भोपाल : वरिष्ठ पत्रकार चंदा बारगल का हार्ट अटैक के कारण निधन हो गया। चंदा बारगल उन पत्रकारों में शामिल थे जिन्होंने अपनी लेखनी के दम पर कई अखबारों में अपना स्थान बनाया। भोपाल में रहकर इन दिनों वे खबरची डॉट कॉम नामक वेबसाइट चला रहे थे। वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने चंदा जी को …
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वरुण गांधी को पत्रकारों की नौकरी खाने और धमकी दिलाने की बुरी आदत है, पढ़ें इस वरिष्ठ पत्रकार का संस्मरण
आज इस ख़बर को पढ़ी, तो चेहरे पर मुस्कान छा गई। अब ये मेरी कहानी पढ़ने के बाद इस मुस्कान का अर्थ निकालने की ज़िम्मेदारी मैं आप पर छोड़ता हूं। 9 मार्च 2009 की रात। उन दिनों वॉयस ऑफ इंडिया उत्तर प्रदेश / उत्तराखंड का प्रभार मेरे पास था। रात में मोबाइल बजा। रात्रिकालीन प्रोड्यूसर …
युवा पत्रकार ने दूसरी पुण्यतिथि पर अपनी पत्नी को यूं किया याद…
तुम्हारे बाद… लोगों से सुना है कि किसी के जाने से कुछ नहीं बदलता, सब यूं ही चलता रहता है. लोग कहते थे तो मैं भी मानता था लेकिन जब से तुम गई हो तब से ये बात मेरे लिए आधी झूठी हो गई है. हाँ आधी झूठी! ये सच है कि किसी के जाने …
मोहम्मद अज़ीज़ के गुजरने पर रवीश ने जैसे उन्हें याद किया, वैसा शायद ही कोई लिख पाए!
Ravish Kumar गानों की दुनिया का अज़ीम सितारा था,मोहम्मद अज़ीज़ प्यारा था. काम की व्यस्तता के बीच हमारे अज़ीज़ मोहम्मद अज़ीज़ दुनिया को विदा कर गए। मोहम्मद रफ़ी के क़रीब इनकी आवाज़ पहचानी गई लेकिन अज़ीज़ का अपना मक़ाम रहा। अज़ीज़ अपने वर्तमान में रफ़ी साहब के अतीत को जीते रहे या जीते हुए देखे …
अटलजी के निधन के बाद जी मीडिया के आफिस में कैसा था माहौल, पढ़ें
Paramendra Mohan : अटल जी के निधन के बाद हमारे संस्थान ज़ी मीडिया में एक मिनट का मौन रखा गया था। चैनल की इमारत में घुसते ही ग्राउंड फ्लोर पर अटल जी की तस्वीर रखी थी, गुलाब के फूल रखे गए थे और हर मीडियाकर्मी उन्हें पुष्पांजलि अर्पित कर नमन कर रहा था। मेरा अटल …
गुनगुनी धूप और वो सभा! फिर न कभी वैसे सुनने वाले आए और न उन-सा बोलने वाला…
श्रीगंगानगर। डेट और दिन तो याद नहीं, लेकिन ये पक्का याद है कि सर्दी का मौसम था। दोपहर पूरी तरह ढली नहीं थी। सर्दी तो थी, लेकिन खिली हुई धूप ने पाने शहर के नेहरू पार्क को और अधिक निखार दिया था। घास ऐसे लग रही थी जैसे कोई कालीन बिछा हो। लगभग 5 बजे …
देश में रफी साहब का आखिरी कंसर्ट हुआ था राजहरा में
छत्तीसगढ़ी फिल्मों और भिलाई से भी जुड़ी कुछ बातें और यादें उस कंसर्ट की भिलाई। सुर सम्राट मुहम्मद रफी साहब के गुजरने के 38 साल बाद भी उनके दीवानों की कभी कोई कमी नहीं रही। रफी साहब का छत्तीसगढ़ से आत्मीयता का नाता रहा है। जहां शुरूआती दौर की छत्तीसगढ़ी फिल्मों ‘कहि देबे संदेस’ और …
लेफ्टिस्ट से लेकर राइटिस्ट तक, हर कोई दे रहा राज किशोर को श्रद्धांजलि
वरिष्ठ पत्रकार Raj Kishore नहीं रहे। मैं उनके लिखे का प्रशंसक था। आम बोलचाल की भाषा में सरलता-सहजता से वे जिस तरह गंभीर बात लिख जाते थे, वह उन्हें विशिष्ट बनाता था। हिंदी के अनेक समाचार-पत्रों में उनके स्तंभ थे। दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला आदि में उनके नियमित लेख छपते थे। मैं बड़े ही …
श्रीनिवास तिवारी रीवा से लेकर भोपाल दिल्ली तक यथार्थ से ज्यादा किवंदंती के जरिए जाने गए
Jayram Shukla : एक आम आदमी का जननायक बन जाना… श्रीनिवास तिवारी रीवा से लेकर भोपाल दिल्ली तक यथार्थ से ज्यादा किवंदंती के जरिए जाने गए। दंतकथाएं और किवंदंतियां ही साधारण आदमी को लोकनायक बनाती हैं। विंध्य के छोटे दायरे में ही सही तिवारीजी लोकनायक बनकर उभरे और रहे। मैंने अबतक दूसरे ऐसे किसी नेता को नहीं जाना जिनको लेकर इतने नारे,गीत-कविताएं गढ़ी गईं हों। सच्चे-झूठे किस्से चौपालों और चौगड्डों पर चले हों। उनकी अंतिमयात्रा में उमड़ा जनसैलाब इन सब बातों की तस्दीक करता है।
छह माह से संपादकीय कामकाज से दूर रहने की लाचारी ने शेखर त्रिपाठी को तोड़ दिया था
Upendranath Pandey : शेखर भाई, तुमने यह अच्छा नहीं किया! आखिर तुमने फेसबुक फेस न करने की मेरी कसम तुड़वा दी। इसी छह मार्च को इसी जगह मुझे भाई संतोष तिवारी के जाने का दर्द बयां करना पड़ा, आज तुम इस जहां से चले गए। जाते समय तुमने यह भी नहीं सोचा कि हम मम्मी को कैसे फेस कर पाएंगे, जिनके हार्ट तुम्हीं थे। उनके हार्ट को कैसे बचाएं, क्या करें। गुड़िया भाभी अभी कल रात यशोदा अस्पताल से मेरे लौटते समय डबडबाई आंखों से मुझसे हाल पूछ रही थीं, जब मैं तुम्हें पुकार कर आईसीयू से लौटा था। अगर तुम्हें जाना था तो कंधा उचका कर और गर्दन हिलाकर मुझे संकेत क्यों किया कि फिक्र न करो।
स्व. शेखर त्रिपाठी
दैनिक जागरण लखनऊ, गोरा सांप और शेखर त्रिपाठी के दिन
Raghvendra Dubey : शेखर! आप बहुत याद आएंगे… बहुत बाद में आत्मीय रिश्ते बने भी तो सेतु स्व. मनोज कुमार श्रीवास्तव थे। वही मनोज , अमर उजाला के विशेष संवाददाता। शेखर, दैनिक जागरण लखनऊ में, संभवतः 1995 तक मेरे समाचार संपादक थे। कार्यरूप में, कागज पर नहीं। पद उन दिनों स्थानीय संपादक विनोद शुक्ल के तात्कालिक तरंगित और भभकते मूड पर निर्भर था। कभी-कभी तो एक ही दिन, सुबह की 11 बजे वाली रिपोर्टर मीटिंग में किसी का पद कुछ और जिमखाना क्लब से शाम को लौट कर वह (विनोद शुक्ल) कुछ कर देते थे।
संस्मरण – देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी : अभी मन भरा नहीं…
अवनीश सिंह चौहान
सुविख्यात साहित्यकार श्रद्देय देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी (गाज़ियाबाद) से कई बार फोन पर बात होती— कभी अंग्रेजी में, कभी हिन्दी में, कभी ब्रज भाषा में। बात-बात में वह कहते कि ब्रज भाषा में भी मुझसे बतियाया करो, अच्छा लगता है, आगरा से हूँ न इसलिए। उनसे अपनी बोली-बानी में बतियाना बहुत अच्छा लगता। बहुभाषी विद्वान, आचार्य इन्द्र जी भी खूब रस लेते, ठहाके लगाते, आशीष देते, और बड़े प्यार से पूछते— कब आओगे? हर बार बस एक ही जवाब— अवश्य आऊँगा, आपके दर्शन करने। बरसों बीत गए। कभी जाना ही नहीं हो पाया, पर बात होती रही।
यह संजय, शराब और शेरो शायरी का दौर था…. कह सकते हैं डिप्रेसन की इंतिहा थी…
स्वर्गीय संजय त्रिपाठी होते हैं कुछ लोग जो सिर्फ़ संघर्ष के लिए ही पैदा होते हैं। हमारे छोटे भाई और फ़ोटोग्राफ़र मित्र संजय त्रिपाठी ऐसे ही लोगों में शुमार रहे हैं। आज जब संजय त्रिपाठी के विदा हो जाने की ख़बर सुनी तो दिल धक से रह गया। फ़रवरी, 1985 से हमारा उन का साथ …
‘कलम के धनी यशवंत ने एक साधारण व्यक्ति की मृत्यु की असाधारण व्याख्या की!’
भड़ास के एडिटर यशवंत अपने गांव गए तो सबसे गरीब ब्राह्मण परिवार के सबसे बेटे बिग्गन महराज की असमय मौत के घटनाक्रम को सुन-देख कर उन्होंने एक श्रद्धांजलि पोस्ट फेसबुक पर लिख दी और बाद में उसे भड़ास पर भी अपलोड करा दिया. इस श्रद्धांजलि पोस्ट को बड़े पैमाने पर पसंद किया गया और सैकड़ों लाइक कमेंट्स मिले. आइए इस स्टोरी पर आए कुछ चुनिंदा कमेंट्स पढ़ते हैं. मूल स्टोरी नीचे बिलकुल लास्ट में, कमेंट खत्म होने के बाद है, ‘श्रद्धांजलि : दोस्त, अगले जनम अमीर घर ही आना!‘ शीर्षक से.
बचपन के मित्र बिग्गन महाराज के गुजरने पर यशवंत ने यूं दी श्रद्धांजलि : ‘दोस्त, अगले जनम अमीर घर ही आना!’
Yashwant Singh : गांव आया हुआ हूं. कल शाम होते-होते बिग्गन महाराज के गुजर जाने की खबर आई. जिस मंदिर में पुजारी थे, वहीं उनकी लाश मिली. उनके दो छोटे भाई भागे. मंदिर में अकेले चिरनिद्रा में लेटे बड़े भाई को लाद लाए. तख्त पर लिटाकर चद्दर ओढ़ाने के बाद अगल-बगल अगरबत्ती धूप दशांग जला दिया गया. देर रात तक बिग्गन महाराज के शव के पास मैं भी बैठा रहा. वहां उनके दोनों सगे भाइयों के अलावा तीन-चार गांव वाले ही दिखे.
स्मृति शेष : दिनेश ग्रोवर जितना मजेदार और जिन्दादिल इंसान कम ही देखा है
बड़ी ही मजेदार थी दिनेश ग्रोवर की जिन्दादिली… बहुत साल पहले की बात है। वयोवृद्ध पत्रकार एवं कवि-लेखक इब्बार रब्बी राजेन्द्र यादव की साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में संपादन सहायक के तौर पर अवैतनिक सेवा दे रहे थे। रब्बी जी नवभारत टाइम्स से रिटायर हो चुके थे और आर्थिक रूप से परेशान चल रहे थे। रब्बी …
पहले प्रदीप संगम, फिर ओम प्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी का जाना….
एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग या दुर्योग, जो कहिए… मेरे ज्यादातर प्रिय पत्रकारों का समुदाय धीरे-धीरे सिकुड़ता छोटा होता जा रहा है… दो-तीन साल के भीतर एकदम से कई जनों का साथ छोड़कर इस संसार को अलविदा कह जाना मेरे लिए स्तब्धकारी है… पहले आलोक तोमर, फिर प्रदीप संगम, उसके बाद ओमप्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी… असामयिक रणछोड़ कर चले जाना या जीवन के खेल में आउट हो जाना हर बार मुझे भीतर तक मर्माहत कर गया… सारे पत्रकारों से मैं घर तक जुड़ा था और प्यार दुलार का नाता बहुत हद तक स्नेहमय सा बन गया था… इनका वरिष्ठ होने के बाद भी यह मेरा सौभाग्य रहा कि इन सबों के साथ अपना बोलचाल रहन-सहन स्नेह से भरा रसमय था… कहीं पर कोई औपचारिकता या दिखावापन सा नहीं था… यही कारण रहा कि इनके नहीं होने पर मुझे खुद को समझाने और संभलने में काफी समय लगा…
संतोष तिवारी की प्रतिभा को अंकुरित-पल्लवित होते बहुत निकट से देखा था मैंने
Rajendra Rao : दैनिक ट्रिब्यून के संपादक और मेरे अजीज संतोष तिवारी का असमय प्रस्थान स्तब्ध और उदास कर गया। सत्तर के दशक में मैंने उनकी प्रतिभा को अंकुरित और पल्लवित होते बहुत निकट से देखा था। तब वे इंटर में पढ़ते थे। लेखन का जुनून सवार था और अपनी प्रारंभिक रचनाएं दिखाने लाल कालोनी (किदवई नगर) से मेरे घर (अर्मापुर) नियमित रूप से आते थे। उनकी पहली ही कहानी धर्मयुग में छपी और फिर उन्होंने मुड़ कर नहीं देखा।
गोरखपुर प्रेस क्लब द्वारा आयोजित स्मृति समारोह में शिरकत करने दिल्ली से पहुंचे संजय और विनीता
गोरखपुर। कवि व समालोचक प्रो अनन्त मिश्र ने कहा है कि रावण ने पूरी दुनिया से बटोरकर सोने की लंका बनाई थी। अन्तत: उसका दहन हुआ। आज भी होड़ सोने की लंका बनाने की है। मनुष्य को नजरअंदाज करते हुए हो रहा विकास दुनिया के अस्तित्व के लिए खतरनाक है। प्रो मिश्र शुक्रवार को स्व़ …
पत्रकारिता की राह पर शंभूनाथ शुक्ला का सफर… कुछ यादें, कुछ बातें
नए और जोखिम प्रयोग क़े लिए याद किए जाएंगे संपादक बच्चन सिंह
वरिष्ठ पत्रकार बच्चन सिंह जी का अवसान हिंदी पत्रकारिता के एक युग का अंत है. बच्चन जी दरअसल पुरानी से लेकर अति आधुनिक पत्रकारिता तक के सफर के युग का प्रतिनिधित्व करते थे. उन्होंने जो मानक स्थापित किये, वह भाषायी पत्रकारिता के 80 के दशक के बाद के एक सौ संपादक भी मिलकर नहीं कर सकते. पत्रकारिता में जो बदलाव को लेकर जो समझ और अनुमान उन्होंने तीन दशक पहले लगा लिए था, वह आज सामने है.
श्रद्धांजलि : बच्चन सिंह और खुरदरी चट्टानों की यादें
खुरदरी चट्टान से जीवन पर / आशा के बादल बरसे जरूर हैं। पर नहीं उगा सके / सुख की एक हरी कोपल भी। और… / मैं बांझ चट्टान की तरह / चुपचाप अड़ा रहा, खड़ा रहा। अपने से ही लड़ता रहा / जीत-हार का फैसला किए बिना / मजबूरी की राह चलता रहा…।
अतुल माहेश्वरी की पुण्य स्मृति : इतनी विनम्रता और संकोच शायद ही किसी मालिक में रहा होगा…
Shambhunath Shukla : नौकरी छोड़े भी चार साल हो चुके और अमर उजाला में मेरा कुल कार्यकाल भी मात्र दस वर्ष का रहा पर फिर भी उसके मालिक की स्मृति मात्र से आँखें छलक आती हैं। दिवंगत श्री अतुल माहेश्वरी को गए छह वर्ष हो चुके मगर आज भी लगता है कि अचानक या तो वे मेरे केबिन में आ जाएंगे अथवा उनका फोन आ जाएगा अरे शुक्ला जी जरा आप यह पता कर लेते तो बेहतर रहता। इतनी विनम्रता और संकोच शायद ही किसी मालिक में रहा होगा।
वरिष्ठ पत्रकार इरा झा ने अपने अदभुत पापा को यूं दी श्रद्धांजलि
अलविदा डेविड कॉपरफील्ड. ये उपमा जस्टिस सुरेश दत्त झा के लिए है जो संयोग से हमारे पिता थे. वो अकसर खुद अपनी तुलना डेविड कॉपरफील्ड से करते थे. उन्होंने बड़ी कठिनाइयों में अपना शुरुआती जीवन गुजारा था पर इससे कभी वह विचलित नहीं हुए. उल्टे, यह उनकी ताकत बना. उन्होंने आगे बढने के लिए मेहनत की, अपनी लाचारी का रोना नहीं रोया. यह जरूर है कि वह अपने रिश्तेदारों के घर रहकर पढे थे. जाहिर है उन्हें बड़ी दिककतें पेश आई होंगी पर उनके चेहरे पर कभी किसी के लिए शिकन नहीं देखी, उपेक्षा नहीं देखी.
पहली विदेश यात्रा (2) : जब तक जहाज का दरवाजा बंद न हो जाए, बताना मत….
पार्ट वन से आगे…. भारत के विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने जब मेल कर मुझे सूचित किया कि वेनेजुएला में होने वाले गुट निरपेक्ष सम्मेलन में शिरकत करने जा रहे भारतीय उप राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी के साथ जाने वाले भारतीय मीडिया डेलीगेशन के लिए भड़ास4मीडिया डॉट कॉम की तरफ से एक पत्रकार को भेजा जाना है, इसके लिए भड़ास किसे नामित कर रहा है, उनका डिटेल वगैरह चाहिए, तो मैंने तत्काल रिप्लाई में अपना मोबाइल नंबर दे दिया और लिखा कि फोन करिए, बात करते हैं. थोड़ी ही देर में फोन आ भी गया.
अलविदा अज्ञात जी, आप तो अशोक थे लेकिन हम अब भारी शोक में हैं
(स्व. अशोक अज्ञात जी)
कभी माफ़ मत कीजिएगा अशोक अज्ञात जी, मेरे इस अपराध के लिए … हमारे विद्यार्थी जीवन के मित्र अशोक अज्ञात कल नहीं रहे। यह ख़बर अभी जब सुनी तो धक् से रह गया । सुन कर इस ख़बर पर सहसा विश्वास नहीं हुआ । लेकिन विश्वास करने न करने से किसी के जीवन और मृत्यु की डोर भला कहां रुकती है। कहां थमती है भला ? अशोक अज्ञात के जीवन की डोर भी नहीं रुकी , न उन का जीवन । अशोक अज्ञात हमारे बहुत ही आत्मीय मित्र थे । विद्यार्थी जीवन के मित्र । हम लोग कविताएं लिखते थे। एक दूसरे को सुनते-सुनाते हुए हम लोग अकसर अपनी सांझ साझा किया करते थे उन दिनों।
…और इस तरह नींद में चले गये अशोक अज्ञात
गोरखपुर प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार अशोक अज्ञात नहीं रहे। इस सत्य को स्वीकार करने के अलावा हमारे पास अब कोई चारा नहीं है। करीब छह-सात साल पहले की बात है। अशोक अज्ञात प्रेस क्लब का चुनाव जीते। उनकी पत्रकार-मंडली का शपथ-ग्रहण समारोह होना था। अज्ञात एक दिन मुझसे टकरा गये। बोले– शपथग्रहण समारोह के लिए मुख्य अतिथि के रूप में किसे बुलाऊँ?
टैक्स गुरु सुभाष लखोटिया कैंसर के ताजा अटैक को मात न दे सके
सुभाष लखोटिया के प्रशंसकों एवं चहेतों के लिए यह विश्वास करना सहज नहीं है कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। भारत के शीर्ष टैक्स और निवेश सलाहकार के रूप में चर्चित एवं सीएनबीसी आवाज चैनल पर चर्चित शो ‘टैक्स गुरु’ के 500 से अधिक एपिसोड पूरा कर विश्व रिकार्ड बनाने वाले श्री लखोटिया अनेक पुस्तकों के लेखक थे। वे पिछले कई दिनों से जीवन और मौत से संघर्ष कर रहे थे। उनको कैंसर था। डाक्टरों ने बहुत पहले उनके न बचने के बारे में कह दिया था लेकिन अपने विल पावर और जिजीविषा के कारण वे कैंसर व मौत, दोनों को लगातार मात दे रहे थे। पर इस बार जब हालत बिगड़ी तो कई दिनों के संघर्ष के बाद अंततः दिनांक 11 सितम्बर 2016 की मध्यरात्रि में इस दुनिया को अलविदा कह गए।
एक बर्बाद जीनियस उर्फ ब्रजेश्वर मदान की याद…
Prabhat Ranjan : आज ब्रजेश्वर मदान को कोई याद नहीं करता. वे अपने जमाने के मशहूर फिल्म पत्रकार थे. ‘फ़िल्मी कलियाँ’ के संपादक थे और यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘जंजीर’ की पब्लिसिटी उन्होंने ही की थी. किस्सा यह है वे जासूसी लेखन के बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक के दोस्त थे. दोनों अक्सर शाम को रसरंजन की महफ़िल जमाते थे.
यह तस्वीर मदान साहब की बीमारी के बाद स्वास्थ्य लाभ के समय की है.
दो दिनी अलीगढ़ यात्रा : जिया, मनोज, प्रतीक जैसे दोस्तों से मुलाकात और विनय ओसवाल के घर हर्ष देव जी का साक्षात्कार
पिछले दिनों अलीगढ़ जाना हुआ. वहां के छात्रनेता और पत्रकार ज़ियाउर्रहमान ने अपनी पत्रिका ‘व्यवस्था दर्पण’ के एक साल पूरे होने पर आईटीएम कालेज में मीडिया की दशा दिशा पर एक सेमिनार रखा था. सेमिनार में सैकड़ों इंजीनियरिंग और एमबीए छात्रों समेत शहर के विशिष्ट जन मौजूद थे. आयोजन में शिरकत कर और युवाओं से बातचीत कर समझ में आया कि आज का युवा देश और मीडिया की वर्तमान हालत से खुश नहीं है. हर तरफ जो स्वार्थ और पैसे का खेल चल रहा है, वह सबके लिए दुखदायी है. इससे आम जन की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. सेमिनार में मैंने खासतौर पर मीडिया में आए भयंकर पतन और न्यू मीडिया के चलते आ रहे सकारात्मक बदलावों पर चर्चा की. बड़े मीडिया घरानों के कारपोरेटीकरण, मीडिया में काले धन, मीडिया में करप्शन जैसे कई मामलों का जिक्र उदाहरण सहित किया.
सबसे माफी मांगते अनंत की ओर चले गये नीलाभ जी
Hareprakash Upadhyay : सबसे माफी माँगते हुए अनंत की ओर चले गये नीलाभ जी। बेहद प्रतिभावान-बेचैन, सहृदय लेखक, कवि- अनुवादक! मुझसे तो बहुत नोक-झोक होती थी, मैं उन्हें अंकल कहता था और वे मुझे भतीजा! अंकल! अभी तो कुछ और दौर चलने थे। कुछ और बातें होनी थी। आप तो सबका दिल तोड़ चले गये। पर शिकायतें भी अब किससे और शिकायतों के अब मानी भी क्या! अंकल, हो सके तो हम सबको माफ कर देना। नमन अंकल! श्रद्धांजलि!
पलाश दा जैसा विद्रोही और उन्मुक्त स्वभाव वाला इंसान 25 साल तक किसी अख़बार में कैसे टिक गया?
जनसत्ता कोलकाता से शैलेंद्र (दाएं) के रिटायरमेंट के दिन उन्हें विदाई देते और यादगार के बतौर तस्वीर खिंचाते पलाश विश्वास (बाएं)
पलाश विश्वास का संस्मरण पढ़ा कि वो एक सप्ताह के अंदर ही रिटायर हो रहे हैं. जनसत्ता में लम्बी अवधि गुजरने के बाद अब वो नौकरी वाली पत्रकारिता से निजात पा जायेंगे. दरअसल नौकरी वाली पत्रकारिता आपको बाँध कर रखती है. आप अपनी मर्ज़ी से कुछ भी नहीं लिख सकते. आपका पूरा दिमाग और विचार अख़बार के प्रबंधन के पास गिरवी रखा होता है. मुझे तो इस बात पर आश्चर्य हुआ है कि पलाश दा जैसा विद्रोही और उन्मुक्त स्वभाव वाला इंसान 25 साल तक किसी अख़बार में कैसे टिक गया? 1991 में जब मैं अमर उजाला बरेली में उनके साथ काम करता था तब उन्हें अच्छी तरह समझने का अवसर मिला. वह मुझसे सीनियर थे और हम दोनों सेंट्रल डेस्क पर थे. न्यूज़ एडिटर थे इंदु भूषण रस्तोगी. एडिटर अख़बार के मालिक खुद होते थे.
संस्मरण : उस समय मैं जालंधर के एक अखबार में सब एडिटरी करता था…
बादशाहत सबकी सलामत रहे ! हालांकि अब बादशाहों, राजाओं का जमाना नहीं रहा, लेकिन मेरा दिल नहीं मानता। ये आज भी होते हैं और विभिन्न रूपों में हर जगह मौजूद हैं। मन के राजा, मन के बादशाह, मन के शेर…। वन टू का फोर करने वालों से लेकर कर्ज उठाकर अय्याशी करने वालों तक। बात कोई दो दशक पुरानी है। उस समय मैं जालंधर के एक अखबार में सब- एडिटरी करता था। रोज सहयोगी पत्रकार मित्र के साथ साइकिल पर पीछे बैठ कर कार्यालय जाता और रात को उसी तरह लौटता।
एक बार कमला पति त्रिपाठी के कहने पर हेमवती नंदन बहुगुणा भांग खा कर चित भी हुए थे
Rajiv Nayan Bahuguna : दरअसल इंदिरा गांधी और हेमवती नन्दन बहुगुणा में सन्देह के अंकुर 10 साल पहले ही पनप चुके थे, जिन्हें उनके उद्दंड, दबंग और अशिष्ट पुत्र संजय गांघी ने बाद में खाद पानी दिया। 1971 में कांग्रेस की शानदार जीत के उपरान्त बहुगुणा को उम्मीद थी कि पार्टी विभाजन और फिर राष्ट्र पति के विकट चुनाव में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के चलते इंदिरा गांधी उन्हें केंद्र में ताक़तवर मंत्री बनाएंगी। लेकिन उन्हें मात्र संचार राज्य मंत्री बनाया गया, वह भी अधीनस्थ। क्योंकि वह पहली बार सांसद बने थे। इससे रूठ कर बहुगुणा कोप भवन में चले गए और 15 दिन तक चार्ज नहीं लिया। हार कर और कुढ़ कर इंदिरा गांधी ने उन्हें मंत्रालय का स्वतन्त्र चार्ज तो दे दिया पर मन में गाँठ पड़ गयी। इधर बहुगुणा भी अपनी बड़ी भूमिका की तलाश में थे, जो नियति ने उन्हें प्रदान कर दी।
सुनील छइयां की याद : मिलना था इत्तेफाक, बिछड़ना नसीब था
सुनील छइयां की तीन तस्वीरें, तीन मुद्राएं… अब यादें शेष!
-पारस अमरोही–
सुनील छइयां से पहली मुलाकात कब हुई, अब याद नहीं। शायद अमरोहा के किसी
प्रोग्राम में। याद आते हैं सुनील के साथ बिताये दिन। दोनों साथ ही तो
अमर उजाला के मुरादाबाद संस्करण में रहे। सुनील एक पारखी छायाकार थे।
समर्पित। जुझारू। एक विश्वसनीय। इन्सान दोस्त। तब अमर उजाला की मुरादाबाद
ब्यूरो की कमान थी वरिष्ठ पत्रकार उमेश प्रसाद कैरे के हाथों में। अमर
उजाला का मुरादाबाद कार्यालय था-19 सिविल लाइंस यानी कैरे साहब का निवास।
सुनील की पहचान का दायरा मुरादाबाद में किसी भी लोकप्रिय माननीय से
ज्यादा था।
‘द जंगल बुक’ वाले रुडयार्ड किपलिंग तब दी पॉयोनियर इलाहाबाद में असिस्टेण्ट एडिटर थे
Sant Sameer : रुडयार्ड किपलिंग की मशहूर रचना ‘द जंगल बुक’ पर बनी बहुप्रतीक्षित फ़िल्म आज रिलीज हो रही है। बनी कैसी है, यह तो देखने के बाद पता चलेगा, पर इस रिलीज ने रुडयार्ड किपलिंग की याद ज़रूर दिला दी। किपलिंग सन् 1888 और 1889 के दो बरस इलाहाबाद में भी रहे थे। तब वे पॉयोनियर अख़बार में असिस्टेण्ट एडिटर थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सामने ही उनका बंगला था और पास में ही अख़बार का दफ़्तर।
जीवन भर धार्मिक आडंबरों के खिलाफ बोलने वाले निदा फाजली को मरने के बाद मुसलमानों ने बुरी तरह घेर लिया
सारा घर ले गया घर छोड़ के जानेवाला
-रासबिहारी पाण्डेय-
इस छोटे से जीवन में जिन बड़े कवि शायरों के साथ कुछ खुशनुमा शामें गुजरी हैं और कवि सम्मेलन मुशायरों में शिरकत करने का मौका मिला है ,उनमें एक नाम निदा फ़ाज़ली का भी है.पिछले 8 फरवरी को जब निदा फ़ाज़ली नहीं रहे तो वे सारी यादें एकबारगी चलचित्र की तरह आँखों के सामने घूम गयीं .उनके इंतकाल के बाद उन्हें सुपुर्दे खाक किये जाने तक छह सात घंटे उनके घर और उनके घर से चंद कदम दूर यारी रोड स्थित कब्रिस्तान और मस्जिद में गुजारने के दौरान कुछ उन दोस्तों के साथ भी अरसे बाद मिलने का मौका मिला जो अब या तो किसी की मैयत में मिलते हैं या किसी मुशायरे में . मुंबई की एक खुली सच्चाई यह भी है कि लोग अपनी जरूरतों से कुछ इस तरह बावस्ता हैं कि जिसे दिल से चाहते हैं उसे ज्यादे वक्त नहीं दे पाते, जिसे दिमाग से चाहते हैं उसे ज्यादे वक्त देना पड़ता है.
अगर आप हिंदी भाषी मीडियाकर्मी हैं तो बाबू राव पराड़कर के बारे में इस लेख को जरूर पढ़ें
विनय श्रीकर
ढाई-तीन महीने पहले हिन्दी के महान पत्रकार बाबूराव पराड़कर की जयंती थी। लेकिन हिन्दी के किसी पत्रकार को उनकी याद नहीं आयी। हिन्दी के किसी अखबार में पराड़कर जी के बारे में मुझे कोई लेख या टिप्पणी देखने को नहीं मिली। खैर, उनका जन्म 16 नवम्बर 1883 को हुआ था। वह वाराणसी के एक जाने-माने शिक्षित परिवार से थे। उनके पिता पंडित विष्णु शास्त्री पराडकर अपने जमाने के धुरंधर विद्वान थे।
पूर्वोत्तर यात्रा-5 : बिहु और झूमर का नशा
आज गुवाहाटी से काजीरंगा नेशनल पार्क के लिए रवाना होना था। सुबह 7 बजे सारे पत्रकार साथी तैयार हो चुके थे। राजभवन से नाश्ता कर प्रस्थान करना था। हम दो दिनों से असम के राजभवन में रुके थे पर अब तक राज्यपाल पद्मनाभन आचार्य जी से हमारी मुलाकात नहीं हो पाई थी। दरअसल आचार्य जी के पास असम के साथ साथ नागालैंड के राज्यपाल का भी प्रभार है। इन दिनों वे नागालैंड की राजधानी कोहिमा स्थित राजभवन में थे। वहाँ उनसे हमारी मुलाकात होने वाली थी। सुबह 7 बजे हम 4 घंटे की यात्रा पर काजीरंगा के लिए रवाना हुए। बस आगे बढ़ी तो समय बिताने के लिए फिर से गीत संगीत की महफ़िल जमी।
मस्ती की एक रात इस Osho पंथी संत ने यशवंत को दीक्षित कर नाम दे दिया स्वामी प्रेम संतति!
Yashwant Singh : तंत्र साधना को जानने की इच्छा के तहत काफी समय से बहुत कुछ पढ़, देख, सुन, खोज रहा हूं. इसी दरम्यान चंद रोज पहले लखनऊ में एक ओशो पंथी संन्यासी मिल गए, स्वामी आनंद भारती. उनसे तंत्र को लेकर त्रिपक्षीय वार्ता हुई. एक कोने पर Kumar Sauvir जी थे. दूसरे कोने पर खुद स्वामी आनंद भारती और तीसरे कोने पर मैं, श्रोता व वीडियो रिकार्डर के रूप में. ये 25 मिनट का वीडियो आपको बहुत कुछ बताएगा.
ट्रिक्सी यानी कुतिया नहीं, बल्कि मेरी बेटी, बहन, दोस्तन, मां और दादी…
मेरी बेटी से बहन, दोस्त, मां और दादी तक का सफर किया ट्रिक्सी ने : ट्रिक्सी की मौत ने मुझे मौत का अहसास करा दिया : मुझसे लिपट कर बतियाती थी दैवीय तत्वों से परिपूर्ण वह बच्ची
-कुमार सौवीर-
लखनऊ : मुझे जीवन में सर्वाधिक प्यार अगर किसी ने दिया है, तो वह है ट्रिक्सी। मेरी दुलारी, रूई का फाहा, बेहद स्नेिहल, समर्पित, अतिशय समझदार, सहनशील और कम से कम मेरे साथ तो बहुत बातूनी। अभी पता चला है कि ट्रिक्सी अब ब्रह्माण्ड व्यापी बन चुकी है। उसने प्राण त्याग दिये हैं। ट्रिक्सी यानी मेरी बेटी, बहन, दोस्तन, मां और दादी। ट्रिक्सी को लोगबाग एक कुतिया के तौर पर ही देखते हैं, लेकिन मेरे साथ उसके आध्यात्मिक रिश्ते रहे हैं। शुरू से ही।
कालिया जी धुर काँग्रेसी थे और मेरी छवि काँग्रेस विरोधी की थी
Sant Sameer : भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक और एक विशाल पाठक वर्ग के चहेते साहित्यकार रवीन्द्र कालिया जी के देहावसान के कई दिन बाद आज जाकर यह मानसिकता बना पा रहा हूँ कि बतौर श्रद्धांजलि उनकी याद में अपने दिल की कुछ बातें बयान करूँ। असल में, मेरी भी मानसिक बनावट कुछ अजीब सी है। परिचितों का दायरा तो सबका ही आमतौर पर बहुत बड़ा होता है, पर नज़दीकी रिश्ते कम ही लोगों से बन पाते हैं।
मैं जिंदगी भर अपने पति पंकज सिंह को बचाने में लगी रही क्योंकि उस शख्स को मौत से डर नहीं लगता था : सविता सिंह
मौत पर भारी एक शोकसभा : ‘पंकज भाई की याद में’
कवि पंकज सिह की शोक सभा, 14 जनवरी 2016, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली
मनुष्य जितना सामान्य होता है, या दिखता है, कभी-कभार जीते जी उस छवि को असामान्य तरीके से तोड़ कर आपको हैरत में डाल सकता है। पिछले पांच घंटे से मैं निस्तब्ध हूं, कि मैंने आज सविता सिंह को पंकज सिंह पर बोलते सुना है। मेरे कानों में अब भी उनके शब्द गूंज रहे हैं। मैं हैरत में हूं, कि आज मैंने सविता सिंह को पंकज सिंह पर बोलते सुना है और मैं हैरत में हूं।
मैं ही हूं रवींद्र कालिया
IIMC पास करने के कुछ दिनों की बात है। पत्रकारिता का नया-नया रंगरूट था। नौकरी नहीं करने का फैसला किया था। फ्रीलांसिंग शानदार चलती थी और लगता था ज़िंदगी में और क्या चाहिए। मोहन सिंह प्लेस कॉफी हाउस में बैठे हुए कुछ लोगों के बीच इलाहाबाद का ज़िक्र छिड़ा। और मेरे मन में तुरंत इलाहाबाद जाने की हुड़क मच गई। ऐसी हुड़क कि मैंने कॉफी हाउस से सीधे इलाहाबाद की ट्रेन पकड़ने का फैसला किया। कोई रिजर्वेशन नहीं, कोई तैयारी नहीं। दूसरा दर्जा तब कैटल क्लास के नाम से कुख्यात नहीं हुआ था।
श्रद्धांजलि : अरविन्द उप्रेती ने एक सीख तब दी थी और एक आज दी
Sanjaya Kumar Singh : अरविन्द उप्रेती जनसत्ता के अपने साथी थे। आज अचानक चले गए। उनकी मस्ती का जवाब नहीं। आराम से गुटखा खाते, काम करना और खाने–पीने के जुगाड़ में लगे रहना। इससे ज्यादा की उनकी चिन्ता या परेशानी कभी मालूम नहीं हुई। जनसत्ता की बुरी स्थिति में जब पेज भरने के लिए खबरों का अकाल सा होता था और खबरें बनाने वाले साथी न के बराबर होते थे तब भी उन्हें कभी परेशान नहीं देखा। आराम से आना और आराम से जाना। मन हुआ तो आए नहीं तो छुट्टी। ड्यूटी जो हो सो हो। बहुत पुरानी बात है। आरके पुरम में रहते थे और घर बदलना था। हमलोगों से कहा कि यार कल घर बदलना है। सुबह आ जाओ थोड़ी मदद करना और मटन खाया जाएगा। अगले दिन मैं साथी Sanjay Sinha के साथ पहुंच गया। उस समय की गृहस्थी में ज्यादा सामान तो नहीं था पर दो कमरे का घर था तो समान कम भी नहीं था। लेकिन अरविन्द भाई बगैर किसी तनाव के मिले। कोई पैकिंग नहीं थी कोई तैयारी नहीं।
स्व. अरविंद उप्रेती
पंकज सिंह विलक्षण प्रतिभा के धनी होने के साथ-साथ बेहद संवेदनशील और बेबाक इंसान थे
Shiv Kant : कुछ ही क्षण पहले रूपा झा के फ़ेसबुक संदेश से पता चला कि जाने-माने कवि और बीबीसी के पूर्व प्रसारक पंकज सिंह नहीं रहे। हिंदी कविता और पत्रकारिता के लिए यह समाचार एक निर्मम आघात है। पंकज सिंह से एक महीने पहले ही इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पर संक्षिप्त सी मुलाक़ात हुई थी। विश्वास नहीं होता कि वे इतनी जल्दी अंतिम विदा ले लेंगे। उन के साथ चार साल काम करने और बहुत कुछ सीखने का सौभाग्य मिला था। किसी चलते-फिरते क़िस्सा-कोश की तरह उनके पास हर अवसर, विभूति और क्षेत्र को लेकर दिलचस्प क़िस्सों का एक ख़ज़ाना रहता था। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी होने के साथ-साथ बेहद संवेदनशील और बेबाक इंसान थे। हम उनके परिवार, मित्रों और पाठकों के दुःख में शामिल हैं…
पूर्वोत्तर यात्रा-2 : चौदह पेज का अखबार आठ रुपए में
सिर्फ 50 रुपए में बन गए राजा
-विजय सिंह ‘कौशिक’-
शिलांग से चेरापूंजी के लिए रवाना होने के वास्ते 23 नवंबर 2015 कि सुबह 7 बजे का समय तय किया गया था। लेकिन हम भारतीयों में से अधिकांश समय प्रबंधन के मामले में कच्चे ही हैं। कुछ साथी तैयार हो रहे थे इस लिए बाकी साथी राजस्थान विश्राम भवन के पास में स्थित होटल में नास्ता करने चले गए। होटल के काउंटर पर बैठे सज्जन को हिंदी अखबार पूर्वोदय पढ़ते देखा तो समझ में आ गया कि महोदय हिंदी भाषी हैं। पूर्वोत्तर में हिंदीभाषियों के खिलाफ हिंसा की खबरे आती रहती हैं। उनसे यहां के हालात जानने के लिए बातचीत करने की उत्सुकता हुई। पता चला होटल के मालिक राजेंद्र शर्मा मूलतः राजस्थान के सिलचर जिले के रहने वाले हैं। 40 सालों पहले उनका परिवार राजस्थान से शिलांग आ गया था। मौजूदा हालात के बारे में पूछने पर शर्मा बताते हैं कि अभी स्थिति थोड़ी अच्छी है।
मेरी अंतिम इच्छा : एक जनपक्षीय व्यवसायी कामरेड महादेव खेतान ने मरने के दो दिन पहले जो वसीयत तैयार की, उसे पढ़ें
करेंट बुक डिपो कानपुर के संस्थापक महादेव खेतान का अब से तकरीबन 16 वर्ष पूर्व 6 अक्टूबर 1999 को निधन हुआ। महादेव खेतान ने अपनी पुस्तकों की इस दुकान के जरिए वामपंथी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया और उनके इस योगदान को हिन्दी भाषी क्षेत्रों में काफी सराहा गया। विचारों से साम्यवादी होने के साथ वह एक सफल व्यवसायी भी थे लेकिन उन्होंने अपने व्यवसायी हित को कभी-भी व्यापक उत्पीड़ित जनसमुदाय के हित से ऊपर नहीं समझा। यही वजह है कि अपनी पीढ़ी के लोगों के बीच वह कॉमरेड महादेव खेतान के रूप में जाने जाते थे… अपने निधन से दो दिन पूर्व उन्होंने अपनी वसीयत तैयार की। हम उस वसीयत को यहां अक्षरशः प्रकाशित कर रहे हैं ताकि एक जनपक्षीय व्यवसायी के जीवन के दूसरे पहलू की भी जानकारी पाठकों को मिल सके. -आनंद स्वरूप वर्मा, संपादक, समकालीन तीसरी दुनिया
पंकज सिंह जी की अंतेष्टि में मैंने अनायास उनके पैर छू लिए
Shashi Bhooshan Dwivedi : पता नहीं क्यों मृत्यु के बाद किसी की लाश या चिता की फोटो लगाना मुझे अच्छा नहीं लगता। शायद दिक्कत मेरी ही होगी। लेकिन आज एक सीख मिली। आमतौर पर मैं हिंदी साहित्य के किसी बुजुर्ग के पैर नहीं छूता। सिवाय विश्वनाथ त्रिपाठी के। आज तक उनसे कोई लाभ लिया नहीं और सोच रखा है कि कभी कोई लाभ उनसे मिलने वाला भी होगा तो लूंगा नहीं। आज पंकज सिंह जी की अंतेष्टि में मैंने और उमाशंकर चौधरी ने अनायास उनके पैर छू लिए तो उन्होंने पास बैठाकर कहा कि देखो कई लोग मेरे पैर छू गए मैंने किसी से नहीं कहा लेकिन तुम लोगों से तो कहूँगा कि श्मशान में मृतक के सिवा किसी के पैर नहीं छूने चाहिए। यह हमारी परंपरा है। मैं शर्मिंदा था।
कवि-पत्रकार पंकज सिंह को जसम की श्रद्धांजलि : वे हमारी आवाजें थें…
मशहूर कवि और पत्रकार पंकज सिंह का निधन देश के क्रांतिकारी वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति है। 26 दिसंबर को दिल्ली में दिल के दौरे से उनका निधन हो गया। निधन के चार दिन पहले ही उन्होंने अपने जीवन का 67वां साल पूरा किया था। वसंत के वज्रनाद ‘नक्सलबाड़ी जनविद्रोह’ ने मुक्ति का जो स्वप्न दिया, उसके साथ पंकज सिंह का आजीवन गहरा सरोकार रहा। राजनीति का क्षेत्र हो या साहित्य और कला का, जिन ‘हाथों पर युवा वसंत के उल्लास का खून’ लगा था, उनकी शिनाख्त करना वे कभी नहीं भूले। 1985 में दिल्ली मे हुए जन संस्कृति मंच के स्थापना सम्मेलन में वे बतौर प्रतिनिधि शामिल हुए थे। 1998 के दिल्ली सम्मेलन में वे जसम के राष्ट्रीय परिषद के सदस्य बने। भाकपा-माले से उनका अत्यंत दोस्ताना संबंध रहा। आखिरी वक्त तक वे मार्क्सवादी-लेनिनवादी राजनीतिक धारा के साथ ही जुड़े रहे। जीवन की आखिरी सांस तक सत्ता की तानाशाही और उसके फासीवादी मुहिम के विरुद्ध वे सक्रिय रहे।
पंकज सिंह को जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज की श्रद्धांजलि : अनजान शहर में जान-पहचान
एक बेतकल्लुफ-सी मुलाकात थी वो। दिल्ली में औपचारिक तौर पर काम संभालने के बाद एक पुराने वरिष्ठ सहयोगी के इसरार पर मैं अजित राय के जन्मदिन की पार्टी में शिरकत के लिए पहुंचा। यह पहला मौका था कि मैंने किसी आयोजन में शमूलियत की हामी भरी थी। जनसत्ता के पूर्व संपादक अच्युतानंद मिश्र, प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह और मशहूरो-मारूफ बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन की सोहबत का मौका मिला।
पूर्वोत्तर यात्रा-1 : शिलांग में पश्चिम का राजस्थान
शिलांग में राजस्थानी समाज द्वारा 1959 में बनाया गया राजस्थान विश्राम भवन।
जिंदगी यादों का कारवाँ है। हम भी अपने इस यादों के कारवे में आप सब को शामिल करने जा रहे है। देश के पूर्वी हिस्से जिसे नार्थ ईस्ट यानि पूर्वोत्तर के नाम से जानते हैं। भारत का यह इलाका देश के बाकी हिस्से से लगभग कटा हुआ है। हालाँकि हाल के वर्षों में लोगों की दिलचस्पी पूर्वोत्तर में बढ़ी है। काफी दिनों से पूर्वोत्तर यात्रा के बारे में सोच रहा था। इसी साल सितम्बर की एक दोपहर मंत्रालय में खबरों की तलाश के दौरान एशियन एज के विशेष संवाददाता मेरे मित्र विवेक भावसार ने बताया की हम कुछ पत्रकार मित्र पूर्वोत्तर यात्रा की योजना बना रहे हैं। पूछा क्या आप भी चलना चाहेंगे ? मैं तो पूर्वोत्तर देखने के लिए कब से लालायित था। इस लिए हा कहने में जरा भी देर नहीं की। धीरे धीरे पूर्वोत्तर जाने वाले पत्रकार साथियों की संख्या बढ़ते बढ़ते 18 तक पहुच गई। आख़िरकार पूर्वोत्तर यात्रा की तिथि भी तय हो गई। एयर टिकट सस्ते मिले इस लिए एक माह पहले ही टिकटों की बुकिंग कराई गई।
…सुलह होगी पंकजजी, यहां नहीं तो वहां : ओम थानवी
Om Thanvi : परसों की ही बात है। आइआइसी मेन के लाउंज में सुपरवाइजर की मेज के गिर्द हम दोनों अगल-बगल आ खड़े हुए थे। करीब, मगर अबोले। बगल वाले शख्स पंकज सिंह थे। नामवर सिंहजी के सालगिरह समारोह के दिन से हमारी तकरार थी। बहरहाल, परसों हम आमने-सामने होकर भी अपने-अपने घरों को चले गए। पर मुझे वहाँ से निकलते ही लगा कि यहीं अगली दफा हम लोग शायद गले मिल रहे होंगे। क्षणिक तकरार कोई जीवन भर का झगड़ा होती है? आज मैं इलाहाबाद आया। वे पीछे दुनिया छोड़ गए। लगता है अब वहीं मिलेंगे। आज नहीं तो कल।
सर्वदा कविता के सुखद आनंद में जीने वाले पंकज सिंह को उनकी ही एक कविता में विनम्र श्रद्धांजलि!
Vinod Bhardwaj : पंकज सिंह से मेरा पुराना परिचय था. 1968 से उन्हें जानता था. आरम्भ लघु पत्रिका की वजह से. 1980 में जब मैं पहली बार पेरिस गया था, तो उन दिनों वे वहीँ थे. काफी उनके साथ घूमा. रज़ा से मिलने उनके साथ ही गया था. लखनऊ में रमेश दीक्षित के घर पर एक बार खुसरो का ‘छाप तिलक’ उनसे सुनकर मन्त्र मुग्ध हो गया था. बहुत सुन्दर गाया था उन्होंने. अजीब बात है कि फेसबुक पर हम मित्र नहीं थे पर वे मेरी कई चीज़ें शेयर कर लेते थे अपनी वाल पर, अधिकार की तरह. पिछली कई मुलाकातों में उन्होंने मुझसे सेप्पुकु पढ़ने की बात की. तय हुआ हम जल्दी ही मिलेंगे. पर आज यह बुरी खबर मिली. मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.
पंकज सिंह की याद में… Salute to the unsung hero of contemporary Hindi poetry
”कृष्णजी, मैं दिल्ली आ गया हूँ….” 17 दिसम्बर को Pankaj Singh का दूरभाष आया. वे अपने मुल्क़ मुज़फ़्फ़रपुर से आये थे जहां उन्हें कविता के लिये सम्मानित किया गया था. इस पर मैंने कहा- मैं भी अपने देश जा रहा हूँ, लौटकर मुलाक़ात होती है.
मैनेज करने और मैनेज होने वाली पत्रकारिता का यह दौर और आलोक तोमर जी की याद
Ashish Maheshwari : फेसबुक है कि याद दिला देता है… आज जब पत्रकारिता मैनेज करने और मैनेज होने भर का माध्यम बनकर रह गई है ऐसे दौर में आलोक तोमर जी का न होना बेहद सालता है… दिल्ली में करियर के शुरूआती दिनों में फेसबुक के माध्यम से जिस शख्स से परिचय हुआ उनमें आलोक तोमर एक बड़ा नाम हैं ….मेरे पिता के मित्र और वरिष्ठ पत्रकार Hari Joshi ने कभी मुझसे कहा था कि दिल्ली में कोई दिक्कत हो तो आलोक तोमर जी से मिल लेना ….फोन पर बात तो बहुत हुई. मोबाइल पर तबले वाली उनकी कॉलर ट्युन और बेबाक अंदाज से रूबरू हुआ पर दुख इस बात का कि मुलाकात न हो सकी….
भड़ास का एक सच्चा कमांडर अलविदा कह गया… श्रद्धांजलि हाड़ा साब!
(स्व. राजेंद्र हाड़ा)
Yashwant Singh : राजेंद्र हाड़ा जी आज सुबह चल बसे. अजमेर के जाने माने वकील और दबंग पत्रकार थे. पत्रकारिता छोड़कर इसलिए वकालत में आ गए थे क्योंकि पत्रकारिता में धंधेबाजी बहुत ज्यादा थी. हाड़ा साहब भड़ास के अनन्य समर्थक थे. मुझे बहुत प्यार करते. भड़ास के कार्यक्रमों में शिरकत करने दिल्ली आया करते. अजमेर समेत राजस्थान के उन विषयों पर दबा कर कलम चलाते जिसके बारे में लिखने से मीडिया हाउसों व पत्रकारों को डर लगता. खासकर मीडिया के भीतर की चिरकुटई पर जोरदार तरीके से प्रहार करते.
तब वीरेन डंगवाल ने कहा था : ….गण्यमान्य लोगों की धारा मेरी धारा नहीं है
Pankaj Chaturvedi : तुम्हारे लिए कोई एक शब्द इस्तेमाल करने की विवशता हो, तो मैं कहूँगा : अकृत्रिम। यही सिफ़त तुम्हें ज़िन्दगी के बेहद क़रीब लायी और तुम उसकी महिमा को पहचान सके। एक हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर मनुष्यता को पहुँचाने के लिए सड़क बनाते शहीद हुए मज़दूरों की स्मृति में कृतज्ञता से नतमस्तक होकर तुमने लिखा : ”कितनी विराट है यहाँ रात / घुल गये जिसमें हिम-शिखर / नमक के ढेलों की तरह / सामने के पहाड़ अन्धकार में / दीखती हैं नीचे उतरती एक मोटर गाड़ी की / निरीह बत्तियाँ / विराट है जीवन।”
पत्रकारिता जीने का तरीका है, यह पाठ एसएन विनोद ने मुझे पढ़ाया : पुण्य प्रसून बाजपेयी
मौजूदा दौर में पत्रकारिता करते हुये पच्चीस-छब्बीस बरस पहले की पत्रकारिता में झांकना और अपने ही शुरुआती करियर के दौर को समझना शायद एक बेहद कठिन कार्य से ज्यादा त्रासदियों से गुजरना भी है। क्योंकि 1988-89 के दौर में राजनीति पहली बार सामाजिक-आर्थिक दायरे को अपने अनुकूल करने के उस हालात से गुजर रही थी और पत्रकारिता ठिठक कर उन हालातों को देख-समझ रही थी , जिसे इससे पहले देश ने देखा नहीं था। भ्रष्टाचार के कटघरे में राजीव गांधी खड़े थे। भ्रष्टाचार के मुद्दे के आसरे सत्ता संभालने वाले वीपी सिंह मंडल कमीशन की थ्योरी लेकर निकल पड़े और सियासत में साथ खड़ी बीजेपी ने कमंडल थाम कर अयोध्या कांड की बिसात बिछानी शुरु कर दी। और इसी दौर में नागपुर से हिन्दी अखबार लोकमत समाचार के प्रकाशन लोकमत समूह ने शुरू किया जिसका वर्चस्व मराठी पाठकों में था।
जब भैरोंसिंह शेखावत ने पत्रकार जयशंकर गुप्ता से पूछा था- ‘मैं स्वयं भी तो संघ का ही स्वयंसेवक हूं, आप लोग हममें भेद कैसे कर सकते हैं’
Jaishankar Gupta : बात पुरानी है, तब की जब हम इंडिया टुडे के साथ थे और पूर्व उप राष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत राजस्थान के मुख्यमंत्री। हमारा राजस्थान में आना जाना और ठाकर साहब (भैरोंसिंह शेखावत) से मिलना जुलना लगा रहता था। उस समय भाजपा में एक लाबी खासतौर से संघ से जुडे कुछ नेताओं की मंडली लगातार उनके विरुद्ध सक्रिय रहती थी। एक दिन भोजन पर हम ठाकर साहब के साथ थे। बात बात में उन्होंने पूछ लिया ”आप लोग अक्सर लिखते रहते हैं मेरे विरुद्ध संघ की लॉबी सक्रिय है। मैं स्वयं भी तो संघ का ही स्वयंसेवक हूं। आप लोग हममें भेद कैसे कर सकते हैं।”
वीरेन डंगवाल स्मरण : वीरेन कविता को इतना पवित्र मानता है कि अक्सर उसे लिखता ही नहीं है…
Pankaj Chaturvedi : उत्सवधर्मिता तुम्हें रास नहीं आती थी। तुम अपनी डायरी के पहले पन्ने पर ‘धम्मपद’ में संरक्षित बुद्ध का यह वचन लिखते थे : ”को नु हासो किमानन्दो, निच्चं पज्जलिते सति”—-यानी कैसी हँसी, कैसा आनन्द, जब सब कुछ निरन्तर जल रहा है। इसलिए जो तुम्हारा मस्ती-भरा अंदाज़ दिखता था, वह तुम थे नहीं! वह एक आवरण था, जिसमें तुम अपने अंतस की आभा छिपाये थे। जैसा कि ‘प्रसाद’ कहते हैं—-”एक परदा यह झीना नील छिपाये है जिसमें सुख गात।” असद ज़ैदी ने ठीक लिखा है कि उनकी नहूसत और तुम्हारी चपलता दरअसल एक ही धातु से निर्मित थी।
वीरेन दा एक व्यक्ति नहीं, संस्था थे
वीरेन दा का निधन पत्रकारिता ही नहीं, समूचे हिंदी साहित्य जगत की एक बड़ी क्षति है। वीरेन दा मेरे लिए तो एक पत्रकार और साहित्यकार से बहुत आगे बढ़कर ऐसे गुरू थे, जो अपने शिष्य को कार्य क्षेत्र की कमियों, खूबियों और बारीकियों से ही अवगत नहीं कराते बल्कि जीवन में आगे बढ़ने की शिक्षा व्यवहारिक धरातल पर देते हैं। मुझे जैसे हजारों लोगों को वीरेन दा ने बहुत कुछ सिखाया है।
मेरी थाईलैंड यात्रा (3) : …अपमान रचेता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे
कोरल आईलेंड की यात्रा से पहले थाईलेंड के बारे में कुछ बातें कर ली जाय. हवाई अड्डे से ही लगातार नत्थू की एक इच्छा दिख रही थी कि वो अपने देश के बारे में ज्यादा से ज्यादा हमें बताये. शायद इसके पीछे उसकी यही मंशा रही हो कि हम जान पायें कि केवल एक ही चीज़ उसके देश में नहीं है, इसके अलावा भी ढेर सारी चीज़ें उनके पास हैं जो या तो हमारी जैसी या हमसे बेहतर है. बाद में यह तय हुआ कि जब-जब बस में कहीं जाते समय खाली वक़्त मिलेगा तो थाईलैंड के बारे में नत्थू बतायेंगे और मैं उसका हिन्दी भावानुवाद फिर दुहराऊंगा. उस देश के बारे में थोड़ा बहुत पहले पायी गयी जानकारी और नत्थू की जानकारी को मिला कर अपन एक कहानी जैसा तैयार कर लेते थे और उसे अपने समूह तक रोचक ढंग से पहुचाने की कोशिश करते थे. नत्थू तो इस प्रयोग से काफी खुश हुए लेकिन ऐसे किसी बात को जानने की कोई रूचि साथियों में भी हो, ऐसा तो बिलकुल नहीं दिखा. उन्हें थाईलैंड से क्या चाहिए था, यह तय था और इससे ज्यादा किसी भी बात की चाहत उन्हें नहीं थी. खैर.
जन्मदिन 8 अगस्त पर : राजेन्द्र माथुर की गैरहाजिरी के 25 साल
किसी व्यक्ति के नहीं रहने पर आमतौर पर महसूस किया जाता है कि वो होते तो यह होता, वो होते तो यह नहीं होता और यही खालीपन राजेन्द्र माथुर के जाने के बाद लग रहा है। यूं तो 8 अगस्त को राजेन्द्र माथुर का जन्मदिवस है किन्तु उनके नहीं रहने के पच्चीस बरस की रिक्तता आज भी हिन्दी पत्रकारिता में शिद्दत से महसूस की जाती है। राजेन्द्र माथुर ने हिन्दी पत्रकारिता को जिस ऊंचाई पर पहुंचाया, वह हौसला फिर देखने में नहीं आता है। ऐसा भी नहीं है कि उनके बाद हिन्दी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में किसी ने कमी रखी लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में एक सम्पादक की जो भूमिका उन्होंने गढ़ी, उसका सानी दूसरा कोई नहीं मिलता है। राजेन्द्र माथुर के हिस्से में यह कामयाबी इसलिए भी आती है कि वे अंग्रेजी के विद्वान थे और जिस काल-परिस्थिति में थे, आसानी से अंग्रेजी पत्रकारिता में अपना स्थान बना सकते थे लेकिन हिन्दी के प्रति उनकी समर्पण भावना ने हिन्दी पत्रकारिता को इस सदी का श्रेष्ठ सम्पादक दिया। इस दुनिया से फना हो जाने के 25 बरस बाद भी राजेन्द्र माथुर दीपक की तरह हिन्दी पत्रकारिता की हर पीढ़ी को रोशनी देने का काम कर रहे हैं।
‘आजतक’ के पत्रकार विकास मिश्र ने अपने बगल की सीट पर बैठने वाले अक्षय को यूं याद कर दी श्रद्धांजलि
Vikas Mishra : दफ्तर में मेरी ठीक बाईं तरफ की सीट खाली है। ये अक्षय की सीट है। अक्षय अब इस सीट पर नहीं बैठेगा, कभी नहीं बैठेगा। दराज खुली है। पहले खाने में कई खुली और कई बिन खुली चिट्ठियां हैं, जो सरकारी दफ्तरों से आई हैं, इनमें वो जानकारियां हैं, जो अक्षय ने आरटीआई डालकर मांगी थीं। करीब तीन महीने पहले ही दफ्तर में नई व्यवस्था के तहत, अक्षय को बैठने के लिए मेरे बगल की सीट मिली थी। वैसे दफ्तर में रोज दुआ सलाम हुआ करती थी, लेकिन पिछले तीन महीने से तो हर दिन का राफ्ता था। अक्षय…हट्ठा कट्ठा जवान। उसके हाथ इतने सख्त, मोटी-मोटी उंगलियां। मिलते ही हाथ, सिर तक उठाकर बोलता-‘सर, नमस्कार’ …और फिर हाथ बढ़ाता मिलाने के लिए। इतनी गर्मजोशी से हाथ मिलाता कि पांच मिनट तक मेरा हाथ किसी और से मिलाने लायक नहीं रहता।
आलोक भट्टाचार्य और उमेश द्विवेदी श्रद्धांजलि सभा : पत्रकार-साहित्यकार मर कर भी अपनी लेखनी की वजह से जिंद रहते हैं
मुंबई : सांताक्रुज पूर्व के नजमा हेपतुल्ला सभागार में मुंबई हिंदी पत्रकार संघ द्वारा दिवंगत पत्रकार साहित्यकार अलोक भट्टाचार्य और पत्रकार उमेश द्विवेदी की याद में श्रद्धांजलि सभा का कार्यक्रम रखा गया। श्रद्धांजलि सभा में शहर के जाने माने पत्रकारों और साहित्यकारों ने अपने दिनों दिवंगत साथियों को भावपूर्ण आदरांजलि अर्पित की। वक्ताओं ने कहा कि पत्रकार-साहित्यकार मर कर भी अपनी लेखनी की वजह से जिन्दा रहते हैं।
Tearful homage to Com. K.L.Monga
The death of Com. K.L. Monga, many times General Secretary of the Bennett Coleman and Company Employees Union, is not only sad and shocking but has shaken me to the core. I really got so benumbed with this tragic news that I went into silence for a few minutes. The saddest part of it is that youngsters working even for the Times of India do not know who he was. For the last, nearly two decades he had virtually gone into oblivion.
तुम्हें विदा करते हुए बहुत उदास हूँ सुनील…
हमारे सहकर्मी, हमारे स्वजन अमर उजाला हल्द्वानी के संपादक सुनील साह नहीं रहे. राजीव लोचन साह, हमारे राजीव दाज्यू के फेसबुक वाल पर अभी-अभी लगा है वह समाचार, जिसकी आशंका से हमारे वीरेनदा कल फोन पर आंसुओं से सराबोर आवाज में कह रहे थे- ”सुनील वेंटीलेशन पर है और कल डाक्टरों ने जवाब दे दिया है।” सुनील साह नैनीताल से जुड़े हैं और बरसों से हल्द्वानी में हैं। पिछले जाड़ों में हम सुनील साह, हरुआ दाढ़ी, चंद्रशेखर करगेती और हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी से मिलने नैनीताल से हल्द्वानी निकलने वाले ही थे कि पद्दो का घर से अर्जेंट फोन आ गया और हम हल्द्वानी बिना रुके बसंतीपुर पहुंच गये।
मेरे प्रति तबके तीन सीनियर हरिवंशजी, संजीव क्षितिज और हरिनारायणजी का नजरिया काफी बदल गया था
ओमप्रकाश अश्क
जीवन में जटिलताएं न आयें तो आनंद की अनुभूति अलभ्य है। मुंह जले को ही तो मट्ठे की ठंडाई का एहसास हो सकता है। जो ठंड में ही रहने का आदी हो, उसके लिए ठंड का का क्या मायने? और अगर ठंड के बाद जलन की पीड़ा झेलनी पड़े तो उसकी हालत का आप अनुमान लगा सकते हैं। हरिवंशजी ने प्रथमदृषटया भले ही मुझे घमंडी समझ लिया था, लेकिन बाद के दिनों में उनकी यह धारणा बदली और वह मेरी शालीनता के कायल हो गये। मैं दफ्तर में शायद ही किसी से घुल-मिल कर बातें करता था। तब अपने काम में मगन रहना ही मुझे ज्यादा श्रेयस्कर लगा। बीच-बीच में हरिवंशजी मुझे अंगरेजी-हिन्दी अखबारों की कतरनें देते और उनसे एक नयी स्टोरी डेवलप करने को कहते। मैं वैसा करने लगा। हरिनारायण जी की कृपा से वैसे पीस बाईलाइन छप जाते। ऐसी बाईलाइन स्टोरी की संख्या जितनी होती, उतने 40 रुपये की कमाई हो जाती। इसका भुगतान वेतन वितरण के पखवाड़े-बीस दिन बाद होता।
चौथी पुण्यतिथि : आलोक तोमर की स्टाइल में आलोक तोमर को श्रद्धांजलि दी निधीश त्यागी ने
बड़े भाई आलोक तोमर को गुजरे चार बरस हो गए. कल बीस मार्च को उनकी चौथी पुण्यतिथि पर सुप्रिया भाभी ने कांस्टीट्यूशन क्लब में भविष्य के मीडिया की चुनौतियां विषय पर विमर्श रखा था. पूरा हाल खचाखच भर गया. अलग से कुर्सियां मंगानी पड़ी. सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में अगर सबसे अलग तरीके से और सबसे सटीक किसी ने आलोक तोमर को श्रद्धांजलि दी तो वो हैं बीबीसी के संपादक निधीश त्यागी. उन्होंने अपनी एक कविता सुनाकर आलोक तोमर को आलोक तोमर की स्टाइल में याद किया. ढंग से लिखना ही आलोक तोमर को सच्ची श्रद्धांजलि है, यह कहते हुए निधीश त्यागी ने ‘ढंग से न लिखने वालों’ पर लंबी कविता सुनाई जिसके जरिए वर्तमान पत्रकारिता व भविष्य की चुनौतियों को रेखांकित किया. कविता खत्म होते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. बाद में अल्पाहार के दौरान कई लोग निधीश त्यागी से उनकी इस कविता की फोटोकापी मांगते दिखे. कविता (हालांकि खुद निधीश त्यागी इसे कविता नहीं मानते) यूं है, जो Nidheesh Tyagi ने अपने वॉल पर पब्लिश किया हुआ है…
एक न्यूज चैनल जहां महिला पत्रकारों को प्रमोशन के लिए मालिक के साथ अकेले में ‘गोल्डन काफी’ पीनी पड़ती है!
चौथा स्तंभ आज खुद को अपने बल पर खड़ा रख पाने में नाक़ाम साबित हो रहा है…. आज ये स्तंभ अपना अस्तित्व बचाने के लिए सिसक रहा है… खासकर छोटे न्यूज चैनलों ने जो दलाली, उगाही, धंधे को ही असली पत्रकारिता मानते हैं, गंध मचा रखा है. ये चैनल राजनेताओं का सहारा लेने पर, ख़बरों को ब्रांड घोषित कर उसके जरिये पत्रकारिता की खुले बाज़ार में नीलामी करने को रोजाना का काम मानते हैं… इन चैनलों में हर चीज का दाम तय है… किस खबर को कितना समय देना है… किस अंदाज और किस एंगल से ख़बर उठानी है… सब कुछ तय है… मैंने अपने एक साल के पत्रकारिता के अनुभव में जो देखा, जो सुना और जो सीखा वो किताबी बातों से कही ज्यादा अलग था…. दिक्कत होती थी अंतर आंकने में…. जो पढ़ा वो सही था या जो इन आँखों से देखा वो सही है…
विनोद मेहता पत्रकारों को पगार देने के नाम पर बेहद कंजूस थे लेकिन ‘एडिटर’ कुत्तों पर खूब खर्च करते थे
(स्व. विनोद मेहता जी)
Sumant Bhattacharya : विनोद मेहता की रुखसती का मतलब… मैं शायद उन चंद किस्मत वाले पत्रकारों में हूं, जिनका साक्षात्कार विनोद मेहता साहब ने लिया और पत्रकारिता के अपने स्कूल में दाखिला लिया। मैं हिंदी आउटलुक में था और हिंदी आउटलुक को नीलाभ मिश्र साहब देख रहे हैं। वो भी मेरे बेहद पसंदीदा और मेरी नजर में पत्रकारिता के बेहद सम्मानित, काबिल नाम हैं।
‘एडिटर’ नाम के कुत्ते के कारण विनोद मेहता से कई संपादक चिढ़ते थे
Ashish Maharishi : विनोद मेहता नहीं रहे। उनसे पहली और अंतिम मुलाकात कुछ साल पहले साउथ दिल्ली के Nirula’s में हुई थी। दोपहर का वक्त था। पेट की भूख शांत करने के लिए रेस्टोरेंट में जैसे घुसा तो सामने विनोद जी बड़ी शांति से बैठकर कुछ खा रहे थे। मैं उन्हें देखता रहा। उनका लिखा अक्सर मुझे अंदर तक झंकझोर देता था। खासतौर से आउटलुक में उनका कॉलम। जिसमें में वे साधारण शब्दों में बड़ी बातें कह दिया करते थे।
विनोद मेहता कहीं आलोक मेहता के भाई तो नहीं हैं?
Sushant Jha : विनोद मेहता से सिर्फ एक बार मिला, वो भी संयोग से। सन् 2004 में IIMC में एडमिशन लेना था, प्रवेश परीक्षा का फार्म खरीद लिया था। एक सज्जन थे जो 1000 रुपये प्रति घंटा विद चाय एंड समोदा कोचिंग करवाते थे। किसी भी कीमत पर IIMC में घुस जाने की जिद ने मुझे नोएडा सेक्टर 30(शायद) के एक सोसाइटी में पहुंचा दिया। सुबह के सात-साढे सात बजे होंगे। हमारी कोचिंग चल ही रही थी, कि कॉलबेल बजा।
संपादक की संस्था थोड़ी और हिल गई… (पढ़िए, विनोद मेहता के निधन पर किसने क्या कहा)
Om Thanvi : विनोद मेहता के निधन के साथ निरंतर कमजोर होती संपादक की संस्था थोड़ी और हिल गई। डेबनेयर से लेकर आउटलुक तक मैंने उनकी विफलता और सफलता के कई मुकाम देखे। आउटलुक उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। पंद्रह दिन के अंतराल में निकलने वाले इंडिया टुडे को आउटलुक ने न सिर्फ सफल चुनौती दी, उसे भी हफ्तेवार शाया होने को विवश किया। बेबाकी मेहताजी के स्वभाव में थी और उनकी संपादकी में भी; खुशी है कि आउटलुक उसे बराबर निभा रहा है। मुझे निजी तौर भी एक दफा उनका अप्रत्याशित समर्थन मिला। जब एडिटर्स गिल्ड में महासचिव पद से मैंने एमजे अकबर के आचरण के खिलाफ इस्तीफा दे दिया तो उन्होंने मुझे जूझने को प्रेरित किया था; गिल्ड के इतिहास में पहली दफा आपतकालीन बैठक बुलाई गई, जिसमें अकबर ने माफी मांगी और इस्तीफा वापस हुआ। मेहताजी के साथ उनका अनूठा तेवर चला गया; लोकतांत्रिक, बेबाक और जीवट वाला तेवर पहले से दुर्लभ था, उनके जाने से जमीन कुछ और पोली हो गई। विदा, बंधु, विदा!
सुधेंदु पटेल का सुझाव- कमल मोरारका को नोटिस भेज दो, भुगतान हो जाएगा
: ( मीडिया की मंडी में हम-4 ) : यह 1989-90 की राजनीतिक उठापटक का दौर था. दिल्ली में वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे. चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय चुनाव जीतकर सांसद बन गए थे. उन्होंने संपादक पद छोड़ दिया था. चंचल, रामकृपाल और नकवी भी चौथी दुनिया से विदा ले चुके थे. तेजी से बदलते इस घटनाक्रम में सुधेन्दु पटेल चौथी दुनिया के संपादक बन गए. वे जयपुर से दिल्ली साप्ताहिक अपडाउन करते. उनके स्नेह और आग्रह पर चौथी दुनिया से जुड़ गया. बतौर फ्रीलांसर सुधेन्दु ने मुझे खूब छापा और सम्मानजनक तरीके से छापा. बनारसी मिजाज के सुधेन्दु पटेल ने उसी मिजाज का होली अंक प्लान किया. मैंने और कृष्ण कल्कि ने पर्याप्त योगदान दिया. काफी हंगामेदार था चौथी दुनिया का वो होली अंक.
फ्रीलांसिंग का वो जमाना : दिन कॉफी हाउस में कटता, शाम रवीन्द्र मंच पर
: : ( मीडिया की मंडी में हम-3 ) : : पिता ने जब कहा कि मुझे पत्र भी नहीं लिखते हो तो अचानक बोल पड़ा- अब फ्रीलांसिंग करता हूं, इसलिए फ्री में कुछ नहीं लिखता, पत्र भी नहीं :
उन दिनों पत्रिका को टक्कर देने के लिए नवभारत टाइम्स का जयपुर एडीशन शुरू हो चुका था। प्रसार में चुनौती तो नहीं दे पाया पर गुणवत्ता की चुनौती जरूर दे रहा था। दीनानाथ मिश्र उसके पहले संपादक थे। उन्होंने प्रतिभाशाली युवा पत्रकारों की अच्छी टीम चुनी थी। थोड़े दिन बाद जनसत्ता से श्याम आचार्य को बुलाकर संपादक बना दिया था। नवभारत के ताजा कलेवर और तेवर का जबाव देने के लिए पत्रिका ने फीचर पेज शुरू करने की तैयारी की और यह जिम्मेदारी फीचर संपादक दुर्गाशंकर त्रिवेदी को सौंप दी। इस पर त्रिवेदीजी ने अतिरिक्त स्टाफ की मांग की तो कैलाश मिश्रा ने कह दिया कि किसी को भी ले लो। त्रिवेदीजी ने मेरी ओर इशारा किया तो कैलाशजी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं रविवारीय में जाना पसंद करूंगा।
फोटो खींचने के लिए दस से बीस किमी तक साइकिल से ही जाते थे किशनजी
: शून्य से शिखर की यात्रा तय की कृष्ण मुरारी किशन ने : कृष्ण मुरारी किशन नहीं रहे। सुन कर अवाक रह गया। अभी दस दिन पहले ही उनसे मुलाकात हुई थी। उनके बढते पेट के आकार को लेकर हंसी मजाक का दौर भी चला। खाते पीते घर की निशानी है पेट, कह कर उन्होंने ठठाकर हंसने को मजबूर कर दिया था। कौन जानता था कि इतनी जल्दी हम लोगों से विदा ले लेंगे। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि सन 70 के दशक में हमने पत्रकारिता आरंभ की तो उन्होंने छायाकारिता। टूटही बिना ब्रेक की सायकिल उखड़ी सीट पर मोटा सा तकिया और कंधे पर झोला। शुरुआती यही पहचान थी किशनजी की।
प्रताप सोमवंशी ने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा- जिन्हें विचार की राजनीति करनी है वे मीडिया छोड़ दें (किस्से अखबारों के : पार्ट-चार)
(सुशील उपाध्याय)
मीडिया में विचार की कद्र रही है, ऐसा हमेशा से माना जाता रहा है। इस धंधे में विचार कोई बुरी चीज नहीं रही। एक दौर रहा है जब पूंजीवादी मालिक अपनी दुनिया में रहते थे और अखबारों में वामपंथी रुझान के पत्रकार, संपादक अपना काम करते रहते थे। नई आर्थिक नीतियों के अमल में आने के बाद संभवतः पहली बार मालिकों का ध्यान विचार की तरफ गया। ये दक्षिणपंथ के उभार का दौर था। मालिकों और दक्षिणपंथ के बीच के गठजोड़ ने प्रारंभिक स्तर पर विचार के खिलाफ माहौल बनाना शुरु किया। इसके बाद धीरे-धीरे उन लोगों को दूर किया जाने लगा जो किसी विचार, खासतौर से प्रगतिशील विचार के साथ जुड़े थे। उन्हें सिस्टम के लिए खतरे के तौर पर चिह्नित किया जाने लगा। ढके-छिपे तौर पर पत्रकारों की पृष्ठभूमि की पड़ताल होने लगी। जो कभी जवानी के दिनों में किसी वामपंथी या प्रगतिशील छात्र संगठन से जुड़े रहे थे, उनकी पहचान होने लगी।
मैंने पहली बार अमर उजाला का कंपनी रूप देखा था (किस्से अखबारों के : पार्ट-तीन)
(सुशील उपाध्याय)
भुवनेश जखमोला एक सामान्य परिवार से आया हुआ आम लड़का था। वैसा ही, जैसे कि हम बाकी लोग थे। वो भी उन्हीं सपनों के साथ मीडिया में आया था, जिनके पूरा होने पर सारी दुनिया बदल जाती। कहीं कोई शोषण, उत्पीड़न, गैरबराबरी न रहती। लेकिन, न ऐसा हुआ और न होना था। भुवनेश ने नोएडा में अमर उजाला ज्वाइन किया था। 2005 में उसे देहरादून भेज दिया गया, कुछ महीने बाद भुवनेश को ऋषिकेश जाकर काम करने को कहा गया। उस वक्त भुवनेश की शादी हो चुकी थी। अमर उजाला में काम करते हुए उसे लगभग पांच साल हो गए थे, उसे तब तक पे-रोल पर नहीं लिया गया था। पांच हजार रुपये के मानदेय में वो अपनी नई गृहस्थी को जमाने और चलाने की कोशिश कर रहा था। उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह अपने संघर्षाें से पार पा लेगा और जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगा, लेकिन होना कुछ और था।
मैंने पत्रकारिता का असली पाठ ‘राजस्थान पत्रिका’ में सीखा
: ( गतांक के आगे ) : सुशील झालानी ने मुझे अरुणप्रभा के भरतपुर संस्करण का संपादक बना दिया पर अखबार निकालने का पहला पाठ सिखाया बलवंत तक्षक ने। बलवंत उस समय अलवर संस्करण के संपादक थे। एक दिन के लिए भरतपुर आकर उन्होंने मुझे अखबार निकालने की ए, बी, सी, डी सिखाई। इस तरह पत्रकारिता में बलवंत तक्षक मेरे पहले गुरु बने। अखबार शुरू होने के कुछ समय बाद ही लोकसभा के चुनावों की घोषणा हो गई।
अतुल माहेश्वरी की चौथी पुण्य तिथि और अमर उजाला से चार दशक से जुड़े एक पत्रकार का दुख
प्रातः स्मरणीय भाई साहब अतुल माहेश्वरी की आज चौथी पुण्य तिथि है। हां हम ‘उन्हें भाई’ साहब नाम से ही पुकारते रहे हैं। अमर उजाला उन्हें ‘नवोन्मेषक’ कहता है। यह उसका विषय है। चौथी पुण्य तिथि पर एक ऐसे व्यक्ति जो इंसानियत की मिसाल हो, जो मनसा, वाचा, कर्मणा पत्रकारिता और अमर उजाला को समर्पित हो, जो अपने कर्मचारियों, छोटे से छोटे हम जैसे कार्यकर्ताओं का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते हों, जिन्हें हर स्टेशन का स्टींगर मुंह जुबानी याद हो, जो हर फोन काल को स्वयं रीसिव करते और रीसिव न हो पाने की स्थिति में काल बैक करते, हर पत्र का उत्तर देना मानों उनका अपना दायित्व होता, कोई आमंत्रण हो तो उपस्थित न हो सकने की स्थिति में उसके लिए शुभ कामना का पत्र और किसी कर्मी, कार्यकर्ता के दुख-सुख में ढाल बन समाधान करते ऐसे संपादक को खोने का दुख हम-सा तुच्छ कार्यकर्ता भी महसूस कर सकता है। भाई साहब! आपको अश्रुपूरित श्रद्धांजलि, ईश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे।
सुशील झालानी ने एक तरह से मेरा गरेबान पकड़ कर मुझे पत्रकार बना दिया
: मीडिया की मंडी में हम (1) : मेरे खानदान का पत्रकारिता से दूर- दूर तक लेना देना नहीं था और ना ही मेरा। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि पत्रकार बनूंगा। पर वक्त ने बना दिया और ऐसा बना दिया कि चाह कर भी इस पहचान से मुक्त नहीं हो सका। राजस्थान के भरतपुर जैसे छोटे कस्बेनुमा शहर में पला बढ़ा मैं एक नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार का सदस्य। पिता जरूर परिवार की नौकरी परंपरा छोड़कर इंटक से जुड़कर लेबर लीडरी में सक्रिय हो गए थे। ताऊ कृषि वैज्ञानिक थे, तो एक चाचा हैडमास्टर थे तो एक डॉक्टर, एक फूफा तहसीलदार थे। हमारे तो करीब-करीब सभी मामा भी सरकारी नौकरियों में ही थे। हम नौ भाई थे और हमारे बीच पाँच बहनें।
राज्यसभा टीवी में नौकरी की ख्वाहिश रखने वाले बहुत लोगों को मायूस होना पड़ा…
नौकरी पाने की ख्वाहिश थी. राज्यसभा टीवी में काम करने की सपना था. इन्टरव्यू में खुद को साबित करने की चुनौती थी. हिन्दी और अंग्रेजी के लिए कुल जमा 4 पोस्ट थी. इंटरव्यू देने पहुंचा. कॉफी की चुस्कियों के बीच कुछ पुराने दोस्तों का भरत-मिलाप हुआ और इसके साथ मीडिया का वर्ग विभेद भी मिटता दिख रहा था. किसी चैनल के इनपुट एडिटर भी प्रोड्यूसर बनने के लिए सूट पहनकर आए थे. ऐसे में सीनियर प्रोड्यूसर के प्रोड्यूसर बनने पर सवाल उठाना गलत होगा.
राज्यसभा टीवी में नौकरी की ख्वाहिश रखने वाले बहुत लोगों को मायूस होना पड़ा…
नौकरी पाने की ख्वाहिश थी. राज्यसभा टीवी में काम करने की सपना था. इन्टरव्यू में खुद को साबित करने की चुनौती थी. हिन्दी और अंग्रेजी के लिए कुल जमा 4 पोस्ट थी. इंटरव्यू देने पहुंचा. कॉफी की चुस्कियों के बीच कुछ पुराने दोस्तों का भरत-मिलाप हुआ और इसके साथ मीडिया का वर्ग विभेद भी मिटता दिख रहा था. किसी चैनल के इनपुट एडिटर भी प्रोड्यूसर बनने के लिए सूट पहनकर आए थे. ऐसे में सीनियर प्रोड्यूसर के प्रोड्यूसर बनने पर सवाल उठाना गलत होगा.
श्रद्धांजलि : कैंसर से पंजा लड़ाते हुए अमरेंद्र कुमार ने पत्रकार की तरह जीना नहीं छोड़ा
अमरेंद्र कुमार
वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार अब हमारे बीच नहीं हैं। 10 मई, 1945 को जन्मे इस शख्स ने 13 दिसंबर, 2014 को आखिरी सांस ली। जब भारत आजादी के करीब पहुंच रहा था तो उसी दौरान अमरेंद्र कुमार का जन्म बिहार के सासाराम में हुआ। जब वे अपने पैरों पर खड़े हो कर चलना शुरू ही किए थे तो भारत स्वतंत्र देश बन चुका था। और स्वाभाविक तौर पर, उनमें स्वतंत्र खयाल कूट कूट कर भरा हुआ था। स्वतंत्र खयालों के होने की वज़ह से उन्होंने जिंदगी को अपनी तरह से जीया और परिस्थितियों के साथ समझौता नहीं करने की उनकी जिद्द ने कई बार उनका माली नुकसान भी कराया। मगर, जो विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखते हैं, वे नफे नुकसान का कभी खयाल कहां रखते और ये सारी बातें उनके व्यवहारों और कार्यप्रणालियों में साफ देखने को मिलता था।
शैलेन्द्र चौहान की षष्टिपूर्ति के अवसर पर : वे आस्वाद नहीं, आश्वस्ति के रचनाकार हैं
लगभग अनायास ही शैलेन्द्र चौहान मेरी ज़िन्दगी में चले आये थे। मुझे कई बार हैरत भी होती है कि कोई किसी के करीब न चाहते हुए भी कैसे जा सकता है। इधर के कुछ बरसों में मैंने अपनी ज़िन्दगी की वे तमाम राहें बन्द कर दी हैं जहां से किसी का प्रवेश दबे पांव भी मुमकिन हो। आख़िर रिश्तों को निभाना आसान तो नहीं फिर नये रिश्ते क्यों बनाये जायें। हर रिश्ते के साथ ज़िम्मेदारी की डोर बंधी होती है वह आदमी को और बांधती चली जाती है चुपचाप और अपराध बोध उतना ही गहराता जाता है जब रिश्तों का सही प्रकार से निर्वाह नहीं हो पाता। पुराने रिश्तों के तकाज़ों पर मैं कभी खरा नहीं उतर पाया तो नये रिश्ते बनाने से डरने लगा। और दिल के दरवाज़े तो और सख्ती से बंद कर लिये।
माखनलाल में मेरी पांच साल की पढ़ाई और आज की विज्ञापनी पत्रकारिता
सम्पादकीय पर विज्ञापन इस कदर हावी है कि लगता ही नहीं कहीं पत्रकारिता हो रही है। ये दौर ऐसा है कि हर कुछ को चाटुकारिता की चाशनी में बार-बार डुबाया जाता है और इसे ही सच्चा बताकर पेश किया जाता है। पत्रकार बनने का सपना लिए हमने 5 साल माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल में गुजारे। काफी गुर भी सीखे। पत्रकारिता की बारीकियों को हमारे गुरुओं ने हमें दम भर सिखाया। इंटर्नशिप ट्रेनिंग के लिए हमें दिल्ली आजतक भी भेजा। लेकिन पढ़ा था कि विज्ञापन और सम्पादकीय दो अलग चीजें होती हैं। लेकिन जब सच्चाई का सामना हुआ तो दिल के टुकड़े हजार भी हुए। हर समय विज्ञापन हावी रहा सम्पादकीय पर।
हमारे पत्रकारिता जीवन का यह 40वां वर्ष है… हम साठ से पहले सठिया गये हैं…
हमारे पत्रकारिता जीवन का यह 40वां वर्ष है। पत्रकारिता हमारे जीवन यापन का साधन न होने के बावजूद जिस शिद्दत से पत्रकारिता के प्रति हमारा समर्पण है, उससे हमारे अधिकतर मित्र परिचित हैं। अपने दो बच्चों को पत्रकारिता में उतारकर हम उत्साहित रहते हैं कि पत्रकारिता के उस मार्ग पर आगे बढने में हमारा योगदान हो रहा है। हमें लगता है कि 60 में तो लोग अक्सर सठिया जाते हैं जबकि हम 60 से पहले सठिया गये हैं। हमारा भानजा जो कम्प्यूटर प्रोग्राम में हमारा गुरु भी है और बीए फाइनल का छात्र है, से पिछले दिनों आगे की पढाई पर चर्चा हुई। उसने एमए मास काम करने की इच्छा जताई तो हमने इनकार कर दिया। सुझाव दिया कि दूसरे कोर्सेज कर सकते हो। एक पत्रकार जो अपने दो बच्चों को पत्रकारिता और सफल पत्रकारिता में उतार चुका हो वह तीसरे बच्चे को ना कहता हो, हमें स्वयं अपनी हां-ना पर संशय हो रहा है।
LAST CHAT WITH AJAY JHA SIR
Dear Yashwant ji, Still my hands are trembling , am shaken and eyes full of tears. Do not know how am I even writing all this. It feels as he was just there with me. A while ago. On whatsapp, on facebook, on gmail chat, on phone – blessing me from India. Our chat only used to start with me saying CHARANSPARSH DADA with a reply coming from him many times as KALYANAM ASTU.
Ajay Nath Jha, a man of his words, a walking talking encyclopedia….
Below treasure belongs to Late Shri Ajay Nath Jha, a man of his words, a walking talking encyclopedia , a person who spoke 6-7 languages fluently , a man who cannot be described in a few words or in five minutes but it will take a few weeks or months for us to collect everything about him to describe what he was as a person , truly one in a million golden heart for whom the passion was to take pain of others over himself. Before I again have teary eyes , I want you to go through his personal views in form of SHAIYARI
अजय सर हमेशा जनलिस्ट ही रहे, लाइजनर नहीं बने, तभी तो लोगों के दिलों पर राज करते थे
Nimish Kumar : आप जैसे गए Ajay N Jha sir, वैसे भी जाता है क्या कोई? रात सोते जाते वक्त जब मोबाइल पर नजर पड़ी तो फेसबुक देखकर बंद करना चाहा। सबसे ऊपर बैंगलोर से टीवी9 ग्रुप के अंग्रेजी चैनल न्यूज9 के एडिटर संदीप धर का स्टेटस था। अजय झा सर नहीं रहें। भरोसा नहीं हुआ, ये जानते हुए भी संदीप धर यदि एक वाक्य भी लिखते है, तो पूरी ईमानदारी से, जांच परख कर। ट्विट्रर पर न्यूज नेशन के बैंगलोर संवाददाता का ट्विट्ट था। फिर ट्विटटर पर मैसेज भेजा। वॉट्सअप पर मैसेज किए।
बेहद पढ़े-लिखे और स्वाभिमानी अजय झा को कोई भी नेता या नौकरशाह ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ नहीं लेता था
Pankaj Singh : The sudden death of Ajay N. Jha, a media person and much admired human being, has left me speechless. He was my junior in JNU and remained a brother all through. In JNU , he endeared himself to the entire community of students and teachers alike as a humble, affable and gregarious person who won hearts with his warmth and active interest in music.
यस चौहान अंकल, डैडी इज नो मोर…
: मैं, अजय नाथ झा और पूर्वी दिल्ली में ईस्ट एंड अपार्टमेंट की वो शाम : तारीख तो याद नहीं…हां महीना यही रहा होगा मई या जून, सन् 2013 । भयानक गर्मी। वक्त शाम करीब सात बजे के आसपास। जगह नोएडा से सटा पूर्वी दिल्ली का ईस्ट एंड अपार्टमेंट। इसी अपार्टमेंट के एक फ्लैट में रहते थे अजय नाथ झा, बेटे कैलविन और भाभी रीना के साथ। चाहे घर में कोई भी मेहमान हो। शाम के समय अजय झा का अपार्टमेंट के अंदर की सड़कों पर डेढ़ दो घंटा टहलना जरूरी था।
चिरनिद्रा में विलीन अजय नाथ झा की आखिरी तस्वीर.