यशवंत सिंह-
चलने में आनंद ही आनंद है!
चलना संतई का एक एलीट अनुभव है। ये दासों के लिए सम्भव नहीं। वे तो बहुत सारे खूँटों से बंधे हैं। कभी नौकरी, कभी परिवार, कभी अरमान, कभी विस्तार, कभी समाज, कभी दिल-जान!
उद्यमी व्यापारी तो ज़्यादा ही परेशान रहते हैं। ‘हम ही शुरू किए हैं। इसे बड़ा करना है!’ “पापा ने शुरू किया था। मुझे ऊँचाई प्रदान करनी है।”
घंटा!
चलने वाला थोड़ा अलग होता है। वो सब कुछ करता है, और चलता भी रहता है! वो कुछ भी नहीं करता है तो चलता ज़रूर है। वो ही है जो रात जहां सोए सुबह उठ कर उस झोपड़े को फूंक सकता है, ताकि इस जगह होने आने का कोई मोह न रहे। चलना मजबूरी बन जाए!
आई मौज फ़क़ीर की, दिया झोंपड़ा फूंक!
जो है उससे मोह न पालना और चल पड़ना, ये स्वभाव दरअसल हमें डीग्रेड कर प्रकृति की टीम में शामिल होने का मौक़ा देता है।
वरना हमारी गाड़ी हमारा घर हमारा Ac हमारा बिज़नेस हमारा टार्गेट हमारा वीकेंड हमारी ग्रैंड पार्टी हमारी क्रांति हमारा धर्म हमारा अजेंडा…. हमारा और मैं… बस.. जिनकी यही दुनिया है, उन्हें चलना कभी न आएगा। चलेंगे भी तो चलने का शउर न होगा। वे चलेंगे ज़रूर पर उनका सब कुछ तय होगा… वो चल कर भी रुके घिरे रहेंगे… खोल से खोल तक की यात्रा… Ac से Ac तक की यात्रा…
यात्राओं का शिशु हूँ मैं… हमने अकेले यात्रा की हिम्मत कर ली है…
कांवड़ियों से क़ब्ज़े वाली ट्रेन के स्लीपर में ट्रेन चलते ही तमाम जय जय कार के क्रम में एक नारा ये भी लगा…
गणेश की मम्मी की…..
जय…!!!
इसके बाद सब खूब हंसे!
माँ पार्वती की जय का ग़ज़ब तरीक़ा!
जैजै भोले
यशवंत