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सुख-दुख

लखनऊ के पत्रकार अश्विनी कुमार श्रीवास्तव को लगा चूना, डिजिटल बैंकिंग से किया तौबा

Ashwini Kumar Srivastava : 16-17 बरसों से क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड और ऑनलाइन बैंकिंग करते रहने के बाद कल जीवन में पहली बार किसी महापुरुष ने मुझे भी डिजिटल बैंकिंग के खतरों से रूबरू करा दिया।  सिटीबैंक के मेरे क्रेडिट कार्ड से किसी ने बहुत ही काबिलियत के साथ रकम उड़ा दी और मैं कुछ भी नहीं कर पाया। हालाँकि रकम बहुत ही छोटी सी है और अब मैंने वह कार्ड ही बंद कर दिया है लेकिन उस घटना ने मेरे मन में भी डिजिटल बैंकिंग को लेकर खासी दहशत पैदा कर दी है।

<p>Ashwini Kumar Srivastava : 16-17 बरसों से क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड और ऑनलाइन बैंकिंग करते रहने के बाद कल जीवन में पहली बार किसी महापुरुष ने मुझे भी डिजिटल बैंकिंग के खतरों से रूबरू करा दिया।  सिटीबैंक के मेरे क्रेडिट कार्ड से किसी ने बहुत ही काबिलियत के साथ रकम उड़ा दी और मैं कुछ भी नहीं कर पाया। हालाँकि रकम बहुत ही छोटी सी है और अब मैंने वह कार्ड ही बंद कर दिया है लेकिन उस घटना ने मेरे मन में भी डिजिटल बैंकिंग को लेकर खासी दहशत पैदा कर दी है।</p>

Ashwini Kumar Srivastava : 16-17 बरसों से क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड और ऑनलाइन बैंकिंग करते रहने के बाद कल जीवन में पहली बार किसी महापुरुष ने मुझे भी डिजिटल बैंकिंग के खतरों से रूबरू करा दिया।  सिटीबैंक के मेरे क्रेडिट कार्ड से किसी ने बहुत ही काबिलियत के साथ रकम उड़ा दी और मैं कुछ भी नहीं कर पाया। हालाँकि रकम बहुत ही छोटी सी है और अब मैंने वह कार्ड ही बंद कर दिया है लेकिन उस घटना ने मेरे मन में भी डिजिटल बैंकिंग को लेकर खासी दहशत पैदा कर दी है।

कल जब मैं अपनी कंपनी के बाकी दो डायरेक्टर्स के साथ बैठकर किसी अहम् चर्चा में मशगूल था, उसी वक्त सिटीबैंक से मेरे मोबाइल पर 2500 रुपये के एक पेमेंट का मैसेज आया। कार्ड मेरे पास ही था और कई घंटों से हम लोग चर्चा में ही व्यस्त थे तो मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कौन सा पेमेंट है और किसने कर दिया? चूँकि पेमेंट गूगल को था तो मुझे लगा कि हो सकता है कि मैंने ही गलती से कभी कोई गूगल सर्विस सब्सक्राइब कर ली हो, जिसका मंथली बिल अब कटा हो। पर तुरंत मन में यह सवाल भी उठ गया कि बिना ओटीपी यानी वन टाइम पासवर्ड के मेरे मोबाइल पर आये या बिना मेरे द्वारा इंटरनेट पासवर्ड डाले ही यह ट्रांसेक्शन कम्पलीट ही कैसे हुआ? फिर मैंने गूगल के इंडिया कस्टमर केअर पर फ़ोन मिलाया तो वह कनाडा की किसी कन्या ने उठाया।

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उसके बाद एक घंटे तक वह मेरे गूगल अकाउंट और अपने सर्वर आदि को खंगालती रही लेकिन नहीं बता पायी कि आखिर यह ट्रांसेक्शन किसने किया और कहाँ से किया गया था। बस उसने एक ही चीज की पुष्टि की कि यह पेमेंट भले ही मेरे कार्ड से किया गया था लेकिन मेरे गूगल अकाउंट की किसी सर्विस के लिए नहीं किया गया था।

यानी किसी महापुरुष ने कार्ड और पैसे तो मेरे उड़ाए थे लेकिन खरीदारी अपने लिए की थी। ऐसी कलाकारी तभी संभव थी, जब किसी व्यक्ति के पास मेरा कार्ड नंबर, उसके पीछे लिखा सीवीवी नंबर, मेरा इंटरनेट पासवर्ड भी मौजूद हो। खैर, मैंने सिटी बैंक में फ़ोन करके जब पड़ताल की तो पता चला कि यह पेमेंट ऑनलाइन हुआ ही नहीं है बल्कि किसी ने कहीं किसी मशीन पर कार्ड ही स्वाइप कराया है।

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यह तो मेरे लिए और भी चौंकाने वाली बात थी। कार्ड मेरे पास, मेरे सामने ही रखा है लेकिन कहीं कोई और व्यक्ति ऐन मेरे जैसा ही कार्ड, वही एक्सपायिरेशन डेट, वही सीवीवी नंबर लेकर घूम रहा है। लेकिन इससे भी ज्यादा चौंकाने की बात यह थी कि मशीन में स्वाइप कराने के बाद भी पिन एंटर करना पड़ता है, वह कैसे किया गया?

इसका साफ़ सा मतलब है कि भले ही डिजिटल बैंकिंग की कई स्तरीय सुरक्षा प्रणाली हमारे देश में बना दी गयी हो लेकिन आज भी वह सुरक्षित नहीं है। यही नहीं, जब भी कोई व्यक्ति डिजिटल बैंकिंग में फंसकर किसी लुटेरे के हाथ अपनी रकम गंवा बैठता है, तो हमारे देश में यह भी व्यवस्था कायदे की नहीं बनायी गयी है कि उड़ाई गयी रकम वापस मिल सके या फिर ऐसे चोर-लुटेरे पकड़े जा सकें।

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बैंकिंग या साइबर फ्रॉड करने वाले ये लुटेरे इतने बेख़ौफ़ भी इसीलिए हैं क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता है कि हमारा देश भले ही डिजिटल इंडिया में बदल रहा हो लेकिन उससे जुड़े खतरे भांपने और उनसे निपटने के लिए यहाँ कोई तैयारी ही नहीं है।

अब मेरे ही मामले को ले लीजिए, गूगल और सिटी बैंक में लंबी पड़ताल करने के बाद भी मैं अभी तक यह नहीं जान पाया हूँ कि यह पेमेंट गूगल की किस सेवा के लिए और कहाँ से किया गया?

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लखनऊ, भारत या कहीं दूर विदेश में बैठकर किसी ने मेरे कार्ड का क्लोन बनाया और पैसा उड़ा लिया लेकिन कहाँ और कैसे हुआ यह कांड, यह कौन बता पायेगा, यही मुझे अभी तक नहीं पता… मैंने नेट पर सर्च करने की कोशिश की तो मुझे केवल इतना पता लगा कि लखनऊ में एक साइबर क्राइम सेल है लेकिन उसकी वेबसाइट, ईमेल, एफबी-ट्विटर अकाउंट का कोई अता पता नहीं। अब मैं पुलिस और अपने राजनीतिक संपर्कों से इस मामले की तह तक जाने की कोशिश तो करूँगा ही लेकिन बिना किसी संपर्क या रसूख वाले आम आदमी का क्या हाल होता होगा, यह तो मुझे समझ में आ ही गया।

कंप्लेंट या जांच-पड़ताल की इतनी लचर या नाकाफी व्यवस्था के बाद इतनी छोटी रकम के फ्रॉड के लिए तो शायद ही कोई अपने संपर्कों का इस्तेमाल करता होगा लेकिन मैं इसलिए इसे गंभीरता से ले रहा हूँ क्योंकि इसका राजफाश होने से न सिर्फ मैं भविष्य में अलर्ट रह पाऊंगा बल्कि यह भी जान पाउँगा कि आखिर मुझसे चूक कहाँ हुई, जिससे मेरी बैंकिंग, क्रेडिट कार्ड और अति गोपनीय जानकारी ऐसे किसी अपराधी के हाथ लग गयी।

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इसके अलावा, मेरे इसे गंभीरता से लेने से यह भी उम्मीद है कि भविष्य में कोई और भी इस अपराधी का शिकार होने से बच सकता है।

वैसे दिलचस्प बात यह भी है कि इतने लंबे अरसे में महज दो बार ही मुझे डिजिटल बैंकिंग के चलते चूना लगा है। इसमें भी एक बार तो मेरी ही लापरवाही और गलती थी। तब मैं दिल्ली में बिज़नस स्टैण्डर्ड अख़बार में सहायक समाचार संपादक हुआ करता था।

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हुआ यूँ था कि जिस दिन मेरी सैलरी आयी, उसी दिन रात में मेरे मोहल्ले जीके-1 के नजदीक नेहरू प्लेस के एक एटीएम से मैंने ‘सिद्धावस्था’ में कुछ पैसे निकाले। एटीएम से निकले पैसे तो मैंने बटोर कर रख लिए लेकिन कार्ड वापस लेना ही भूल गया। दूसरे दिन सुबह जब मेरी सिद्धावस्था टूटी तो कार्ड याद आया लेकिन तब तक उससे किसी महापुरुष ने मेरी पूरी सैलरी भर की खरीदारी कर डाली थी।

उसके बाद तो वही हुआ, जो भारत में डिजिटल बैंकिंग में धोखा खाये हर व्यक्ति के साथ अमूमन होता आया है। कार्ड ब्लॉक कराया, कंप्लेंट दर्ज कराई लेकिन आज 8-9 साल बीत गए उस घटना को… न वे महापुरुष मिले और न ही उड़ाई गई रकम।

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इस बार रकम भले ही कम है लेकिन क्राइम का तरीका बड़ा खतरनाक है इसलिए अपनी तरफ से तो मैं लिखित कंप्लेंट दूंगा ही… बाकी डिजिटल इंडिया जाने और उसके कर्णधार जानें…

लखनऊ के पत्रकार और उद्यमी अश्विनी कुमार श्रीवास्तव की उपरोक्त एफबी पोस्ट पर आए कुछ कमेंट्स इस प्रकार हैं…

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Manish Mishra ऐसा मेरे साथ तब हुआ था जब मैंने आईसीआईसीआई क्रेडिट कार्ड के लिये अप्लाई किया था। जन्म तिथि और माँ का नाम मालूम हो तो ऐसा संभव है। सावधान रहिये, ज़माना बहुत्ते डिजिटल हो रहा है…

Ashwini Kumar Srivastava मुझे तो पहली बार पता लगा कि डिजिटल में कंगाल करवाने का भी पूरा इंतजाम है। और लुटने के बाद किसने लूटा-कैसे लूटा- कहाँ बैठकर लूटा… ये सब जान पाने की भी कोई खास व्यवस्था नहीं है अपने यहाँ। मतलब यह कि जो गया, उसको डिजिटल इंडिया में अपना योगदान मानकर भूल जाइए… और भारत माता की जय, वंदे मातरम, पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा लगाइये…

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Manish Mishra एतना डिजिटल है देश कि होम मिनिस्ट्री की वेबसाइट हैक हो जाती है, गृहा मंत्रालय का योगदान तो देखिये।

Ashwini Kumar Srivastava यही तो कह रहे हैं कि ससुर एक तरफ तो हमारा इसरो गजब ढाए पड़ा है… और अमेरिका-चीन सब अकबकाये हुए हैं कि कभी बैलगाड़ी-साइकिल से राकेट ढोने वाला इसरो और भारत को क्या हो गया है… तो दूसरी तरफ खुद इंडिया वाले भौचक है, डिजिटल इंडिया के नाम पर देश में मचे ऐसे तमाशे से, जिसमें कब किसकी जेब कट जाये और कौन काट ले जाए, यह डिजिटल इंडिया के माई-बाप को भी नहीं पता लगेगा तो हम-आप क्या हैं… कुल मिलाकर अजब भांग खाया देश है हम लोगों का… ऐसी लूट को रोकने-पकड़ने की तैयारी किये बिना ही डिजिटल इंडिया का इतना बड़ा तंबू तानकर सबको दावत और दे दी है इस सरकार ने…

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