कुछ ऐसा किया जाए ताकि बेखौफ जी सकें बेटियां… देश की राजधानी दिल्ली में दरिंदगी की शिकार हुई निर्भया को आखिरकार इंसाफ मिल गया। चारों दरिंदों को फांसी पर लटका दिया गया। इस फैसले के बाद क्या हम उम्मीद करें कि बेटियां अब रात में भी बेखौफ होकर सड़कों पर निकल पायेंगी? उन्हें सहमें रहने की जरूरत नहीं? अब कोई बेटियों का बाल भी बांका नहीं कर पाएगा?
क्या हम मान लें कि निर्भया के दोषियों को मिली फांसी की कल्पना करते ही ऐसे नापाक इरादों को अंजाम देने वालों की रूह कांप जाएगी? नहीं, ऐसे हादसों पर तब तक रोक नहीं लग सकती जब तक अपराधियों को उनके किए की सजा समय पर नहीं मिलती है।
इसके लिए हमारी कानून व्यवस्था में अनगिनत बदलाव लाने जरूरी हैं। सिस्टम की कमियों का फायदा उठाकर अपराधी मामले को साल दर साल लटकाते रहते हैं। अदालतों में याचिका दायर करके फैसले की तारीख बढ़ाकर वे बचते ही रहते हैं। दोषियों के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए सिस्टम में परिवर्तन करना बहुत जरूरी है।
पुलिस हमारी सुरक्षा के लिए है। हम उनकी मदद ले सकते हैं। देर रात पुलिस गश्त बढ़ाने के साथ ही हेल्पलाइन पर मिली सूचनाओं पर त्वरित कार्रवाई शुरू की जाए। थानों में रपट लिखाने गयी लड़की और उसके परिवार को दरोगा से डरने की जरूरत नहीं पड़े, ऐसा सहज माहौल दिया जाए। पीड़िता को यकीन हो कि उनकी बातों को सुना जाएगा और अपराधियों को शिकंजे में कसने में कोई कोताही नहीं बरती जाएगी। एफआईआर करने में कोई आनाकानी नहीं होगी, न ही पीड़िता को किसी प्रभावशाली व्यक्ति के दबाव में केस वापस लेने के लिए प्रताड़ित किया जायेगा। इंसाफ की प्रक्रिया को बेवजह टालने की कोशिश नहीं की जायेगी। त्वरित फैसला कर पीड़िता को न्याय दिया जायेगा।
निर्भया के आरोपियों को सजा दिलाने के लिए उसके माता-पिता कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते रहे। इंसाफ मिलने में सात साल का समय लग गया। हालांकि उन्हें खुशी है कि बेटी को न्याय तो मिला।
निर्भया कांड के बाद तस्वीर कहां बदली है। रोजाना ऐसे वाकयों से अखबार के पन्ने पटे पड़े रहते हैं। हमें भी आदत सी हो गयी है। कभी कभी खून खौलता है। हम सब आवाज उठाते हैं पर फर्क कितना आया है। सोशल मीडिया पर वीडियो और मैसेज वायरल होते हैं। शोर मचता है, और कुछ समय बाद खामोशी पसर जाती है। हम भी भूल जाते हैं। एक नये हादसे से रोष उभरता है। कैंडल मार्च और रैलियां निकाली जाती हैं। प्रदर्शन किये जाते हैं। नारेबाजी होती है, पर हालात में परिवर्तन नहीं होता।
देश की राजधानी में हुए हादसे की खबर आग की तरह फैली थी। पूरा देश इंसाफ की गुहार में एकजुट हुआ पर इंसाफ मिलने में बरसों लग गये। इस गति से फैसले होते रहे तो अपराधियों के मन में डर कहां रह जायेगा? देश की राजधानी की चौड़ी सड़कें हों या फिर गांव की तंग गलियां, दफ्तर हो या घर, आखिर कहां सुरक्षित हैं बेटियां? मनचलों की खुराफात में कहां कमी आयी है?
मनचलों को उनकी औकात बताने के लिए पुलिस हो या फिर कुछ संस्थाएं और संगठनों के कार्यकर्ता, सभी मौसमी फूलों की तरह खिलते हैं। किसी खास दिन डंडे की जोर आजमाइश कर न जाने कहां गायब हो जाते हैं। साल भर में उन्हें फिर संस्कृति का पाठ पढ़ाने का ख्याल ही नहीं आता। बेटियों को तहजीब सिखाने वाले बेटों को कायदे से रहने की नसीहत देना न जाने क्यूं भूल जाते हैं।
क्यूं न परिवार में शुरू से ही बेटों को संस्कार सिखाया जाये ताकि वह समाज में लड़कियों से तमीज से पेश आए। ऐसा हो तो शायद घर की दहलीज पार कर बाहर निकलते ही लड़कियों को हमेशा सतर्क रहने की जरूरत ही न हो। जब भी वो बाहर निकलें, उनके मन में यह खौफ न रहे कि समय से घर वापस नहीं लौटीं तो वो किसी हादसे का शिकार हो सकती हैं।
वीआईपी और राजनीतिज्ञों की चाक चौबंद सुरक्षा के इंतजाम में लगी पुलिस बेटियों की सुरक्षा में भी उतनी ही अलर्ट रहे तो बहुत फरक पड़ सकता है। गश्ती दल चौकन्ना रहे और समय रहते ही संदिग्ध लोगों की खबर ले। असामाजिक तत्वों में सिस्टम का खौफ बना रहे ताकि बेटियां उनकी हवस का शिकार न हों।
जिंदगी जीने का हक उतना ही बेटियों को है, जितना की बेटों को। आज के दौर में बेटियों को स्कूलों से ही पढ़ाई के साथ आत्मरक्षा तकनीक में भी प्रशिक्षित करने की जरूरत है। ऐसा इसलिए कि मौका पड़ने पर उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए किसी पुरुष की मौजूदगी की जरूरत ही न महसूस हो। बेटियों में आत्मविश्वास बढ़ाने के साथ ही उन्हें हर हालात से निपटने का गुर सिखाना भी आज की आवश्यकता है।
लेखिक श्वेता सिंह कई कोलकाता के कई अखबारों व न्यूज चैनलों में काम कर चुकी हैं. वे इन दिनों स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.