चचा रजनीकर नहीं रहे, पार्थिव शरीर मेडिकल कालेज को सुपुर्द

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Ajay Gupta : अशोक रजनीकर पत्रकारिता के क्षेत्र के एक सुविख्यात नाम रहे हैं. 78 साल की उम्र में एक लंबी बीमारी के बाद शुक्रवार को लखनऊ में उनका निधन हो गया. उनकी पत्नी नसीमा रजनीकर ने मेडिकल कालेज को उनकी इच्छा अनुरूप उनका देह दान कर दिया. जरूरतमंद को उनका कार्निया लगाकर उसके जीवन में रोशनी भर दी. नेशनल हेरल्ड ग्रुप के नवजीवन, जागरण, पाटलीपुत्र टाइम्स जैसे दर्जनों अखबारों को अपनी सेवाएं दीं. बीमार होने से वह दैनिक राष्ट्रीय सहारा में संपादकीय लिखते रहे. वह आजीवन कम्युनिस्ट विचारधारा के वाहक रहे. हिंदू मुस्लिम एकता के कट्टर हिमायती रहे. रिश्ते में अशोक रजनीकर जी मेरे मामाजी थे. पत्रकारिता इन्होंने ही मुझे सिखायी थी. नवजीवन में नौकरी भी दिलायी थी. आगरा, लखनऊ, पटना इनके पत्रकारिता का क्षेत्र रहा. पटना में हिंदुस्तान, पाटलीपुत्र में सहायक संपादक रहे. राष्ट्रीय सहारा में संपादकीय प्रमुख थे. व्यंग्य लेखन में निपुण थे. देश के प्रमुख अखबारों में हर विषय पर उनके लेख छपते रहे हैं.

अशोक रजनीकर जी.

Aaku Srivastava : दुखद। चचा रजनीकर नहीं रहे। सत्तर – अस्सी – नब्बे के दशक में लखनऊ में पत्रकारों के बीच लोकप्रिय। वह काफी लंबे समय से बीमार चल रहे थे। अस्सी वर्षीय श्री अशोक रजनीकर दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, प्रदीप आदि अखबारों से जुड़े रहे। रजनीकरजी ने काफी समय पहले ही अपना देहदान मेडिकल कालेज को कर दिया था इसलिए उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनका पार्थिव शरीर मेडिकल कालेज को सुपुर्द कर दिया जाएगा। श्रद्धांजलि।

Bipendra Kumar : अकु जी की पोस्ट से दुखद खबर मिली कि चचा रजनीकर यानी अशोक रजनीकर नहीं रहे। खबर मिलते ही पाटलिपुत्र टाइम्स के दिनों की उनसे जुड़ी यादें ताजा हो गई। “आपकी खबर समय पर नहीं आयी डाक्टर साहब। अब इसे लेने में अखबार लेट हो जाएगा, इसलिए खबर आज नहीं जा पाएगी।” अखबार मालिक से फोन पर इस अंदाज में बात करने का माद्दा रखने वाले बेखौफ समाचार संपादक थे चचा। याद करने पर लगता है हम आज कहाँ से कहाँ पहुंच गए हैं। चचा ने शरीरदान का वादा कर दुनिया को अलविदा कहा है। इस कारण उनका शरीर मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया जाएगा। नमन चचा रजनीकर को…

Nagendra Pratap : लो पढ़ लो इस कलमकार की देह… चचा रजनीकर अगर आज कहीं मिल जाते तो उनका कोई भी चाहने वाला, कम से कम मैं तो उनसे यही पूछता कि चचा तुम्हारी इस काया को पढ़ने में चिकित्सा विज्ञानियों और उनके छात्रों को इतने पेंचों से गुजरना होगा कि वे कन्फ्यूज हो जाएंगे कि वे किसी इंसान की देह पढ़ रहे हैं या 21वीं सदी की कोई कम्पयूटर-नुमा मशीन। चचा ऐसे ही थे। उनकी दुबली-पतली काया में विद्रोह की ऐसी आग थी जिसने बहुतों को ऊर्जा दी। हमने साथ में काम तो कुछ ही साल किया लेकिन कह सकता हूं कि ‘दोस्ती’ बहुत लंबी थी। चचा शायद अकेले ऐसे इंसान जिनके साथ बातचीत में उम्र कभी आड़े ही नहीं आई। बिना देखे कोई वार्तालाप सुनता तो मान ही नहीं सकता था कि दो पीढ़ियां भी इस तरह संवाद कर सकती हैं।

माधवकांत मिश्र जी की पहल पर चचा के साथ ही लखनऊ में ‘दैनिक जागरण’ छोड़कर एक ‘अप्रत्याशित गंतव्य’ पटना की ओर चले थे हम चार लोग। यानी अशोक रजनीकर, ज्ञानेन्द्र नाथ, सुकीर्ति श्रीवास्तव और मैं। कहना न होगा कि यह अदभुत अनुभव था। हम सब के जीवन का टर्निंग प्वाइंट। रजनीकरजी जागरण के बाद ‘अमृत प्रभात’ जा चुके थे और वहीं से पटना के लिए चले थे। 1 जनवरी 1985 को ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ की अद्भुत अनुभव वाली लांचिंग, फिर ‘प्रदीप’ में कुछ वक्त बिताते हुए 1986 में पटना से ही ‘हिन्दुस्तान’ की शानदार लांचिंग। रजनीकर जी की इस सब में बड़ी भूमिका थी। वह समाचार संपादक थे। दो-तीन साल बाद ही वे पटना छोड़कर न चाहते हुए भी लखनऊ में ‘स्वतंत्र भारत’ आ गए और फिर ‘राष्ट्रीय सहारा’ उनके सांध्यकाल तक उनका ठिकाना रहा। इधर बीते कुछ महीनों में उनकी याद कई बार आई। प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव के साथ उनके घर भी जाना तय हुआ लेकिन यह हो न सका। चचा से अब मुलाकात नहीं होगी। लेकिन चचा का होना इस रूप में भी हमारे साथ होगा कि उनकी देह लखनऊ के किंग जार्ज चिकित्सा महाविद्यालय में कहीं सुरक्षित है। कोई है जो अब भी उनसे पढ़ रहा है। कुछ सीख रहा है। आप कलमकार तो शानदार थे ही। इंसान उससे भी शानदार थे। आपका जाना जिंदादिली का दूर चले जाना है। अंतिम प्रणाम चचा अशोक रजनीकर।

Amitaabh Srivastava :  अशोक रजनीकर जी के निधन की ख़बर ने बहुत उदास कर दिया है। बहुत सी यादें जुड़ी हैं उनके साथ। एक झटके में उन यादों की कड़ियाँ जैसे आँख के आगे खुलती चली गईं। सहारा के न्यूज़रूम से लेकर नोएडा के सेक्टर 11 के मकान नंबर w-108 में बिताये तमाम दिलचस्प लम्हों और लखनऊ के राजाजीपुरम में उनके घर पर हुई बैठकी की ढेरों घटनाएँ , बातें हैं जो याद आ रही हैं। मैं , मनोज, राजेश चतुर्वेदी, अवधेश बजाज और चचा रजनीकर सहारा के उन दिनों में ख़बरों पर चर्चाओं और दफ़्तरी गपशप के अलावा मस्तियों और उदासियों में भी साझेदार हुआ करते थे जिनका दायरा कभी निजी होता था तो कभी देश-दुनिया से जुड़ा हुआ। मनोज पहले ही चुका है। चचा भी चले गये। उम्र, अनुभव और क़ाबिलियत की सीनियरिटी को दरकिनार करके चचा रजनीकर जिस तरह दोस्ताना अंदाज़ में युवा पत्रकारों से घुलते-मिलते थे, उसकी कल्पना भी आज के दौर में असंभव है जहाँ ‘डेमोक्रेटिक न्यूज़रूम’ की ब्रांडिंग के बावजूद सीनियर की बात ही दैवीय आकाशवाणी की तरह अकाट्य हो गई है। अमां यार चाय पिलाओ, सिगरेट पिलाओ गुरू, खाओ, खिलाओ, यारबाज़ी, छोकरा-छोकरा की मौजमस्ती के बीच ऐसे लिखो, ये पढ़ो वग़ैरह भी चलता रहता था उनकी बातों में। मुझे याद है एक बार अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद के सिलसिले में उन्होंने died in penury को ‘पेन्युरी में मरे’ लिखे जाने की एक घटना का ज़िक्र किया और फिर आदतन लखनउवा लहजे में गरियाते हुए ठठाकर हंस पड़े थे। रजनीकर जी का मुझ पर बड़ा स्नेह रहा। पिताजी के भी परिचित थे। दोनों बुज़ुर्गों को लखनऊ के जुबली कालेज से लेकर यूनिवर्सिटी के अपने दौर की बातें करते देखा है। चचा के स्कूटर पर काज़मैन और चौपटियां की गलियों की वो घुमक़्कड़ी यादगार है। विचारों से वामपंथी थे। अंतरधार्मिक विवाह किया था। मिज़ाज के फक्कड़ और मुँहफट। अपनी देह तक दान कर गये। अब ऐसे लोग कम होते जा रहे हैं। चचा, मुझे गढ़ने में आपकी भी हिस्सेदारी रही है। नम आँखों से आपको अंतिम प्रणाम।

सौजन्य : फेसबुक



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