देशद्रोहियों की हत्या करने वाले सिपाही या अपराधी?

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सरकार और सर्वोच्च न्यायालय को साफ करना चाहिए कि क्या कोई आम आदमी अगर देशद्रोहियों पर हमला कर उन्हें मौत के घाट उतार देता है, तो उसे देश का सिपाही माना जायेगा या अपराधी. क्योंकि अब सवाल देश की अखंडता का है. सरकार मौन है. न्यायपालिका के घर देर है. ऐसे में सवाल उठता है कि सेना में अपने बच्चे भेजने वाला किसान, मजदूर, फौजी और मध्यमवर्गीय नागरिक देश के बारे में अपमानजनक बातें क्यों बर्दाश्त करे? सरकार और न्यायपालिका की चुप्पी क्या देश के साथ विश्वासघात नहीं है? देश की अखंडता पर चोट क्यों बर्दाश्त किया जा रहा है? क्या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर फिर से देश के विभाजन पर चर्चा होगी? ऐसे देशद्रोहियों को सीधे फांसी या गोली क्यों नहीं मारी जानी चाहिए? सवाल का जवाब चाहिए… सरकार.

कश्मीर में हताशा की हालात में अलगाववादी अब आजादी की मांग खुलकर कर रहे हैं. वो भी धर्म के आधार पर. कश्मीर के डिप्टी मुफ्ती आजम नसीर अल इस्लाम में अपनी मांग में भारत को धमकी दी है कि जब 1947 में 17 करोड़ मुस्लिम अलग देश बना सकते हैं तो आज बीस करोड़ से ज्यादा मुस्लिमों के लिए अलग देश क्यों नहीं. सवाल केवल एक डिप्टी मुफ्ती का नहीं है, बल्कि ऐसी सोच को कुचलने का है. ये ऐसी सोच है जो गांधी-नेहरू की सोच वाले लोगों के मुंह पर तमाचा है. जो हिंदुस्तान को केवल हिंदुओं का स्थान नहीं मानते थे. संविधान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान किये गये थे. हालांकि तब भी सवाल खड़ा हुआ कि जब इस्लाम धर्म के आधार पर देश बाटा गया, तो हिंदुस्तान में मुस्लिमों और इस्लाम को जगह क्यों? इसका जवाब अब केवल और केवल मुस्लिमों को खोजना है.

देश की अखंडता संविधान का हिस्सा है. मन/वचन/कर्म से भारत के टुकड़े करने की कोशिश करने वाले देशद्रोही की श्रेणी में आते हैं. देशद्रोह के कानून में फांसी की सजा है. इसके लिए विशेष प्रावधान हैं. लेकिन कार्रवाई के नाम पर सरकारी एजेंसियां लाचार और बेबस दिखती हैं. सत्ताधारियों की इच्छाशक्ति की कमी भी एक कारण है. जो कड़ाई से कानून लागू करने में हिचकते हैं. इसके पीछे कई ऐसे विपक्षी दलों की दोगली नीतियां भी हैं, जो तुष्टीकरण की नीति के चलते कई बार देश को भी दांव लगाने से बाज नहीं आते. लोकतंत्र की आड़ में देश को बांटने वाली सोच अब आर या पार वाली स्थिति में आ गई है.

आज के दिन स्वाभिमानी नागिरकों के सामने कई सवाल खड़े हैं. जिसका जवाब सरकार से लेकर देश की सर्वोच्च न्यायालय को देना चाहिए. पहला, क्या खुलेआम देश के टुकड़े की बात करने वाले देशद्रोही हैं? क्या ये संविधान के साथ देशद्रोह है? अगर है, तो खुलेआम माखौल उड़ाने वालों को सजा तुरंत क्यों नहीं? मौजूदा प्रावधानों का पालन में संकोच क्यों?
दूसरा सवाल, लोकतंत्र की आड़ में देश की आबरू से खिलवाड़ करने वाले कथित नेताओं पर कार्रवाई से संकोच क्यों? देशद्रोहियों की तर्ज पर इन पर सजा के साथ इनके रिश्तेदारों तक की संपत्तियां भी जब्त होनी चाहिए. इसमें देरी क्यों?

तीसरा सवाल, राष्ट्र की मौलिक संरचना के हिस्सा बने राष्ट्रगान, राष्ट्रीय गीत का तिरस्कार करने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं? तुरंत सजा क्यों नहीं? खुलेआम टीवी, मीडिया में अपनी देशद्रोही मानसिकता का परिचय कुछ लोग दे रहे हैं. जिसके कारण हर एक नागरिक ठगा महसूस करता है. ऐसे लोगों पर कार्रवाई में क्या सबूत चाहिए? अगर कोई लाचारी है तो सरकार देश की जनता को बताये.

लेखक प्रसून शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई न्यूज चैनलों के एडिटर इन चीफ रह चुके हैं. उनसे संपर्क prasoon001shukla@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.

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