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उत्तर प्रदेश

दलित उत्पीड़न घटना नहीं, विचारधारा है : अनिल चमड़िया

लखनऊ । रिहाई मंच ने ‘सामाजिक न्याय की चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक गठजोड’़ विषय पर यूपी प्रेस क्लब, लखनऊ में सेमिनार आयोजित किया। सेमिनार के मुख्य वक्ता वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक अनिल चमड़िया थे। सूबे व देश के मौजूदा हालात पर बोलते हुए अनिल चमड़िया ने कहा कि बेटी का सम्मान महज नारा नहीं है यह भी विचारधारा है। यदि जेएनयू की बेटियों को वैश्या कहने की छूट दी जाएगी तो किसी भी महिला चाहे वो राजनेता ही क्यों न हो वह भी इस हमले से नहीं बच सकती है। हमारी लोकतांत्रिक व सामाजिक न्याय की चेतना को खंडों में विभाजित किया जा रहा है। इसलिए हम न केवल कश्मीर के मुद्दे पर बल्कि श्रमिकों, आदिवासियों आदि वंचित समुदाय के मुद्दों पर भी खामोशी अख्तियार कर लेते हैं। युवा उम्र से नहीं होता, युवा का संबन्ध चेतना से है, एक युवक भी जड़ बुद्धि का हो सकता है और एक बुजुर्ग या उम्रदराज भी बुनियादी परिवर्तन के सपने तैयार कर सकता है।

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लखनऊ । रिहाई मंच ने ‘सामाजिक न्याय की चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक गठजोड’़ विषय पर यूपी प्रेस क्लब, लखनऊ में सेमिनार आयोजित किया। सेमिनार के मुख्य वक्ता वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक अनिल चमड़िया थे। सूबे व देश के मौजूदा हालात पर बोलते हुए अनिल चमड़िया ने कहा कि बेटी का सम्मान महज नारा नहीं है यह भी विचारधारा है। यदि जेएनयू की बेटियों को वैश्या कहने की छूट दी जाएगी तो किसी भी महिला चाहे वो राजनेता ही क्यों न हो वह भी इस हमले से नहीं बच सकती है। हमारी लोकतांत्रिक व सामाजिक न्याय की चेतना को खंडों में विभाजित किया जा रहा है। इसलिए हम न केवल कश्मीर के मुद्दे पर बल्कि श्रमिकों, आदिवासियों आदि वंचित समुदाय के मुद्दों पर भी खामोशी अख्तियार कर लेते हैं। युवा उम्र से नहीं होता, युवा का संबन्ध चेतना से है, एक युवक भी जड़ बुद्धि का हो सकता है और एक बुजुर्ग या उम्रदराज भी बुनियादी परिवर्तन के सपने तैयार कर सकता है।

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अनिल चमड़िया ने कहा कि चुनाव की राजनीति महज वोटों के गठजोड़ से नहीं होती बल्कि उसका जोर सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मुद्दों पर एकताबद्ध वोटों में विभाजन की बनावटी दीवार भी खड़ी करने की होती है। दलित चेतना के उत्पीड़न के लिए सामाजिक न्याय की चुनावी पार्टियों भी राज्य मशीनरी का उतना ही दुरुपयोग करती हैं जितना कि सांप्रदायिक विचारधारा की पार्टियां सांप्रदायिक हमले के लिए करती हैं। जो मुसलमान धार्मिक हैं व साप्रदायिक नहीं हंै और जो हिंदू सांप्रदायिक है वह धार्मिक नहीं हैं।

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक अनिल चमड़िया ने कहा कि जो जातिवादी होगा वह सांप्रदायिक होगा और जो सांप्रदायिक होगा वह जातिवादी होगा। इनका गहरा संबन्ध है। सामाजिक न्याय की लड़ाई का मूल्यांकन इस तरह से करना चाहिए कि क्या कारण है कि इस दौर में सांप्रदायिकता का विस्तार तेजी से हुआ है, क्योंकि सामाजिक न्याय की लड़ाई जातिवादी दिशा में भटक गई है। यह इसलिए हुआ क्योंकि चुनावी राजनीती के लिए ऐसा करना इन पार्टियों के लिए लाभकारी हो सकता है। दलित उत्पीड़न घटना नहीं विचारधारा है। दलित उत्पीड़न के उन तमाम औजारों का इस्तेमाल देश के अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ भी किया जाता रहा है। गाय के बहाने यदि अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं तो उन हमलों से दलितों को भी नहीं बचाया जा सकता। इस तरह दलित उत्पीड़न और सांपद्रायिक उत्पीड़न एक ही है। जो दलित विचारधारा की राजनीति करने का दावा करते हैं वह वास्तविक विचारधारा की लड़ाई नहीं लड़ते हैं बल्कि दलित जातियों का वोट बैंक सत्ता पाने के अवसरों के रूप में करते हैं।

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विषय प्रवर्तन करते हुए रिहाई मंच नेता शाहनवाज आलम ने कहा कि सामाजिक न्याय के नाम पर ढ़ाई दशकों से चल रही साम्प्रदायिक राजनीति की निर्मम समीक्षा की जरूरत है। इसे अब सिर्फ अस्मितावादी नजरिए से देखना संघ परिवार के एजेंडे को ही बढ़ाना है। हमें इस पर बहस करने की जरूरत है कि 90 के शुरूआती दौर में मिले मुलायम कांशी राम हवा में उड़ गए जय श्री राम का नारा लगाने वाली सपा और बसपा ने भाजपा के साथ गुप्त और खुला गठजोड़ क्यों कर लिया? कथित सामाजिक न्यायवादियों के मजबूती के साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा शहरों से गांवों की तरफ क्यों पहुंची? अम्बेडकर ने 1950 में दलित मुसलमानों के आरक्षण को खत्म किए जाने पर चुप्पी क्यों साध ली? आखिर कथित सामाजिक न्याय का राजनीतिक विस्तार हिंदुत्व के सामाजिक विस्तार में क्यों तब्दील हो गया? बेटियों के अधकारों पर बात करने वाला कथित संघ विरोधी हुजूम कश्मीर की बेटियों के साथ भारतीय सेना द्वारा बलात्कार किए जाने पर सड़कों पर क्यों नहीं दिखता? इन सवालों पर बहस के बिना सामाजिक न्याय की वास्तविक धारा को विकसित नहीं किया जा सकता। आज इस बहस के जरिए हम इन सवालों पर लम्बे वैचारिक मंथन की प्रक्रिया को शुरू करना चाहते हैं।

अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा कि भारतीय समाज को अब एक नए वैचारिक-राजनैतिक रक्त संचार की जरूरत है। जिसका केंद्रिय मुद्दा इंसाफ होगा क्योंकि पूरी मौजूदा व्यवस्था ही नाइंसाफी पर टिकी है। इसीलिए इंसाफ के सवाल उठाने वाले सत्ता के निशाने के पर हैं। हमारी सरकारें इंसाफ की मांग करने वालों से डरती हैं। इंसाफ की अवधारणा वास्तविक विपक्ष की अवधारणा है। चूंकि विपक्षी पार्टियां भी नाइंसाफी के साथ खड़ी हैं इसीलिए भारतीय राजनीति से विपक्ष गायब हो गया है। इस विपक्ष को खड़ा करना ही हमारी राष्ट्रीय जिम्मेदारी है।

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कार्यक्रम का संचालन रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने किया। सेमिनार में मुख्य रूप से पूर्व विधायक राम लाल, रफत फातिमा, कल्पना पाण्डेय, अंकित चैधरी, नाहिद अकील, रेनू, नाइस हसन, सुशीला पुरी, रामकृष्ण, ओपी सिन्हा, आरिफ मासूमी, सृजन योगी आदियोग, दिनेश चैधरी, अबू अशरफ जिशान, शकील कुरैशी, राबिन वर्मा, लाल चन्द्र, सत्यम, राम बाबू, किरन सिंह, शबरोज मोहम्मदी, प्रतीक सरकार, असगर मेंहदी, रचना राय, मंदाकनी राय, अब्दुल कादिर, हिरन्य धर, इन्द्र प्रकाश बौद्ध, यावर अब्बास, अली, अब्बास, डाॅ मजहरूल हक, अमित मिश्रा, अतहर हुसैन,  शम्स तबरेज खान, विनोद यादव, अनिल यादव, लख्मण प्रसाद, विरेंद्र गुप्ता, दीपक सिंह इत्यादि उपस्थित रहे।

द्वारा जारी-
शाहनवाज आलम
(प्रवक्ता, रिहाई मंच)
09415254919

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