अर्जुन शर्मा-
कोई ऐसे भी करता है, जैसा तुम कर गुजरे। तुम तो रिश्तों के समाजशास्त्र को बहुत गहराई से समझते थे। तुम रिश्तों को अंधाधुंध बढ़ाने वाले तो कत्तई न थे पर जो रिश्ते बन जाते उन्हें सहेजने में तो तुम उस्ताद थे। रिश्तों में तुम्हें पूरे ईमानदार होने का सर्टिफिकेट तो नहीं दे सकता पर आजकल रिश्तों में अकाल जैसे दौर में तुम्हारी औसत बेहतरीन थी। यही कारण रहा कि तुम्हारी कुछ गलतियों को भी तुम्हारे दोस्त मासूमियत के दायरे में रख कर तुमसे सहज ही रहते थे।
मुझे याद है, दो साल पहले जब अपने पूरे जीवनकाल के दौरान लिखने के मामले में तुम सबसे सक्रिय दौर में थे। तब तुम्हारे में श्रद्धांजलियां व यादों से मिट रही स्वर्गवासी हस्तियों के बारे में लिखने का जुनून सा सवार था। और जब तुम किसी के बारे में भी डूब कर लिखते तो पढ़ने वालों को सन्न कर देते थे। मैंने तुम्हें टोका था कि लगता है इस प्रकार के लेखन को भी तुम एक नई विद्या बनाकर ही दम लोगे। तुमने एक बार मुझे पलट कर कहा था, “भाजी, जो भी हो पर मेरी श्रद्धांजलि तुम लिखना।” काली जुबान वाला।
तुम याद करो। लोहड़ी का दिन था. शाम का धुंधलाका और 2004 के धुंध व कोहरे से भीगा मौसम। तुम्हारा फोन आता है,” मुझसे आखरी बार पठानकोट चौक पर आकर मिल लो, मैं सुसाईड करने जा रहा हूं।” मेरा घर चौक के साथ ही था, मैं तुम्हें साथ ले आया पर तुम्हारी ढेर सारी शर्तें मानने के बाद, ”आप किसी को बताओगे नहीं कि मैं आपके पास हूं। आपके घरवालों (मेरी बीवी को छोड़ कर) को आज भी पता नहीं चलने पाए कि मैं आपके पास आया हुआ हूं। मुझे ज्यादा डिस्टर्ब न किया जाए।”
मैंने तुम्हें कार की पिछली सीट पर छुपाया व कार को घर के अंदर घुसा दिया ताकि तुम बिना किसी की नजर में आए सीधे सीढ़ियां चढ़ कर मेरी पहली मंजिल वाली रिहायशगाह में सुरक्षित व बिना किसी की नजर में आए पहुंच सको। तब मेरे घर में नीचे वाले पोर्शन में मां रहती थी जिनके घुटने इतने खराब थे कि वे सीढ़ियां चढ़ने का सपना देख कर हास्पिटल केस बनने जैसी हालत में थी। छोटा भाई परिवार सहित अपने नए घर में शिफ्ट हो चुका था। पिता जी छोटे के साथ रहते थे। यानि अमरीक के लिए मेरे घर में टिकने के आदर्श हालात थे।
छोटे भाई का पहली मंजिल वाला बेडरूम खाली था सो अमरीक जी को कोई समस्या न थी। मेरे बच्चों को चाचू फिर से मिल गए (छोटे भाई के जाने से वे उदास हो गए थे) मेरी पत्नी को देवर-भाई व बेटे जैसा मिला जुला संस्करण। वो मेरे पास चार साल तक रहा। उसके चरित्र का कोई जवाब ही न था। उसकी बातों से रस टपकता था पर वो रस हर समय उपलब्ध नहीं होता था।
मुझे धीरे-धीरे ऐसी आदत हो गई जैसे अमरीक मेरे घर में नहीं मैं अमरीक के घर में रह रहा हूं। सवेरे नाश्ता बनता तो बच्चे सबसे पहले पराठें वाला लॉट चाचू के लिए उठा लेते। चाचू साधारण पुरुष तो थे नहीं इसलिए उनके कमरे का दरवाजा खटखटाना मना था। जब वे चाहें, उठकर दरवाजा खोलें व मुझे आवाज दें, ”आईए अर्जुन जी।” मेरा डियूटी टाईम होता। फिर भी औपचारिकता वश भाई के साथ दस मिनट बिताना रुटीन था। तब बच्चे नाश्ता लेकर आते व चाचा का वही सनातन जवाब, ”रख दो।” पर खाते मुश्किल से एक परांठा।
वे मेरे मुकाबले मेरी फैक्ट्री के फोरमैन से ज्यादा ओपन थे। वो उनका राजदार था। हर हफ्ते बचे पराठों को गाय के सुपुर्द करके आने उसकी जिम्मेवारी थी। किसी को कानो कान खबर न हो पाए। मेरी माता जी को सभी झाई जी कहते थे, उनकी नजरें बहुत तेज थी पर अमरीक का दिमाग उनकी नजरों से भी तेज था।
दोपहर को फोरमैन उन्हें पानी देने के बहाने आता और पव्वा भी सरका जाता। साहिब कमरे से बाहर नहीं निकलते थे। अगर पानी खत्म हो जाता तो फोरमैन पहले से तयशुदा हिदायत के मुताबिक खाली हाथ झाड़ता व माता जी से बचते बचाते पहली मंजिल पर आ जाता व गर्मी की चिलचिलाती धूप में टंकी के उबलते पानी से उनकी खाली बोतल भर कर दे जाता। अमरीक को आशंका होती कि कहीं दोपहर को नीचे के फ्रिज से पानी मंगवा लिया तो झाई जी कहीं ताड़ न जाएं कि दोपहर को ही….।
वो मेरे साथ लगभग चार साल रहा। मुझे एक दिन भी अहसास नहीं हुआ कि वो मेरा मैहमान है। बेटी बड़ी हो रही थी। वो पहले दिन से चाचू की गोद में खेली थी। वो चाचू की चिड़िया थी। फिर पता चला कि उसने शराब छोड़ दी। मेरे लिए बड़ी मुश्किल घड़ी थी। घर की सारी वोटें, मां से लेकर बेटी तक अमरीक के साथ। मैं रात को घूंट लगाने का शौक रखता हूं, साला मेरा जीना हराम हो गया।
जब वो घर से हिमाचल के लिए चार साल बाद प्रस्थान कर गया और अखबारों की रद्दी से कबाड़खाना बने उसके कमरे की सफाई करवाई तब जाकर पता चला कि वो कितना पाखंडी था। वो कमरा प्राक्सिवान की जात बिरादरी के कैप्सुल-गोलियों के खाली पत्तों की कब्रगाह बना हुआ था, अखबारों के ढेर के नीचे। मेरी बीवी हक्की बक्की थी, उसने कहा, ”तभी मैं सोचूं कि भैय्या कमरे की सफाई करवाने के इतने खिलाफ क्यों थे।” पर उसके जाने के बाद कई साल तक हमें ये अहसास सालता रहा कि जैसे कुछ मिसिंग है। वो जब भी फोन करके कहता कि वो दो दिन के लिए आ रहा है तो मेरे घरवालों के लिए उन दो दिनों का इंतजार ईद-दिवाली जैसा होता।
उसने मुझे बहुत कुछ सिखाया, बहुत कुछ दिया। अपनेपन का अहसास दिया। छोटे भाई का सम्मान दिया। पढ़ने लिखने वालों की दुनिया से मेरा गंभीर राबता करवाया। अशोक अजनबी, गैरी, मनोज नैय्यर, साबी, बठिंडे वाला सुभाष, अलीगढ़ वाले क्रांतिपाल। और पता नहीं कितने मित्रों से उसने मेल कराया।
मजेदार बात ये थी कि वो वामपंथी था और मैं भाजपा प्रशंसक। बहस भी होती पर गर्मा-गर्म नहीं। वो मुझे बख्श देता-मैं उसे माफ कर देता। यारी कायम। ये कथा कहां तक लिखूं। जीवन के पच्चीस साल का बीता दौर है, एक चौथाई सदी। किताब बन जाएगी।
बात समाप्त करूं, आखिरी दौर में उसका एकांत ही उसके लिए जानलेवा हो गया। तीन-चार बार गंभीर बीमार हुआ दोस्तों ने संभाला। परिवार को वह बहुत पहले ही त्याग चुका था। उसकी त्रासदी देखिए, दुनिया में जिससे भी मिला, रिश्ते बनाता चला गया। पर उससे अपनों के साथ वैसा संतुलन साधा ही न जा सका। ”बहुते रोणगे दिलां दे जानी..मापे तेनू घट्ट रोणगे”
उसकी जीवन यात्रा का अंत पटियाला में जाकर हुआ। जिस धन्ना भगत वृद्ध आश्रम में उसकी सेवा हुई उन्हीं के तत्वाधान में अमरीक भीतर के तंतुओं के मिटते जाने की स्थिति में राजेंद्रा अस्पताल दाखिल करवाया गया और वहीं से वो उस परमपिता परमात्मा की ज्योति में लीन हो गया जिसका वो अंश था।
Lakhvinder Singh
October 16, 2024 at 6:48 pm
हृदय को झकझोर देने वाली विपरीत विचारों के धरातल पर निभती मित्रता, यदा कदा ही देखने व सुनने को मिलती है।
आप दोनों को साधुवाद।