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सुख-दुख

दरियांगज की गलियां, मेरा नया नाइट ड्रेस कोड और कुत्तो के बीच स्वीकार्यता

Yashwant Singh : मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा… कबीर की बड़ी प्यारी लाइन है. लेकिन तब क्या करें जब मन रंगने लगा हो. तब क्या करें जब देह से आसक्ति खत्म होने को हो. तब क्या करें जब कपड़े पहनने और न पहनने के बीच का फासला अर्थहीन होने लगा हो. ऐसे में कुछ उटपटांग, कुछ नया, कुछ प्रयोगधर्मिता मन भाता है. तब जाने क्यों वे कपड़े अच्छे लगते हैं जो आपको मुक्त करते हैं, जो आपको भीड़ से आजाद और अलग करते हैं, जो आपको नई राह की तरफ ले जाने का इशारा करते हैं, प्रेरित करते हैं, समझ देते हैं… 

Yashwant Singh : मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा… कबीर की बड़ी प्यारी लाइन है. लेकिन तब क्या करें जब मन रंगने लगा हो. तब क्या करें जब देह से आसक्ति खत्म होने को हो. तब क्या करें जब कपड़े पहनने और न पहनने के बीच का फासला अर्थहीन होने लगा हो. ऐसे में कुछ उटपटांग, कुछ नया, कुछ प्रयोगधर्मिता मन भाता है. तब जाने क्यों वे कपड़े अच्छे लगते हैं जो आपको मुक्त करते हैं, जो आपको भीड़ से आजाद और अलग करते हैं, जो आपको नई राह की तरफ ले जाने का इशारा करते हैं, प्रेरित करते हैं, समझ देते हैं… 

भड़ास के दरियागंज स्थित आफिस में दिन का कामकाज निपटाने के बाद जब किसी शाम यूं ही एक सफेद धोती लपेट और एक सफेद गमछा देह पर डालकर पान खाने निकला तो कतई अंदाजा नहीं था कि इससे कोई नई वस्त्र सज्जा, कोई नया ड्रेस सेंस पैदा हो रहा है जो चौकन्ने देलहाइट्स को आकर्षित करते हुए कौतुक में डाल रहो हो, चकित कर रहा हो. तभी तो जब 24×7 चलने वाली दरियागंज वाली एक पान की दुकान पर रात 10 बजे दुबारा टहलने कम पान खाने के मकसद से गया तो वहां खड़े एक शहरी नौजवान ने पूछ ही डाला कि ”महाराज, आप क्या बगल वाले मंदिर से हो”. मैंने हंसकर कहा- ”नहीं यार, उसके ठीक बगल वाली बिल्डिंग में एक आफिस है, उसी का केयरटेकर हूं”.

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एक बार अपने गृह जिले गाजीपुर गया था तो एक रोज मिश्र बाजार में चार सफेद धोती कम लुंगी खरीद लिया. इनमें से दो हमेशा अपने बैग में रखता हूं. कुछ इस भाव से कि जाने कब सब कुछ फेंक त्याग कर कहीं निकल पड़ने का जी हो जाए तो बदले मन के साथ बदला हुआ वस्त्र विन्यास भी हो ताकि अंदर बाहर सब कुछ सहज-सा हो. कितना सुंदर लगता है एक धोती लपेट लो और एक ओढ़ लो. मौसम चाहे जो हो, यही अदा कायम रखो. सोचिए, पैंट शर्ट टी-शर्ट बनियान अंडरवियर जाने क्या क्या का कितना बड़ा मार्केट है. कितनी मल्टीनेशनल कंपनीज इस धंधे में लगी हैं और जमकर पैसे ले जा रही हैं. ग्राम स्वराज यानि एक ऐसी व्यवस्था जिसमें गांव के लोगों को शहर जाने की जरूरत ही नहीं पड़े, उनके आसपास उनके जीवन की जरूरत की हर चीज उपलब्ध हो, के लिहाज से कितना कारगर है यह वस्त्र विन्यास. गांवों में गरीब तबके के लोगों को देखता हूं तो एक ही लुंगी, गमछा और बनियान को वो सालों साल पहने रहते हैं. रोज नहाएंगे और रोज पानी में धो कर सुखा कर पहन लेंगे. ये तो गरीबी की वजह से है. लेकिन जिनके पास पैसा है वह तपाक से जींस खरीद लाते हैं. तपाक से किसी बड़े माल में घुसकर ब्रांडेड टीशर्ट शर्ट बेल्ट सब ले आते हैं. ये पैसा अंतत: उन धनिकों के पास चला जाता है जो हम लोगों के बाजारू मन-मिजाज को भांपकर बहुत बुनियादी व सस्ती चीजों की आकर्षक पैकिंग के साथ बेहद बड़े-बढ़े दामों में हम्हीं को बेच डालते हैं. पर हम सब सोचने समझने की क्षमता खो चुके हैं या अगर क्षमता है भी तो भेड़चाल की अंधगति से आतंकित हो हम नई, अलग, अकेले की राह अपनाने की कल्पना तक नहीं कर पाते.

इतना लेक्चर देने या इतना गरिष्ठ बतियाने का मन नहीं था. मैं तो सीधे सीधे वन लाइनर लिखना चाहता था कि आजकल रातों में दरियांगज में मुझे कुछ इसी अंदाज में देखा जा सकता है. पर इसी बहाने जाने क्या क्या लिख बैठा. मित्र संजय तिवारी कल रात बहुत दिनों बाद गुनगुनाए थे- सहजे लगे समाधि रे. उनसे लंबी चली बातचीत में उनकी कई बातें मुझे भाईं और मेरी कुछ बातें उन्हें. एक बात यूं ही कह बैठा था. वो ये कि हम लोगों के मन में जो ढेर सारे विचार होते हैं, वे दरअसल भटकती आत्माएं होती हैं जिनके कारण हम ता-उम्र उन्हीं के शिकंजे में रहकर उनके हिसाब / उनके एंगल / उनके दर्शन के मनमुताबिक बोलते लिखते कहते रहते हैं और यह सब करते हुए ही नष्ट हो जाया करते हैं, कुछ वैसे जैसे हमारे देह पर किसी दूसरे का शासन हो और उसी के हिसाब से हम सोच रहे हों और उसी सोचे हिसाब से हम जी रहे हों, कर रहे हों. बहुत से लोग विचारों से लड़कर उन्हें परास्त कर डालते हैं और दूर भगा देते हैं. बहुत से लोग इन्हें गले लगाकर अपना लेते हैं और उनके हिसाब से चलने को मजबूर हो जाते हैं. बहुत से लोग किसिम किसिम के विचारों के युद्ध में इधर उधर हांफते भागते थामते जिंदगी गुजार देते हैं. कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो इन विचारों यानि भटकती आत्माओं को रूट दे देते हैं, उनके सामने से बच निकलते हुए उन्हें आगे पास कर देते हैं, फारवर्ड कर देते हैं, अपने पास बिना रखे. यानि विचारों को जानिए देखिए समझिए जीइए और उनसे उबरिए भी. अगर ज्यादा औकात न हो तो विचारों को दूर से बस महसूसिए, प्रणाम करिए और रूट दे दीजिए, ताकि वे चली जाएं. विचार शून्यता आ जाए. शांति मिल जाए. मुक्ति हो जाए.

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नियति विचार शून्यता ही है. विचार शू्न्यता को कई अलग-अलग समानार्थी शब्दों से परिभाषित किया जा सकता है. विचार शून्यता और इससे जुड़े ढेर सारे टापिक, सवालों पर विस्तार से बात किया जा सकता है. इस पर फिर कभी. अभी तो ये कि विचार शून्यता भी कई तरह की होती है. एक जो सबसे प्रमुख है वह नकारात्मक विचार शू्न्यता. विचार शून्यता अगर जन्मना है या संस्कार प्रदत्त है या राजनीतिक मजबूरी है या सामाजिक उपज है या विचारों के अतिरेक से उपजी बदहवासी है तो इससे मुक्ति संभव नहीं है और यह नकारात्मक कैटगरी है जिसमें कष्ट है, जो सांसारिक है. विचार शून्यता अगर विचारों से साबका होने / सामना होने के बाद अपग्रेडेशन की प्रक्रिया में आई है तो यह बड़ी बात है. तब देह और मन के बीच कोई द्वंद्व नहीं रहता. तब कपड़े होने और न होने के बीच कोई मतलब नहीं रहता. पर मुझे अभी भड़ास चलाना है और दरियागंज में रहना है इसलिए कपड़े तो पहनने ही पड़ेंगे वरना रात में यहां की गलियों में कुत्ते भारी संख्या में अपना-अपना इलाका नापते जोखते सजाते हुंकारते रहते हैं और मानव देह की मुख्य धारा वाली ड्रेस यानि भीड़ वाली ड्रेसों से अलग वेष-वस्त्र धरों को अजनबी / पागल / असामाजिक कैटगरी का मानकर खूब दौड़ाते हैं. इन कुत्तों को सशरीरी झक सफेदी से प्यार करने की ट्रेनिंग कुछ रोज बिस्किट खिला खिला कर दिया, इसलिए इनने मेरा रात्रिकालीन नया ड्रेस कोड पारित कर मुझे इलाके का आदमी कुबूल कर लिया. जब दरियागंज के कुत्तों ने मुझे अपना आदमी मान लिया तो दरियागंज के आदमी बेचारों की औकात क्या जो मुझे आदमी न मानें.

जैजै 🙂

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भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से. संपर्क: [email protected]


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0 Comments

  1. sunil verma

    May 29, 2015 at 7:27 am

    aisa bhadsi andaj to yashwant ka hi ho sakta hai……jio bhai

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