ऐसे बेहूदे ढंग से हल्ला मचाता था कि सुनने वाले को लगता था कि जरूर कहीं कोई अनर्थकारी घटना हो गयी है। कौतूहल और उत्सुकता के मारे लोग उसे रोकने थे और न चाहते हुए भी अखबार की एक प्रति खरीद लेते थे।

<p>खबरिया चैनलों के ऐंकरों को मामूली से मामूली खबर पर गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते देखता-सुनता हूँ, तो बरबस चालीस साल पहले के एक न्यूजपेपर हॉकर की याद ताजा हो जाती है। वह अखबार लेकर गोरखपुर शहर की गलियों-मुहल्लों में साइकिल पर सवार होकर घूमता रहता था। ठीक आजकल के टीवी ऐंकरों की तरह किसी खबर का ऐसे बेहूदे ढंग से हल्ला मचाता था कि सुनने वाले को लगता था कि जरूर कहीं कोई अनर्थकारी घटना हो गयी है। कौतूहल और उत्सुकता के मारे लोग उसे रोकने थे और न चाहते हुए भी अखबार की एक प्रति खरीद लेते थे।</p>

खबरिया चैनलों के ऐंकरों को मामूली से मामूली खबर पर गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते देखता-सुनता हूँ, तो बरबस चालीस साल पहले के एक न्यूजपेपर हॉकर की याद ताजा हो जाती है। वह अखबार लेकर गोरखपुर शहर की गलियों-मुहल्लों में साइकिल पर सवार होकर घूमता रहता था। ठीक आजकल के टीवी ऐंकरों की तरह किसी खबर का ऐसे बेहूदे ढंग से हल्ला मचाता था कि सुनने वाले को लगता था कि जरूर कहीं कोई अनर्थकारी घटना हो गयी है। कौतूहल और उत्सुकता के मारे लोग उसे रोकने थे और न चाहते हुए भी अखबार की एक प्रति खरीद लेते थे।

वह कहता था– बाबू जी, अखबार नहीं बिकता, खबर भी नहीं बिकती, बल्कि हेडिंग बिकती है। और वह भी तब जब हेडिंग तोड़-मरोड़ कर बेची जाती है। नहीं जानता कि परदेसी अब कहॉं और किस हाल में है। वह हाईस्कूल या इंटरमीडिएट तक पढ़ा भी था। और उसका नाम शायद परदेसी ही था। लोगों को चूतिया बना कर खबर की हेडिंग बेचने की यह बुद्धि उसकी अपनी थी और यह पूरा का पूरा आइडिया भी उसका अपना था। यह सब न तो उसने किसी से सीखा था और न ही किसी ने उसे सिखाया था। उसकी इन बेढंगी हरकतों से बहुत से लोग उसे पागल मानने लगे थे तो बहुत से लोग उसे प्यार भी करने लगे थे।

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कुल मिला कर कह सकते हैं कि जीने-खाने का उसने अपने तरीके का एक रास्ता खोज लिया था। और कमाल देखिये– वह साइकिल के कैरियर पर जितना अखबार लेकर निकलता था, दो-चार घंटे में सब बिक जाता था। अब उसकी कला पर आते हैं। मान लीजिए अखबार में चोर पकड़े जाने की खबर छपी है और चोर का नाम राजेश है। बस, उसकी कला जाग जाती थी। वह हल्ला मचाता था– राजेश खन्ना चोरी करते पकड़े गये। जो लोग उसकी मंशा जान चुके थे, वे समझ जाते थे कि माजरा क्या है। लेकिन कोई नया पंछी उसके झॉंसे में जरूर आ जाता था। वैसे, सब कुछ जानते हुए भी बहुत सारे लोग मौज के लिए अथवा इस भाव से कि गरीब की मदद हो जाएगी, अखबार खरीद लेते थे। मुझे लगता है कि आजकल  खबरिया चैनलों के ऐंकर परदेसी नाम के उस हॉकर की ही भूमिका निभा रहे हैं। ये पत्रकार तो कहीं से नहीं लगते।

लेखक विनय श्रीकार वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई अखबारों में संपादक रह चुके हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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