Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

पुण्य प्रसून ने पूछा- किसी पत्रकार ने इन दस्तावेजों को क्यों नहीं प्रकाशित या प्रसारित किया?

आडवानी 35.00, खुराना 3.00, एसएस 18.94, के नाथ 7.00, एनडीटी 0.88,बूटा 7.50, एपी 5.00, एलपीएस 5,50, एस यादव 5.00, ए एम 30.00, एएन 35.00, डी लाल 50.00, वीसीएस 47.00, एनएस 8.00…. और इसी तरह कुछ और शब्द, जिन के आगे अलग अलग नंबर। यानी ना तो इनीशियल से पता चलता कि किसका नाम और ना ही नंबर से पता चलता कि ये रकम है या कुछ और। लेकिन पन्ने के उपर लिखा हुआ पीओई फ्राम अप्रैल 86 टू मार्च 90। सारे नामों के आगे लिखे नंबर को जोडकर लिखा गया 1602.06800। कागज के एक किनारे तीन हस्ताक्षर। तीनों के नीचे तारीख 3/5/91. तो इस तरह के दो पन्ने जिसमें सिर्फ नाम के पहले अक्षर का जिक्र। मसलन दूसरे पन्ने में एलकेए या फिर वीसीएस। देखते देखते देश की सियासत गर्म होती चली गई कि जैन हवाला की डायरी का ये पन्ना है जिसमें लिखे अक्षर नेताओं के नाम हैं जिन्हें हवाला से पेमेंट हुई।

आडवानी 35.00, खुराना 3.00, एसएस 18.94, के नाथ 7.00, एनडीटी 0.88,बूटा 7.50, एपी 5.00, एलपीएस 5,50, एस यादव 5.00, ए एम 30.00, एएन 35.00, डी लाल 50.00, वीसीएस 47.00, एनएस 8.00…. और इसी तरह कुछ और शब्द, जिन के आगे अलग अलग नंबर। यानी ना तो इनीशियल से पता चलता कि किसका नाम और ना ही नंबर से पता चलता कि ये रकम है या कुछ और। लेकिन पन्ने के उपर लिखा हुआ पीओई फ्राम अप्रैल 86 टू मार्च 90। सारे नामों के आगे लिखे नंबर को जोडकर लिखा गया 1602.06800। कागज के एक किनारे तीन हस्ताक्षर। तीनों के नीचे तारीख 3/5/91. तो इस तरह के दो पन्ने जिसमें सिर्फ नाम के पहले अक्षर का जिक्र। मसलन दूसरे पन्ने में एलकेए या फिर वीसीएस। देखते देखते देश की सियासत गर्म होती चली गई कि जैन हवाला की डायरी का ये पन्ना है जिसमें लिखे अक्षर नेताओं के नाम हैं जिन्हें हवाला से पेमेंट हुई।

इस पन्ने को लेकर देश की सियासत कुछ ऐसी गर्म हुई कि लालकृष्ण आडवाणी ने ये कहकर लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया कि जब तक उनके नाम पर लगा हवाला का दाग साफ नहीं होता, वह संसद में नहीं लौटेंगे। बाकी कांग्रेस-बीजेपी के सांसद जिनके भी नाम डायरी के पन्नो पर लिखे शब्द को पूरा करते उनकी राजनीति डगमगाने लगी। और पूरे मामले की जांच शुरु हो गई। उस वक्त प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने सीबीआई के हवाले जैन हवाला की जांच कर दी। लेकिन बीस बरस पहले 1996 में डायरी का ये पन्ना किसी नेता ने हवा में नहीं लहराया। ना ही किसी सीएम ने विधानसभा में डायरी के इस पन्ने को लहराकर किसी से इस्तीफा मांगा। तब के पत्रकारों ने ही डायरी के इस पन्ने के जरीये क्रोनी कैपटिलिज्म और नेताओ का जैन बंधुओं के जरीये हवाला रैकेट से रकम लेने की बात छापी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जनसत्ता ने नामों का जिक्र किया तो आउटलुक ने तो 31 जनवरी 1996 के अंक में कवर पेज पर ही डायरी का पन्ना छाप दिया। और जैन हवाला की इस रिपोर्ट ने बोहरा कमेटी की उस रिपोर्ट को भी सतह पर ला दिया, जिसमे 93 के मुंबई ब्लास्ट के बाद नेताओं के तार अपराध-आतंक और ब्लैकमनी से जुड़े होने की बात कही गई। लेकिन तब जिक्र मीडिया के जरीये ही हो रहा था। सवाल पत्रकार ही उठा रहे थे। मीडिया संस्थान भी बेखौफ सत्ता-सियासत के भीतर की काई को उभार रहे थे।

अतीत के इन पन्नों को जिक्र इसलिये क्योंकि मौजूदा वक्त में जिन कागजों को लेकर हंगामा मचा है, उसमें पहली बार कोई भी सवाल पूछ सकता है कि आखिर ये कौन सा दौर है कि जिस दस्तावेज को केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में उछाला, जिन कागजो को राहुल गांधी हर रैली में दिखा रहे हैं और जिन कागज-दस्तावेज के आसरे वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खठखटा रहे हैं और अब 11 जनवरी को सुनाई होनी है। वह कागज मीडिया में पहले क्यों नहीं आये।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आखिर ये कैसे संभव है कि नेता ही नेताओं के खिलाफ कागज दिखा रहे हैं लेकिन किसी पत्रकार ने इन दस्तावेजों को पहले अखबार में क्यों नही छापा। किसी न्यूजचैनल के किसी पत्रकार को ये खबर पहले क्यों नहीं पता लगी। और अब जब राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लगाते हुये भूकंप लाने वाले हालात का जिक्र कर हवा में आरोपों को उछाल रहे है तो क्या वाकई किसी पत्रकार को भूकंप लाने वाली खबर की कोई जानकारी नहीं है या फिर मौजूदा दौर में जानकारी होते हुये भी पत्रकार कमजोर पड़ चुके हैं। मीडिया संस्थान किसी तरह की कोई ऐसी खबर ब्रेक करना नहीं चाहते, जहां सत्ता ही कटघरे में खड़ी हो जाये। तो क्या मौजूदा दौर में मीडिया की साख खत्म हो चली है या फिर सत्ता ने खुद पुरानी हर सत्ता से इतर कुछ इस तरह परिभाषित कर लिया है कि सत्ता की साख पर बट्टा लगाना लोकतंत्र के किसी भी खम्भे के बूते से बाहर हो चला है। या फिर लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र को ही हड़प कर देशभक्ति का राग जिस तरह देश में गाया जा रहा है, उसमें मीडिया को भी पंचतंत्र के उस बच्चे का इंतजार का है जो भोलेपन से ही बोले लेकिन बोले और राजा को नंगा कह दे।

ये सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि जैन हवाला में तो सिर्फ निजी डायरी के पन्ने थे। लेकिन सहारा और बिरला के दस्तावेजों में बाकायदा खुले तौर पर या तो पूरे नाम हैं या फिर पद हैं। यानी किसी कंपनी की फाइल से निकाले गये कागज भर ही नहीं हैं बल्कि जिस अधिकारी ने छापा मार कागजों को जब्त किया उसके दस्तख्वत भी हैं। और चश्मदीद के तौर पर सहारा की तरफ से अधिकारी के भी हस्ताक्षर हैं। लेकिन मसला कागजों या दस्तावेजों से ज्यादा अपनी अपनी सुविधा से नेताओं का कागज का कुछ हिस्सा दिखाते हुये अपने अपने राजनीतिक लाभ के लिये कागजो की परिभाषा गढते हुये खुद को पाक साफ बताने या कहें सत्ता को कटघरे में खड़ाकर अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की मशक्कत भी है। और मीडिया को लेकर असल सवाल यही से शुरु होता है कि जो भी देश का नामी अखबार या मीडिया हाउस आज की तारीख में राहुल गांधी के प्रधानमंत्री मोदी पर लगाये आरोपों को छापने-दिखाने की हिम्मत दिखा रहे हैं। क्या वाकई उन्हें पता ही नहीं था कि इस तरह के दस्तावेज भी हैं। या फिर ये कहें कि मौजूदाहालात ने हर किसी को इतना कमजोर बना दिया है कि वह सत्ता को लेकर कोई सवाल करना ही नहीं चाहता क्योंकि न्यायपालिका को लेकर भी उसके जहन में कई सवाल हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

यानी ये भी सवाल है कि क्या न्याय का रास्ता भी सत्ता ने हड़प लिया है। क्योंकि प्रशांत भूषण भी जब सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस खेहर जो 3 जनवरी को चीफ जस्टिस बन जायेंगे । उन पर सुप्रीम कोर्ट में 14 दिसंबर को ये सवाल उठाने से नहीं चूकते कि, ‘जब मामला पीएम को लेकर है और चीफ जस्टिस होने की फाइल पीएम के ही पास है तो उन्हें खुद को इस मामले से अलग कर लेना चाहिये।’ तो क्या वाकई देश में ऐसा माहौल बन चुका है कि लोकतंत्र का हर पिलर पंगु हो चला है। लेकिन यहाx तो मामला लोकतंत्र के चौथे खम्भे यानी मीडिया का है। और चूंकि पहली बार केजरीवाल ने सहारा-बिरला के दस्तावेजों को नवंबर में विधानसभा में उठाया। नवंबर के शुरु में ही प्रशांत भूषण ने भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। और राहुल गांधी ने दस्तावेजों को दिसंबर में मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधना शुरु किया। लेकिन मीडिया का सच तो यही है कि सारे दस्तावेज जून में ही मीडिया के सामने आ गये थे। और ऐसा भी नहीं है मीडिया अपने तौर पर दस्तावेजो को परख नहीं रहा था। और ऐसा भी नहीं है कि देश के जो राष्ट्रीय मीडिया इमरजेन्सी से लेकर जैन हवाला तक के दौर में कभी भी खबरों को लेकर सहमे नहीं।

सत्ता से लड़ते भिड़ते ही हमेशा नजर आये। और तो और मनमोहन सिंह के दौर के घपले घोटालों को भी जिस मीडिया हाउस ने खुलकर उभारा। वह सभी जून से नवंबर तक इन सहारा-बिरला के कागजों को दिखाने की हिम्मत दिखा क्यों नहीं पाये। जबकि सच यही है कि कागजों का पुलिंदा एक मीडिया हाउस के नकारने के बाद दूसरे मीडिया हाउस के दरवाजे पर दस्तक देता रहा। ऐसा भी नहीं है कि जून से नवंबर तक किसी मीडिया हाउस ने दस्तावेजों को परखा नहीं। हर मीडिया हाउस ने अपने खास रिपोर्टरों को दस्तावेजों के सच को जानने समझने के लिये लगाया। बोफोर्स घोटालों को उजागर करने वाले मीडिया संस्धान ने सहारा के कागजों की जांच कर रहे अधिकारी को जयपुर में पकड़ा। जानकारी हासिल की। लेकिन फिर लंबी खामोशी। तो इमरजेन्सी के दौर मे इंदिरा की सत्ता से दो दो हाथ करने वाले मीडिया संस्थान ने तो कागजों को देख कर ही मान लिया कि देश के पहले तीन को छोड़कर कुछ भी छापा जा सकता है। लेकिन उन्हें छुआ नहीं जा सकता।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जैन हवाला की डायरी के पन्नों को छापकर रातों रात देश में पत्रकारिता की साथ ऊंचा करने वाले मीडिया संस्थान ने तो कागज पर दस्तख्त करने वाले इनक्म टैक्स अधिकारी से भी बात की और कांग्रेस के एक नेता के प्राईवेट सेकेट्री से भी बात कर कागजों की सच्चाई को परखा। लेकिन उसके बाद खामोशी ही बरती गई। एक रिपोर्टर ने तो वित्त मंत्रालय के भीतर सहारा के दस्तावेजों को लेकर चल क्या रहा है, उसे भी परखा । लेकिन अखबार के पन्नों पर कुछ भी नहीं आया। और तो और दस्तावेजों में जिन नेताओं को सहारा के जिन कारिंदो ने पैसा पहुंचाया, जब उनका नाम तक दर्ज है तो उन नामों तक भी कई मीडिया हाऊस पहुंचे। यानी सहारा के कागजों में सहारा के ही जिन नामों का उल्लेख है….जो अलग अलग नेताओं को ब्रीफकेस पहुंचा रहे थे। वह नाम भी असली है और कोई दिल्ली में तो कोई लखनऊ में तो कोई मुंबई में सहारा दफ्तर का कर्मचारी है ये भी सामने आया लेकिन जून से नवंबर तक किसी मीडिया हाउस ने खबर को छूआ तक नहीं। मसलन जो ब्रीफकेस पहुंचा रहे थे या जिनके निर्देश पर ब्रीफकेस देने का जिक्र सहारा के कागजो में है, उसमें उदय, दारा, सचिन, जैसवाल, डोगरा का ही जिक्र सबसे ज्यादा है। ये सारे नाम लखनऊ में सहारा सेक्रटियट से लेकर दिल्ली दफ्तर और सहारा के मुंबई गिरगांव दफ्तर में काम करने वाले लोगों के नाम हैं। ये भी सच निकल कर आया। लेकिन फिर भी खबर मीडिया में क्यों नहीं आई।

इतना ही नहीं मुंबई के एक मीडिया संस्थान ने भी दस्तावेजों को खंगाल कर मुंबई के जिस पते से करोड़ों रुपये खाते में आ रहे थे, उसे भी खंगाला। यानी कोई खास इन्वेस्टिगेटिव पत्रकारिता करने भी जरुरत नहीं रही। सिर्फ कागज में दर्ज उस पते पर रिपोर्टर पहुंचा। जानकारी हासिल की । लेकिन खबर कहीं नहीं आई। तो क्या मीडिया की लंबी खामोशी सिर्फ मौजूदा वक्त की नब्ज बताने वाली है या फिर पहली बार देश के सिस्टम को ही कागजों में दर्ज राजनीतिक हमाम में बदल दिया गया है। क्योंकि कागजों में तो राजनीतिक दलों को रुपया बांटने में समाजवाद बरता गया। यानी सहारा दफ्तर से कुछ हाथों से लिखे पन्ने। कुछ कंप्यूटर से निकाले गये पन्ने तो कुछ नेताओं के नाम वाले पन्नो के पुलिन्दे बताते हैं कि कैसे चिटफंड के जरीये अरबों का टर्नओवर जब कोई कंपनी पार कर मजे में है तो सिर्फ गरीबो के पैसो से सपने बेचने भर का खेल नहीं होता बल्कि राजनीतिक व्यवस्था ही उसके दरवाजे पर कतार लगाये कैसे खड़ी रहती है। ये दस्तावेज उसी का नजारा भर है। यहीं से भारतीय मीडिया का वह सच उभरता है कि अगर जून से नवंबर तक तमाम मीडिया को अगर ये कागज फर्जी लग रहे थे तो नवंबर के बाद से राजनीतिक गलियारे में ही जब ये कागज हवा में लहराये जा रहे है तो कोई मीडिया ये कहने की हिम्मत क्यो नहीं दिखा पा रहा है कि उसकी जांच में तो सारे कागजात फर्जी थे। और चूंकि ऐसा हो नहीं रहा। होगा भी नहीं। तो क्या करप्शन या क्रोनी कैपटिलिज्म के कटघरे को ही देश का सिस्टम बना दिया गया है। पहली बार मीडिया का मतलब सिर्फ मीडिया घराने नहीं बल्कि पत्रकारिता करते संपादक समूह भी अपाहिज सा हो चला है। या फिर देश में वातावरण ही 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद राजनीतिक शून्यता का कुछ ऐसा बना है कि जो सत्ता में है वह खुद को पूर्व तमाम सत्ता से अलग पेश कर राष्ट्रीय हित में सत्ता चलाने का दावा कर रहा है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सत्ता पार्टी या संवैधानिक संस्थाओं तक को खारिज कर मॉस कम्यूनिकेशन / सोशल मीडिया के जरीये जनता से सीधे संवाद कर इस एहसास को जनता के बीच जगा रही है जहॉ संस्थानों की जरुरत ही ना पड़े। और जनता की आवाज ही कानूनी जामा पहने हुये दिखायी दे। और मीडिया या उसमें काम कर रहे पत्रकारों को अगर ये लग भी रहा है कि सत्ता राष्ट्रीयता के नाम को ही भुना रही हैं तो भी उसकी आवाज नहीं निकल पा रही है क्योंकि या तो देश में कोई राजनीतिक विकल्प कुछ है ही नहीं । या फिर नैतिकता की जिस पीठ पर सवार हो कर सत्ता देश को हांक रही है उसमें बाजार व्यवस्था में लोकतंत्र के हर पाये ने बीते दौर में नैतिकता ही गंवा दी है तो वह कुछ बोले कैसे । ऐसे में लोकतंत्र मतलब ही यही है कि करप्शन देश का मुद्दा हो सकता है । करप्शन के नाम पर सत्ता पलट सकती है । जनता की भावनाओं को राजनीतिक दल अपने पक्ष में कर सकते है लेकिन जो भ्रष्ट हैं, वह सभी मिले हुये है । यानी एक सरीखे हैं। और लोकतंत्र का हर पाया भी दूसरे पाये की कमजोरियों को ढंकने के ही काम आता है । और लोकतंत्र की निगरानी रखने वाला मीडिया भी उसी कतार में जा खड़ा हुआ है। तो क्या 1996 के जैन हवाला के डायरी के पन्नों से निकली सियासत और मीडिया की बुलंद आवाज बीस बरस बाद 2016 में सहारा-बिरला के दस्तावेजों तले दफन हो चली है। यहां से आगे का रास्ता अब सिर्फ लोकतंत्र के राग को गाते हुये जयहिन्द बोलने भर का बचा है। ये सवाल है। मनाइये कि यह सवाल जवाब ना बन जाये। और इसके लिये 11 जनवरी 2017 का इंतजार करना होगा। क्योंकि इसी दिन सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि सहारा-बिरला वाले कागजात फर्जी है या जांच होनी चाहिये। लेकिन चाहे अनचाहे ये तो तय हो गया कि 2016 मीडिया के रेंगने के लिये याद किया जायेगा।

वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी की एफबी वॉल से.

Advertisement. Scroll to continue reading.

इन्हें भी पढ़ें….

xxx

Advertisement. Scroll to continue reading.

xxx

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

0 Comments

  1. ravi

    December 29, 2016 at 12:38 pm

    भाईसाहब, आप कहां थे? दूसरों पर सवाल उठा रहे हो. यह ‘क्रांति’ आपने अपने चैनल पर क्यों नहीं की?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement