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मध्य प्रदेश

ABVP की रैली में बंधक बना बीमार शिशु, कई किमी तक बुआ पैदल दौड़ीं तब बची जान (देखें तस्वीरें)

 

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जनता जिये या मरे, नेता को फर्क नहीं पड़ता। वो सिर्फ खेद प्रकट करता है और अपने अगले काम में लग जाता है। सलमान खान की एक फ़िल्म आई थी “जय हो”। उसमें एक सीन में दर्शाया गया था कि कैसे नेता या उनके परिवारीजन अपनी सहूलियत के लिए जनता को तकलीफ देते हैं। वो सीन भले फ़िल्म का था लेकिन उसमें दर्शायी हकीकत आजकल के नेताओं और उनके दलों पर पूर्णतया सटीक बैठती है। अपनी ताकत दिखाने नेता / दल / पार्टियां अक्सर आम जनता को कष्ट देती हैं। यहां तक की उनकी जान भी ले लेती हैं।

 

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जनता जिये या मरे, नेता को फर्क नहीं पड़ता। वो सिर्फ खेद प्रकट करता है और अपने अगले काम में लग जाता है। सलमान खान की एक फ़िल्म आई थी “जय हो”। उसमें एक सीन में दर्शाया गया था कि कैसे नेता या उनके परिवारीजन अपनी सहूलियत के लिए जनता को तकलीफ देते हैं। वो सीन भले फ़िल्म का था लेकिन उसमें दर्शायी हकीकत आजकल के नेताओं और उनके दलों पर पूर्णतया सटीक बैठती है। अपनी ताकत दिखाने नेता / दल / पार्टियां अक्सर आम जनता को कष्ट देती हैं। यहां तक की उनकी जान भी ले लेती हैं।

इंदौर का ताजा उदाहरण ले लीजिये… राजनीतिक पार्टियों / दलों के इस शक्ति प्रदर्शन से कैसे आम जनता की जान पर बन आती है इसके तमाम उदाहरणो में ताजा उदाहरण 26 दिसम्बर सोमवार को इंदौर में निकली ABVP (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्) की रैली में देखने मिला। करीब 3 घण्टे तक इंदौर के एक हिस्से में जहां यातायात प्रभावित रहा। वहीं 1 मासूम की जान पर बन आई। नतीजन उसकी बुआ को खुद गोदी में उठाकर कई किमी दौड़कर बच्चे को अस्पताल पहुंचना पड़ा। शुक्र इस बात का है कि तत्काल ट्रीटमेंट से बच्चे की जान बच गई।

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अब जरा कल्पना कीजिये कि अगर बच्चे की जान नहीं बच पाती तो बेशर्म नेताओं में से कौन इसकी जिम्मेदारी लेता? आपको बता दूं नेता कभी जिम्मेदारी नहीं लेता। वो सिर्फ खेद प्रकट करके अपने काम में लग जाता है। और पीछे रह जाते हैं वो मूर्ख लोग जो इन नेताओं को अपना हमदर्द समझते हैं। उनकी खुशामद करते हैं। उनके पैर छूते हैं। यह जन समर्थन तो कतई नहीं, प्रलोभन देकर बुलाई भीड़ जरूर होती है…

अब सवाल यह कि रैली निकालने का यह तरीका क्यों? आप किसको ताकत दिखा रहे हैं? और यह ताकत कौन से आपके  जनसमर्थन की है? यह ताकत जन समर्थन की तो कतई नहीं होती। यह तो तरह-तरह के प्रलोभन देकर बुलाये लोगों की भीड़ होती है। कोई बोलता है उसे खर्चा चाहिए। किसी की गाड़ी में मुफ़्त का पेट्रोल डलता है। तो किसी को प्रति व्यक्ति लाने पर कमीशन मिलता है। अब पैसों के लिए झण्डा उठाकर घण्टो नारेबाजी करने वालों से नैतिकता की उम्मीद रखनी भी फजूल है। और जहां ऐसे ही लोग बहुतायत हों वहां जान-माल की हानि होना तय होता है।

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आशीष कुमार चौकसे
पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक और ब्लॉगर
[email protected]

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