: मीडिया की मंडी में हम (1) : मेरे खानदान का पत्रकारिता से दूर- दूर तक लेना देना नहीं था और ना ही मेरा। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि पत्रकार बनूंगा। पर वक्त ने बना दिया और ऐसा बना दिया कि चाह कर भी इस पहचान से मुक्त नहीं हो सका। राजस्थान के भरतपुर जैसे छोटे कस्बेनुमा शहर में पला बढ़ा मैं एक नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार का सदस्य। पिता जरूर परिवार की नौकरी परंपरा छोड़कर इंटक से जुड़कर लेबर लीडरी में सक्रिय हो गए थे। ताऊ कृषि वैज्ञानिक थे, तो एक चाचा हैडमास्टर थे तो एक डॉक्टर, एक फूफा तहसीलदार थे। हमारे तो करीब-करीब सभी मामा भी सरकारी नौकरियों में ही थे। हम नौ भाई थे और हमारे बीच पाँच बहनें।
सारे भाईयों की पढ़ाई वही परंपरागत डॉक्टर, इंजीनियर के कैरियर वाली थी। अधिकतर भाई-बहनों ने विज्ञान में शिक्षा ली पर तीनों छोटे भाइयों ने कॉमर्स को चुना। सामान्य पारिवारिक परंपरा और मनोविज्ञान के चलते मैंने भी विज्ञान-गणित को कैरियर के रूप में चुना। सरकारी स्कूलों और कॉलेज में ही पढ़ा। ट्यूशन की तब कोई विशिष्ट परंपरा नहीं थी और पारिवारिक रूप से ज्यादा नम्बर लाने या क्लास में टॉप आने का दबाव भी नहीं। घर वाले भी गंभीरता से ज्यादा नंबर लाने या कैरियर बनाने का जिक्र तक नहीं करते थे। जब मन होता पढ़ते, जब मन होता खेलते। गणित विषय लेने के बावजूद मन में इंजीनियर बनने का सपना भी नहीं था।
1975 में महाराजा बदनसिंह स्कूल से दसवीं और 1976 में मल्टीपरपज स्कूल से ग्यारहवीं पास करके एमएसजे कॉलेज से स्नातक और स्नातकोत्तर किया। उस समय इंजीनियरिंग में एडमीशन के लिए एन्ट्रेंस एक्जाम नहीं होते थे। ग्यारहवीं के बाद परसेंटेज के आधार पर प्रवेश होता था। पर मैंने किसी इंजीनियरिंग कॉलेज का फॉर्म ही नहीं भरा था। जब रिज़ल्ट आया तो ग्यारहवीं में मेरे 66 प्रतिशत अंक थे और मेरे 64 प्रतिशत अंक लाने वाले मित्र इंजीनियरिंग में एडमीशन पा चुके थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि बीएससी प्रथम वर्ष में मैं अकेला पड़ गया था, मित्र विहीन। फिर से कुछ नए मित्र बनाने थे, सो बने भी।
पर मेरी रुचि अब बदलने लगी थी….शायद नए दोस्तों का प्रभाव था या इंजीनियर न बन पाने का नैराश्य। लगा कि जब प्रतियोगी परीक्षाऐं देकर ही कैरियर बनाना है तो पढ़ाई का अचार डालकर क्या करेंगे। अब रुचियां खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों की तरफ मुड़ने लगीं थीं। इन रुचियों के चलते 1980 में कलानयन संस्था की स्थापना की। 1982 में पहला भरतपुर समारोह मनाया। 1983 में इप्टा से जुड़ा। भरतपुर का 250 वाँ स्थापना दिवस समारोह मनाया। टाउनहॉल को खाली कराने के लिए सफल आन्दोलन किया। 1984 में राजस्थान इप्टा का पहला सम्मेलन किया। भीष्म साहनी ने इस सम्मेलन का उद्घाटन किया था।
राजस्थान इप्टा के सम्मेलन के बाद मैं कैरियर की तलाश में जुट गया। थियेटर भी साथ ही चल रहा था। पर कोई दिशा तय नहीं हो पा रही थी। तभी अक्टूबर 1984 की एक दोपहर सुशील झालानी मिलने घर आ गए। वे अलवर से अरुणप्रभा अखबार निकालते थे। अरुणप्रभा अलवर का सबसे ज्यादा बिकने वाला स्थानीय दैनिक था। बलवंत तक्षक उसके संपादक थे। इससे पहले ईशमधु तलवार उसके संपादक रह चुके थे। पर राजस्थान पत्रिका में ग्रेड मिलने के कारण उन्हें छोड़ना पड़ा था। तो… सुशीलजी ने बताया कि वह भरतपुर से अरुणप्रभा का संस्करण शुरू करना चाहते हैं और चाहते हैं कि मैं उसे संभालूं। मेरे लिए यह चौंकाने वाला ऑफर था।
मेरा लिखने से कभी कोई रिश्ता ही नहीं था। पूरी विज्ञान और गणित की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से हुई थी। लिखने में बहुत कंजूस, एक पेज लिखने में तो अंगुलियां दर्द करने लगतीं थीं। कक्षा में कभी नोट्स विस्तार से नहीं लिखे। परीक्षा में कभी सप्लीमेंटरी कॉ़पी नहीं ली। और तो और पत्रकारिता की तो ए..बी..सी..डी भी नहीं जानता था। सो मैंने विनम्रता से इंकार कर दिया और उन्हें ऑफर किया कि शहर के जिन पत्रकारों को मैं जानता हूँ, उनसे मिलवा देता हूं, आपका काम निकल जाएगा। इस पर सुशीलजी बोले कि वह सबको जानते हैं, और वो अपना अखबार मेरे से ही निकलवाना चाहते हैं। साथ ही उन्होंने वेतन और सुविधाओं का ऑफर भी रख दिया। पर यह सब मेरे गले नहीं उतर रहा था। तो सुशीलजी चार दिन तक मेरी हाँ का इंतजार करते हुए घर के चक्कर काटते रहे।
पर मैं तो लगभग मना करने का मन बना चुका था। पर तभी मेरे और सुशीलजी के बीच पिताजी आ गए। उन्होंने गंभीरता से पूछा कि ये मोटा आदमी चार दिन से ब्रीफकेस लेकर चक्कर क्यों काट रहा है, क्या कोई उधार मांगता है… (उन्होंने शायद सोचा कि सम्मेलन का कोई उधार रह गया दिखता है)। इस पर मैंने उन्हें बताया कि वो अखबार निकलवाना चाहते हैं। पिताजी की तुरंत प्रतिक्रिया थी कि- यह भी कोई काम है, मना कर दे। इस पर मेरे मुँह से अनायास ही निकला कि- मैंने तो हां कर दी है। जब उसको पहले ही बता दिया हमें इस धंधे के बारे में कुछ नहीं आता, फिर भी पीछे पड़ा है, तो अपना क्या जाता है, अखबार निकाल कर भी देख लेते हैं। इस तरह सुशीलजी ने मुझे…एक तरह से गरेबान पकड़ कर पत्रकार बना दिया। वैसे आज भी सोचता हूं कि पिताजी ने नहीं टोका होता तो मैं तो मना कर ही चुका था। उस उम्र के पिता पुत्र संबंधों के मनोविज्ञान ने मुझे जबरन और अचानक पत्रकार बना दिया। शायद इसे ही नियति कहते हैं।
…जारी…
लेखक धीरज कुलश्रेष्ठ राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार हैं. धीरज से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.