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सुख-दुख

पत्रकार कहते ही लोगों के दिमाग में दो बातें आती हैं- दलाल होगा, जुगाड़ू होगा!

संजय सिन्हा-

हे भगवान! पत्रकार ही बना दो…

मेरे एक जानने वाले ने मुझसे पूछा है कि उनके किसी परिचित के बेटे को पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए कॉलेज में दाखिला कैसे मिल सकता है?
मेरा जवाब सीधा था, “वैसे ही, जैसे मिलता है।”
“मतलब मेरिट से?”
“हां, क्राइटेरिया तो यही है। यही होना चाहिए।”
“संजय जी, असल में वो पढ़ने में अच्छा नहीं है। कामचलाऊ है। उसके पिताजी को लगता है कि उसे किसी अच्छे कोर्स में एडमिशन नहीं मिलेगा तो उन्होंने सोचा है कि बारहवीं के बाद उसका एडमिशन पत्रकारिता कोर्स में करा दें।”

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मेरे जानने वाले आगे भी कुछ-कुछ बोल रहे थे लेकिन मेरे कान बंद हो चुके थे। क्या आजकल जो बच्चे कुछ और नहीं कर सकते वो पत्रकार बनना चाहते हैं?
मैं मानता हूं कि जयप्रकाश नारायण आंदोलन से निकले सारे ठलुआ टाइप के विद्यार्थी या तो नेता बने या हिंदी वाले पत्रकार। पर समय के साथ राजनीति और पत्रकारिता ऐसे ही लोगों की खेप बन कर रह ही रह जाएगी, ये सोच कर अफसोस होने लगा है।

बहुत साल पहले मैं जब किसी से मिलता था तो शान से कहता था कि मैं पत्रकार हूं। लेकिन अब छुपाता हूं। मुझे मालूम है कि पत्रकार कहते ही लोगों के दिमाग में दो ही बातें आती हैं। दलाल होगा। जुगाड़ू होगा।
पत्रकार सुन कर कई लोग भाव भी देते रहे हैं, इसी उम्मीद में किसी दिन कहीं कोई काम पड़ा तो इनके ज़रिए किसी नेता-वेता को कह कर करा लेंगे।

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किसी ने आज तक मुझसे सरोकार की पत्रकारिता के लिए संपर्क नहीं किया है। जिसने संपर्क किया, उस काम के लिए किया, जो काम कायदे से बिना सिफारिश के होना चाहिए था।
मसलन, अस्पताल में इलाज नहीं हो रहा है। स्कूल में बच्चे का एडमिशन नहीं हो रहा है। पुलिस एफआईआर नहीं लिख रही है। ऐसे बहुत से काम जिनमें सिफारिश की ज़रुरत नहीं, जो आपके अधिकार के हिस्सा हैं, उसकी पैरवी का काम पत्रकारों से कराया जाता है।

पत्रकार पैरवीकार होते हैं। क्योंकि वो किसी के पक्ष में, किसी के विपक्ष में खबर लिख सकते हैं, छाप सकते हैं, नहीं छाप सकते हैं, टीवी पर दिखला सकते हैं, दिखलाने से रोक सकते हैं इसीलिए वो काम के हैं। पर ये पत्रकार हैं कौन?
वो विद्यार्थी जिन्हें पता है कि वो कुछ और नहीं कर सकते।
मैं कभी-कभी सोचता हूं कि हमने दुनिया ऐसी क्यों बना ली है? वैसे तो इस पेशे में उन विद्यार्थियों को आना चाहिए था, जो बाकियों से अधिक मेधावी होते। उन्हें आना चाहिए था, जो देश, दुनिया, विज्ञान, खेल, राजनीति, समाज को समझते हों। पर हुआ क्या?

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जो कुछ नहीं कर सकता है, वो पत्रकार बनने को तैयार है।

मैंने कई लोगों से समय-समय पर इस विषय पर चर्चा की है।

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शुरू में मैंने ऐसे लोगों को पत्रकार बनते देखा है, जिनके लिए किसी ने कह दिया कि अरे भाई इन्हें कहीं छोटा-मोटा काम दे देना। हज़ार डेढ़ हज़ार रुपए में इनका काम चल जाएगा। ऐसे में कोई न्यूज जैनल की लाइब्रेरी में असिस्टेंट बन कर घुसा, कोई फुटेज इधर से उधर टेप ढोने के नाम पर। घुसने के और भी आधार रहे, लेकिन ये इतने जूनियर पोजिशन पर घुसे कि किसी की नज़र ही नहीं गई इन पर। समय के साथ ये ‘ग्रो’ करने लगे। सिस्टम के भीतर का सिस्टम समझने लगे। समझने लगे कि असल में करना क्या है?

और इन्हीं में से धीरे-धीरे कुछ संपादक बनते चले गए। धीरे-धीरे मीडिया का ये हाल हुआ है, अधिकतर लोग ये कहते हुए मिलते हैं कि उन्होंने तो न्यूज देखना ही बंद कर दिया है। क्यों? क्या देखेंगे? वास्तव में देखने योग्य कुछ बचा ही नहीं है। घटना घटेगी, कैमरामैन उसे शूट कर लेगा तो आप दिखला ही सकते हैं। उसमें क्या ज़रूरत है ज्ञान की, विज्ञान की, सामाजिक समझ की, चेतना की?

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पिछले दो दशकों में नेताओं को ऐसे पत्रकार खूब पंसद आए, जो उन्हें कुछ-कुछ अपनी तरह ही लगते थे। “भाई, मेरा प्रचार करो, अपना फायदा कमाओ।” दोनों के गठजोड़ ने मीडिया जगत को कमजोर कर दिया। इतना कि मेरे परिचित मुझसे डंके की चोट पर बता रहे थे कि फलां पढ़ने में ठीक नहीं, उसे पत्रकार कैसे बनाया जा सकता है?
(मेरे एक परिजन ने कल मुझे टोका था कि संजय जी, इन दिनों आप कुछ भी लिखते हैं तो पता नहीं क्यों पुलिस को ज़रूर ठोकते हैं।

देख लीजिए आज मैंने पुलिस का नाम भी नहीं लिया, अन्यथा मेरे पास मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर से एक शिकायत आई थी कि एक एफआईआर के लिए वो थाना दर थाना भटकते रह गए, कुछ हुआ नहीं। मैं चाहता तो उनकी पूरी शिकायत लिख देता, साथ ही लिख देता कि पुलिस में भी अब ऐसे ही लोग हैं, जिनका मकसद बस पैसा कमाना भर है लोगों पर वर्दी का रौब दिखला कर। झूठे मामलों में फंसा कर, सच्चे मामलों में कोई कार्रवाई नहीं करने का आश्वासन देकर। पर मैंने आज पुलिस पर कुछ नहीं लिखा। नहीं लिखा कि मध्य प्रदेश में पुलिस ऐसी बाड़ बन गई है जो अब खेत खा रही है। जिन्हें पुलिस पर अथाह भरोसा होना चाहिए था, वही पुलिस से सबसे अधिक निराश हैं।

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(क्योंकि मैंने आज तय किया था कि पुलिस के बारे में कुछ नहीं लिखना है इसलिए मैंने पूरी खबर आज दबा दी है, जैसा कि पत्रकार अक्सर करते हैं।)

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